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Saturday, November 23, 2019

बचपन की यादें और हमारा प्रोटेस्ट (कृषि विज्ञान विशेष)

चित्र : गूगल से साभार
मैंने अपने विद्यालयी शिक्षा के दौरान आठवीं तक कृषि-विज्ञान पढ़ा है। उस समय जो मेरे कृषि-विज्ञान के अध्यापक थे उनका खुद कृषि-कार्यों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। पढ़ाने का तरीका उनका बहुत बढ़िया था तो पाठ पढ़कर प्रश्नोंत्तर लिखवा दिया करते थे और हम लोग रट्टा मारकर परीक्षा में लिख आते थे। उनकी आदत थी कि कक्षा में पढ़ाते समय कई बार कृषि-विज्ञान से हटकर जीवन की गम्भीरता और नैतिक शिक्षा पर हमारा ज्ञानवर्धन किया करते थे, ये आजीवन हमारे बहुत काम आयेगा।

जब मैं सातवीं कक्षा में था तो परीक्षा के दौरान प्रक्टिकल भी होना था। जिसमें गृह-विज्ञान पढ़ने वाली छात्राओं को विभिन्न व्यंजन बनाकर खिलाने थे और हम लोगों को कृषि कार्य से सम्बन्धित कुछ बनाकर लाना था, जैसे:- रस्सी, डलिया आदि।

जिस दिन प्रक्टिकल था उस दिन लड़कियों ने बढ़िया-बढ़िया व्यंजन विद्यालय में बनाये और गुरूजी लोगों के खाने के बाद जो बचा वो प्रसाद हम लोगों ने छककर उड़ाया। उसके बाद कृषि-विज्ञान वाले शिक्षक ने हम लोगों से पूछा ‘क्या लाये हो?’ तो हम मुँह बनाकर खड़े हो गये। सब लड़के गृह-विज्ञान के प्रक्टिकल में बने समोसा, कचौड़ी, टिक्की, पानी-बताशा आदि से पेट भरकर और हाथ से खाली थे। गुरूजी को गुस्सा भी लगी और समोसा की डकार आयी तो उन्हें कुछ अपमान भी महसूस हुआ कि गृह-विज्ञान वाली मैडम जी अब उन्हें नीचा दिखा सकती हैं क्योंकि उनकी लड़कियों ने इतना कुछ बनाकर खिलाया और गुरूजी के लड़के सब एक लाइन से नालायक और निकम्मे निकल गये। गुरुदेव को काफ़ी गुस्सा लगी तो उन्होंने अपने आशीर्वचनों से हमें कुछ सम्मानित किया, अब गुस्सा होने की बारी हमारी थी। मैं क्लास का मॉनीटर था तो मैंने ही सबका प्रतिनिधित्व करते हुए गुरूजी से कहा कि “जब हमें यहाँ विद्यालय में कुछ बनाने को सिखाया नहीं गया तो हम कैसे बना दें?” मेरी आवाज़ में गुस्सा और आत्मविश्वास एक साथ था क्योंकि मेरे लिए कृषि से सम्बंधित कुछ बनाकर लाना बिलकुल ‘आउट ऑफ़ स्लेबस’ जैसा ही था। सब लड़कों ने भी कुछ बुदबुदाकर मेरा समर्थन कर दिया।

हमारे इस तरह के “प्रोटेस्ट” के बाद गुरूजी ने समोसा खाकर बनाई गयी पूरी ऊर्जा के साथ सबको एक लाइन से 5-5 दण्डे का प्रसाद वितरित किया और आदेश दिया कि अगर कल तक आप लोगों ने कुछ बनाकर विद्यालय में जमा नहीं करवाया तो सब फेल कर दिये जाओगे। यूँ तो ये धमकियाँ हमको इतनी बार मिली थी कि हमें “फेल होने से डर नहीं लगता साहब! दण्डे से लगता है...” हम अपनी चोट में समोसा की चटनी का स्वाद भूल चुके थे और हमारा प्रोटेस्ट शुरू होने से पहले ही कुचल दिया गया। उस समय न ये बातें अख़बार में आ सकती थीं, न मिडिया इसे दिखाता, न इसके पक्ष/विपक्ष में चर्चा करने के लिए फेसबुकिया विद्वान थे। यहाँ तक की हम अपनी शिकायत प्रधानाचार्य जी से भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि हमें लगता था कि अध्यापकों का एक गुट होता है जो सिर्फ हमें मारने के लिए विद्यालय आता है और प्रधानाचार्य जी तो उसके सरदार हैं उन तक गये तो प्रसाद की मात्रा अधिक भी हो सकती है।

हमारे अभिभावक स्कूल और ट्यूशन के अध्यापकों पर इतना भरोसा करते थे कि कभी हमारे दण्डित होने पर शिकायत लेकर विद्यालय नहीं गये। अब तो लोग खुद विद्यालय पहुँच जाते हैं कि हमारे बच्चों को क्यों मारा, तब ऐसा नहीं होता था। उल्टा अगर पापा को गुस्सा लगती थी तो वो मारने का काम अध्यापाकों को सौंप देते थे। एक अध्यापक जिन्होंने मुझे 4 वर्ष की उम्र से 13 वर्ष की उम्र तक लगातार घर आकर ट्यूशन पढ़ाया वो ये काम बखूबी करते थे। उन्होंने ही ABCD भी सिखाई, ‘अ’ से अनार, ‘आ’ से आशीष भी सिखाया और पीटाई भी मन-भर करते थे।

अब फिर से अपनी बात पर आते हैं, हुआ ये कि लड़कियों द्वारा बनाये गये ‘समोसा’ और गुरूजी द्वारा मिली ‘मार’ खाकर हम शाम को विद्यालय से घर पहुँचे और बता दिया कि कल से हम पढ़ने नहीं जायेंगे हमारा नाम अलग लिखवा दो। पूछा गया क्या हुआ तो सब घटना सविस्तार वर्णन कर दिये। हमारे गाँव के एक दादा थे जो लगभग 20 वर्षों से हमारे घर पर काम करते थे। ट्रैक्टर चलाना, भैंस-गाय खिलाना, खेती आदि की सब व्यवस्था वही देखते थे और मेरे बाबा जी (ग्रैंडफादर) जो कि रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर थे वो खेती के कार्यों में दादा की सलाह ऐसे मानते थे जैसे उनके उच्च अधिकारी का आदेश हो। हमने दादा से कहकर एक बहुत बढ़िया रस्सी बनवाई। उन दिनों पेटुआ खेत में बोया जाता था फिर उसे तालाब में डुबाकर रखते थे कुछ समय बाद निकालकर उससे सन तैयार किया जाता था और फिर उसकी रस्सी बनती थी। जब रस्सी तैयार हो गयी तो फिर मैंने अपनी क्रियटीविटी दिखानी शुरू की। पास की दुकान से अलग-अलग कलर लेकर आये चवन्नी वाला फिर उसे पानी में खोलकर उसी में रस्सी को कलरफुल बनाया और रात भर सुखाने के बाद अगली सुबह विद्यालय में पेश किया। उस रस्सी की खूब तारीफ हुई, और पूरे विद्यालय में सबको दिखाई गयी। गुरूजी ने सबको बताया कि एक लड़के ने पहली बार रस्सी बनाई और इतनी बढ़िया रस्सी तैयार हुई है। उन्हें क्या पता कि लड़के के दादा ने रस्सी तैयार की है जिनके पूरे जीवन की हर बरसात रस्सी बनाने में बीतती थी। खैर, ये रहस्य आज उजागर हो गया। सब लड़के कोई रस्सी, कोई डलिया लेकर आये और गुरुदेव को समर्पित हुआ। कुछ डलिया विद्यालय में रखी गयी और कुछ गुरूजी अपने घर लेकर चले गये। अब गुरूजी भी खुश और बच्चे भी...
अतीत बड़ा लुभावना होता है चाहे उसमें कडुवाहट हो या मिठास...

- कुमार आशीष
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