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Tuesday, July 11, 2023

मेरी उत्तराखण्ड यात्रा (दिन-2, भाग-1 : अल्मोड़ा से जागेश्वर और दण्डेश्वर)

इस यात्रा को आरम्भ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये

अल्मोड़ा की सुबह बहुत लुभावनी लगी। थोड़ी देर बालकनी में खड़े होकर पर्वत श्रृंखलाओं को निहारा और फिर उस किताब की कुछ तस्वीरें क्लिक की जिसमें अल्मोड़ा के विषय में पढ़ा था। लेखक श्री अनुराग पाठक जी ने एक सच्ची घटना के आधार पर ‘ट्वेल्थ फेल’ नाम की एक किताब लिखी है। जिसमें उस किताब का नायक नव-वर्ष पर नायिका से एक बार बात करने के लिए उसके पैत्रिक घर अल्मोड़ा जाता है। उसी की यात्रा के दौरान अल्मोड़ा का थोड़ा-सा वर्णन उस किताब में आता है। हालाँकि वो बहुत कम था फिर भी अल्मोड़ा तब से मेरे मन से नहीं निकला। अल्मोड़ा आना मेरे लिए सपने के सच होने जैसा ही था। खैर, हम आज की यात्रा शुरू करते हैं।

होटल की बालकनी से अल्मोड़ा

आज हमें श्री जागेश्वर धाम की तरफ जाना था। आज मैंने होशियार बच्चे की तरह मोशन-सिकनेस की दवा सुबह ही खा ली थी जिससे दिन भर में कोई दिक्कत न हो। मेरे एक मित्र ने मुझे जागेश्वर धाम के विषय में बताया था। मैंने उनसे कहा था मुक्तेश्वर जाना है तो उन्होंने जागेश्वर का भी जिक्र कर दिया। हालाँकि पहले ये मेरी योजना में नहीं था परन्तु भोलेनाथ की कृपा से इधर भी चल पड़े। अल्मोड़ा से थोड़ी दूर ही ‘श्री चितई गोलू देवता’ का मंदिर है। हमारा आज का पहला पड़ाव यही है। जब तक हम मंदिर में दर्शन करके आते हैं तब तक आप इस मंदिर के विषय में पढ़ लीजिये।

श्री चितई गोलू देवता मंदिर:

ये स्थान अल्मोड़ा से आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। मन्दिर के अंदर सफेद घोड़े पर बैठे, सिर में सफेद पगड़ी बाँधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है। स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के राजवंशी देवता के इस मन्दिर में विदेशों से भी श्रद्धालु पहुँचते हैं, ऐसा मुझे बताया गया। यहाँ आपको लाखों की संख्या में चिट्ठियाँ और स्टाम्प लटके मिलेंगे और उतनी ही घंटियाँ और बड़े घंटे भी दिखेंगे। लोकमान्याता अनुसार लोग अपनी मनोकामनाएँ यहाँ चिट्ठी में लिखकर टांग देते हैं और फिर जब वो कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तो घंटी चढ़ाने आते हैं। बढ़िया प्रांगण और सुन्दर मन्दिर निश्चित दर्शनीय है। इसके बाहर प्रसाद और खाने-पीने की तमाम दुकानें भी हैं।

चितई गोलू देवता मन्दिर

यहाँ पर हम चितई गोलू देवता की पूजा और अपनी पेट पूजा करके आगे बढ़े। आज नाश्ते में आलू के पराठे के साथ दही और सलाद मिला था। जबकि मैं आमतौर पर चाय-पराठे को प्राथमिकता देता हूँ। सुबह से एक भी चाय नहीं मिलने से आगे के खूबसूरत नज़ारे पूरा आनन्द नहीं दे पा रहे थे। मैं मंजिल से भी ज्यादा सफर का आनन्द उठाने में विश्वास रखता हूँ। इसलिए एक अल्प-विराम लिया और ‘दुग्ध शर्करा मिश्रित पेय पदार्थ’ से अपने गले को सिंचित करके हम जागेश्वर की तरफ बढ़ते जा रह थे। रास्ता मेरे अनुमान से अधिक सुन्दर था। इधर के तमाम विडियो मैंने विभिन्न ट्रेवल व्लोग्स में देख रखे थे। आज उसी खूबसूरत रास्ते पर अपने बाइक चलाने के सपने को पूरा कर रहा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक ये भी है कि हर 15 मिनट पर रुककर फोटो खिंचवाने का मन करता है। मेरे साथ हितेश भैया जैसे ‘उत्तराखण्ड यात्रा विशेषज्ञ एवं धैर्यवान फोटोग्राफर’ भी थे। उन्होंने कई जगह चिन्हित करके खुद भी स्कूटी रुकवाई और कई जगह मैंने रोकी। हम दोनों ने खूब सारी तस्वीरें ली, हालाँकि उनकी कम मेरी ज्यादा होती थी। हितेश भैया जो नज़ारों को कैद करते हैं उसके फैन्स तो विभिन्न यात्रा समूहों में तमाम लोग हैं ही, मैंने उन्हें तस्वीरें लेते हुए देखा। कैसे उसी जगह मुझे कुछ और दिख रहा होता और जब वो क्लिक करके दिखाते तो वही जगह एकदम ही अलग लगती। कई बार मैंने भी उनके एंगल से क्लिक करने का असफल प्रयास भी किया। इस यात्रा में उनके साथ होने से बहुत सहूलियत रही और फोटोग्राफी का थोड़ा-थोड़ा तरीका उनसे सिखने को मिल रहा था।

अल्मोड़ा से जागेश्वर धाम के रास्ते में कहीं

फोटो/विडियो निकालते, चाय पीते, सफ़र का आनन्द उठाते हम जागेश्वर धाम पहुँच गये। सबसे पहले हितेश भैया के एक सूत्र के पास अपने बैग और हेलमेट रखे और फिर हाथ-पाँव धोकर श्री शंकर जी के प्रथम शिवलिंग स्वरुप के दर्शनों के लिए चल पड़े। यहीं से 200मी की दूरी पर इन्हीं मंदिर समूहों में से एक हैं श्री दण्डेश्वर महादेव जी हम वहाँ भी दर्शन करेंगे। जब तक हम सब जगह के दर्शन करके आते हैं तब तक आप इस स्थान की विशेषताओं से परिचित हो लीजिये।

श्री जागेश्वर धाम एवं दण्डेश्वर महादेव: 

जागेश्वर धाम उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँमण्डल में पड़ने वाले एक खूबसूरत जनपद अल्मोड़ा में समुद्रतल से 1890 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कई मंदिरों का समूह है। यहाँ कुल 124 मंदिर एक ही स्थान बने हैं। कुछ जगह इनकी गिनती 250 बताई जाती है परन्तु वो शायद दण्डेश्वर और वृद्धजागेश्वर आदि जोड़कर लिखी जाती होगी। मंदिर समूह से लगकर ही एक धारा भी बहती है, जिसे ‘जटागँगा’ कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इसी स्थान पर भगवान् शिव ने माता सती के जीवनसमाप्ति के बाद तपस्या की थी। ये स्थान सप्तऋषियों की भी तपःस्थली भी है। इससे जुड़ी एक कथा आप डंडेश्वर मंदिर के सन्दर्भ में पढेंगे। यहाँ भगवान् शिव के बालरूप एवं तरुणावस्था की पूजा होती है। जागेश्वर धाम में स्थित शिवलिंग ही ब्रम्हाण्ड का प्रथम शिवलिंग है। लोकमान्यताओं के अनुसार पुराणों में जो द्वादश ज्योतिर्लिंग की चर्चा आती है उसमें से 8वां ज्योतिर्लिंग यही जागेश्वर धाम स्थित नागेश भगवान् ही हैं। “नागेशं दारुकावने” इसी स्थान के लिए लिखा गया है। कुछ लोग ‘दारुकावने’ का अर्थ देवदार के वन से लगते हैं उनके अनुसार ये स्थान 8वां ज्योतिर्लिंग है और कुछ लोग इसका अर्थ द्वारिका से निकालते हैं तो वो गुजरात स्थित नागेश को 8वां ज्योतिर्लिंग मानते हैं। इस स्थान को उत्तराखण्ड के चार धामों (केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) के बाद 5वाँ धाम माना जाता है। लोकश्रुतियों की माने तो यहाँ माँगी गयी हर मनोकामना उसी स्वरुप में पूर्ण हो जाती थी, जिससे कई बार इसका दुरूपयोग भी होता था। फिर आदिगुरू शंकराचार्य जी ने यहाँ स्थित मृत्युंजय शिव स्वरुप को कीलित करके उसके दुरूपयोग को रोका अर्थात् अब ये स्थान आपकी सद्इच्छाओं की पूर्ति के लिए है। 

श्री जागेश्वर धाम मंदिर समूह

इसी से 200मी. की दूरी है श्री दण्डेश्वर महादेव जी की मंदिर है। कहते हैं एक बार जब सप्तऋषियों की पत्नियाँ यहाँ से अपने आश्रमों की तरफ जा रही थी। उन्होंने भगवान् शिव को तपस्या करते देखा और मोहित होकर रुक गयी। उनके आश्रम विलम्ब से पहुँचने का कारण सप्तऋषियों ने शिव को समझा और उन्हें दण्डित करते हुए श्राप दे दिया। उसी स्थान पर अब श्री दण्डेश्वर महादेव जी का शिवलिंग स्वरुप लेते हुए अवस्था पूजित होता है। 

पुरातव विभाग के सर्वेक्षणों और इतिहासकारों को माने तो इन मंदिर समूहों का निर्माणकाल तीन अलग-अलग कालों में विभाजित है। कल्युरीकाल, उत्तरकत्युरीकाल एवं चंद्रकाल। कत्यूरीवंशी राजाओं ने ही अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर मंदिर समूहों सहित अन्य 400 मंदिरों का भी निर्माण करवाया था। मंदिरों का निर्माण लकड़ी या सीमेंट की जगह बड़े-बड़े पत्थर स्लैब से किया गया है। यहाँ की वास्तुकला के अनुसार इनके निर्माणकाल खण्ड का अनुमान 7वीं से 12वीं शताब्दी लगाया जाता है। इन विषयों पर कोई मतेक्य नहीं है, सभी के अपने-अपने तथ्य एवं तर्क हैं। देवदार के घने वन प्रदेश में, बड़े देवदार वृक्षों और ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ ये परम पवित्र स्थान नयनाभिराम दृश्यों से अलंकृत तो है ही, इसके साथ आपको यहाँ मन की शान्ति और सुकून का जो एहसास मिलेगा उसका अनुभव यहाँ पहुँचकर ही किया जा सकता है। अल्मोड़ा से इस स्थान की दूरी लगभग 40 किलोमीटर है। जहाँ आप बस, टैक्सी या निजी वाहन द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं, सडक मार्ग से बढ़िया जुड़ा हुआ है और रास्ते भी अच्छे हैं। नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम और हवाई अड्डा पन्त नगर है।

श्री दण्डेश्वर महादेव मंदिर

श्री दण्डेश्वर महादेव मंदिर

उपर्युक्त परिचय वहाँ के स्थानीय लोगों  और इन्टरनेट आदि के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर है। मैं इतिहास का विद्यार्थी भी नहीं हूँ तो मेरी अल्पज्ञता का ध्यान रखकर तथ्यात्मक त्रुटियों को अपनी प्रतिक्रियाओं में ठीक करते रहिएगा, आपकी बड़ी कृपा होगी।

श्रीजागेश्वर धाम और श्रीदण्डेश्वर धाम जी के दर्शनों के बाद हम वापस अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। यहाँ से वृद्ध जागेश्वर की दूरी अधिक नहीं है परन्तु हमारी योजना किसी और तरफ होने तथा अगली बार यहाँ आने के बहाने के नाम पर हम श्री वृद्ध जागेश्वर नहीं जा रहे हैं। इस यात्रा में ये दूसरा दिन आधा बीत रहा है। बाकी का आधा दिन एक ऐसे स्थान पर बीतेगा जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस स्थान की एक अनोखी विशेषता है। ये स्थान भारत में इकलौता और विश्व में केवल 3 है। बाकी विस्तृत हम वहाँ पहुँचकर बतायेंगे। तब तक आप फोटो देख लीजिये, हम मिलते हैं इस यात्रा-वृत्तांत के अगले भाग में...

अल्मोड़ा का एक दृश्य

जटागँगा की पवित्र धारा

- कुमार आशीष
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Sunday, July 9, 2023

मेरी उत्तराखण्ड यात्रा (दिन-1 : लखनऊ से अल्मोड़ा)

देवभूमि उत्तराखण्ड की ख़ूबसूरती और अध्यात्मिक चेतना का तलबगार हर कोई रहता ही है। मेरा भी हमेशा से उत्तराखण्ड जाने का बहुत मन था। कई बार हरिद्वार, ऋषिकेश की योजनायें बनी भी और निरस्त भी हुईं। तमाम असफल प्रयासों के बाद अंततः मेरी उत्तराखण्ड यात्रा 24 जून 2023 को लखनऊ से आरम्भ हुई। सुबह उनींदी आँखों से बाहर देखा तो पहाड़ नहीं दिख रहे थे और जो दिख रहा था उसे वर्षा रानी ने अपना विकराल रूप लेकर देखने नहीं दिया। खिड़की का सटर बंद करके हम रेलगाड़ी की खटर-पटर सुनते, अपने मोबाइल में टिकिर-टिकिर करते हुए रेलगाड़ी के गंतव्य तक पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थे।

इस यात्रा में सब कुछ ठेठ घुमक्कड़ी की तरह था। कुछ पता नहीं कि स्टेशन से उतरकर कहाँ जाना हैं, कहाँ रुकना है, कहाँ घूमना है? बस 2-4 दिन पहाड़ों में कहीं भटकना है और बाबा नीब करोली जी का दर्शन लाभ लेना है। मेरी इस यात्रा के एक-दो दिन पहले मैंने कई फेसबुक घुमक्कड़ी समूहों में उस तरफ की यात्राओं से जुड़ी पोस्ट पढ़ी और कुछ पर उत्तर-प्रतिउत्तर से थोड़ी जानकारी जुटाई। लेकिन इतना सब मेरे लिए पर्याप्त नहीं था। मुझे हितेश भैया ने खुद से कॉल करने को कहा तो मैंने उन्हें निकलने से पहले फ़ोन कर दिया। मुझे उन्होंने रास्ते, रुकने आदि की कुछ जानकारी फ़ोन पर समझा दी। बाकी का मैंने कहा आकर देखते हैं। इसी बीच हमारी ‘लौहपथ गामिनी’ हल्द्वानी नामक ‘लौहपथ गामिनी गतिमान शून्य स्थल’ पर पहुँच गयी। स्टेशन पर उतरकर देखा तो अब पहाड़ दिखने लगे थे। एक दो तस्वीरें ली और स्टेशन से बाहर आया तो रिमझिम बारिश हो रही थी। बारिश में भीगना शौक़ है तो भीगते हुए करीब 300मी की पदयात्रा और वहाँ के कुछ भले लोगों की मार्गदर्शन से मैं एक बस के पास पहुँचा जो मुझे धानाचूली तक ले जाने वाली थी। फिर वहाँ से कोई टैक्सी लेकर मुझे (मुक्तेश्वर के पास) भटियाली पहुँचना था। बस धानाचूली की तरफ बढ़ चली और मैं उत्तराखण्ड की खूबसूरत वादियों का आनन्द लेने में व्यस्त हो गया। ‘मुझे पहाड़ बहुत प्रिय हैं’ ये बात आज पक्का कर रहा था। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब तक मैंने सिर्फ पहाड़ देखे थे तब तक वो प्रिय थे, परन्तु लग रहा था कि शायद समंदर और प्यारे होंगे। पिछले साल जब गोवा जाने का मौक़ा मिला तो समंदर भी अच्छे लगे लेकिन पहाड़ पहले प्यार की तरह ज्यादा ही प्यारे रहे।

हल्द्वानी रेलवे स्टेशन 

कानों में मिश्री घोलती हुई जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़, हल्की-हल्की बरसात और उत्तराखण्ड के खूबसूरत पहाड़ों के लगातार पीछे छूटते जा रहे शानदार नज़ारे आँखों के सामने दिखाई दे रहे थे। इससे अच्छा सफ़र क्या ही हो सकता है... कहते हैं ख़ूबसूरती ख़तरनाक भी होती है, मतलब पहाड़ों में मोशनसिकनेस का खतरा तो रहता ही है। मेरे जैसे मैदानी ईलाके में रहने वाले लड़के के लिए भी मोशन सिकनेस एक समस्या है। जिसकी दवाई मैंने इन्हीं समूहों में पढ़कर अपने साथ पहले से रखी हुई थी। परन्तु क्या है न कि दवाई कितनी भी अच्छी क्यों न हो, जब तक आप बैग में रखें रहेंगे वो जरा भी असर नहीं कर पाती है। मेरी भी दवा बैग में होने के बावजूद असर नहीं कर पाई और मैं नजारों में खोया दवाई खाना ही भूल गया था। परन्तु शरीर के कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं ने याद दिलाया तो दवाई खा ली। कुछ खास दिक्कत नहीं हुई और मैं धानाचूली पहुँच गया। वहाँ से एक कार टैक्सी से भटेलिया के लिए चल पड़ा, आगे के नज़ारे और भी प्यारे होते जा रहे थे और बरसात मुसलसल जारी थी। भटेलिया पहुँचे तो वहाँ बारिश नहीं हो रही थी। उतरकर सबसे पहले हितेश भाई से कॉल पर बात की उन्होंने एक मित्र का नम्बर भेजा जिनसे मुझे स्कूटी रेंट करनी थी। मैंने बात की और उनकी दूकान की तरफ पहुँचा तब तक हितेश भैया भी पहुँच चुके थे। हमें बात करते हुए अभी ठीक से 24 घंटे भी नहीं हुए थे, परन्तु किसी पुराने मित्र के मिलने जैसा एहसास ही उनके साथ की पहली मुलाक़ात में हुआ।

स्कूटी रेंट पर लेकर हमने पास की एक दूकान पर चाय की चुस्की ली और फिर हितेश भैया के साथ अलगे 3 दिन की योजना पर एक सार्थक चर्चा हुई। चाय ख़त्म होते-होते हमारी कैबिनेट में ये प्रस्ताव पास हो चुका था कि हम आज रात अल्मोड़ा में विश्राम करेंगे। सबसे पहले हितेश भैया मुझे अपने घर ले गये। जो कि वहाँ से थोड़ी ही दूर था। जो लोग उनके घर जा चुके हैं वो जानते हैं कि किसी मैदानी ईलाके में रहने वाले वाले लड़के के लिए एक शुद्ध पहाड़ी गाँव का रास्ता उतरना कितना बेहतरीन एहसास होता है। लेकिन उतरने के दौरान पर्याप्त सावधानी की आवश्यकता भी होती है। घर जाकर उन्होंने हमें सेब के बगीचे दिखाए। मैं जीवन में पहली बार सेब के पेड़ देख रहा था। सेब अभी अधपके थे परन्तु खुमानी एकदम तैयार थी। उन्होंने कुछ खुमानी लाकर हमें दिया। मेरा इस फल से प्रथम परिचय था। मैंने उनसे खाने के तरीके पूछे और दो घुमानी निपटा दी। बाकी इस घर की बातें आगे की पोस्ट में करेंगे, अभी यहाँ से वापस स्कूटी की तरफ चलते हैं। उनके घर से सड़क तक पहुँचना मुझे बहुत बड़ा टास्क लगा। एकदम खड़ी चढ़ाई ने थका दिया, इतना कि मुझे 500मी. की दूरी में भी एक जगह अल्प-विराम लेना पड़ा। हम स्कूटी तक पहुँचे फिर वहाँ से मैं और हितेश भैया अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। रास्तें में देश-दुनियाँ और अपनी तमाम बातें करते हुए, सुन्दर नजारों का आनन्द उठाते हम अल्मोड़ा की तरफ बढ़ रहे थे। पहाड़ों पर बाइक चलाना मेरे कई सपनों में से एक था। परन्तु कभी ऐसा मौक़ा नहीं मिलने के कारण आत्मविश्वास कम था। इसलिए अभी के लिए स्कूटी हितेश भैया के हाथ में थी। अल्मोड़ा पहुँचते-पहुँचते मैं बहुत थक चुका था। मेरा एक कल का पूरा दिन बहुत व्यस्त रहा था। पहले ऑफिस, फिर घर जाकर तैयारी करना, ट्रेन रात में 12:15 की थी, इसलिए नींद भी ठीक से नहीं ली थी। फिर आज जब से हल्द्वानी उतरे थे पूरा दिन सफ़र में बीत रहा था। ठीक से नाश्ता भी नहीं हुआ था और लंच का तो मौक़ा ही नहीं लगा। मेरा बहुत तेज सिर दर्द कर रहा था। मैं किसी होटल में जाकर लेट जाना चाहता था। हितेश भैया ने अल्मोड़ा पहुँचते ही अपने सूत्रों के माध्यम से एक होटल बुक किया और वहाँ जाकर मैंने एक दवाई ली और थोड़ी देर लेट गया। रात करीब 08:00 बजे उठा तो थोड़ा फ्रेश लग रहा था। बालकनी से जगमगाते अल्मोड़ा को देखा, कुछ बिस्कुट वगैरह खाये और फिर से सो गया। जब तक मैं नींद पूरी करता हूँ आप नीचे दी गयी तस्वीरें देख लीजिये

अल्मोड़ा को मैंने एक किताब से जाना था। उसके बाद अल्मोड़ा के बहुत से फोटो/विडियो देखे और यहाँ आने का बहुत मन था। इस विषय में बाकी बातें अगली पोस्ट में... तब तक के लिए धन्यवाद!

मुक्तेश्वर से अल्मोड़ा जाते हुए रास्ते में कहीं 
 
दो बैलों की कथा 

- कुमार आशीष
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Tuesday, April 16, 2019

झालीधाम यात्रा

झालीधाम मुख्य मन्दिर

श्री पृथ्वीनाथ महादेव मन्दिर से महज 500 मीटर की दूरी पर ये सुन्दर और शान्ति स्थान है, जिसका नाम है झालीधाम। यहां स्वामी राममिलन दास आश्रम के संत थे। गोंडा बहराइच सीमा पर स्थित मुंडेरवा सरहदी गांव के रहने वाले स्वामी राममिलन दास वैशाख शुक्ल सप्तमी तिथि में जन्म लिया। प्रारम्भ से ही भगवान के प्रेम में लीन सदा प्राणियों के कल्याण हेतु 11 वर्ष की आयु में उपनयन करा कर अयोध्या धाम में दीक्षा ग्रहण कर लगातार 21 वर्ष तक ब्रह्मलीन गुफा में ईश्वर से आत्मसात किया। श्री दास ने ईश्वर की असीम अनुकंपा से दिव्य ज्ञान प्राप्त कर वानप्रस्थ आश्रम बेल चकरा झाली नामक स्थान का चयन कर जनकल्याण करके आत्म शक्ति के बल पर आषाढ़ शुक्ल पक्ष 20 जून 1977 को शरीर त्याग कर ब्रह्मलीन महाप्रयाण प्राप्त किया। इनके पार्थिव शरीर को असंख्य साधु-संतों तथा भक्तों ने संकीर्तन के साथ अयोध्या धाम स्थित सरयू जी में विसर्जित किया। ब्रह्मलीन स्वामी राममिलन दास महाराज के पद चिन्हों पर चलकर उनके स्थान पर स्वामी नरसिंह दास जी महाराज ने जन कल्याण के लिए झाली धाम आश्रम को पर्यटन स्थल घोषित कराने में महती भूमिका अदा की। बताया जाता है कि दशकों से शुरू हुआ यहां अक्षय नवमी के अवसर पर परिक्रमा तथा मेले में देवीपाटन मंडल के विभिन्न जिलों सहित दूरदराज के बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आकर परिक्रमा कार्यक्रम में शामिल होते हैं।

तस्वीरों में देखते हैं इस आश्रम की झलक :











- कुमार आशीष
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Monday, April 15, 2019

श्री पृथ्वीनाथ महादेव मन्दिर (एशिया का सबसे बड़ा शिवलिंग)

एशिया का सबसे बड़ा शिवलिंग

जनपद गोण्डा, उत्तर-प्रदेश के खरगूपुर में स्थित इस प्राचीन श्री पृथ्वीनाथ महादेव मन्दिर का इतिहास द्वापर युग से जुड़ा हुआ है। किंवदन्तियों के अनुसार, चौसर के खेल में 12 वर्ष का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास हारने के बाद पाण्डव वनों में भटकते-भटकते गोण्डा की धरती पर पहुँचे। उसी समय वीर भीम जी ने भगवान् शिव की पूजा के लिए अपने हाथों से इस शिवलिंग की स्थापना यहाँ की थी। वक़्त के साथ भीम जी द्वारा स्थापित ये शिवलिंग धरती में समा गया।

युगों के बाद खरगूपुर के राजा मानसिंह की अनुमति से यहाँ के निवासी श्रीपृथ्वीनाथ सिंह ने अपने मकान निर्माण के लिए यहाँ खुदाई शुरू करवा दी। उसी रात श्रीपृथ्वीनाथ सिंह को स्वपन में पता चला कि इसी टीले के नीचे सात खण्डों का शिवलिंग दबा हुआ है, उन्हें एक खण्ड तक शिवलिंग खोजने का निर्देश हुआ। उन्होंने वैसा ही किया और एक खण्ड तक शिवलिंग खोजने के बाद वहाँ पूजा-अर्चना शुरू करवा दी। कालान्तर में उन्हीं के नाम से इस मन्दिर का नाम “श्री पृथ्वीनाथ महादेव” मन्दिर हो गया।

जनपद गोण्डा मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित काले पत्थरों से बने 5 फीट ऊँचे इस अद्भुत शिवलिंग को लेकर पुरातत्व विभाग का दावा है कि ये ये एशिया का सबसे बड़ा शिवलिंग है जो कि लगभग 5000 वर्ष पूर्व महाभारत काल का है। इस शिवलिंग की बनावट ऐसी है कि यहाँ हर किसी को ऐड़ी उठाकर ही जल चढ़ाना पड़ता है। शिव भक्तों की श्रद्धा का प्रमुख केन्द्र माना जाने वाला ये स्थान बहुत ही शांत और सुरम्य है। वैसे तो यहाँ वर्ष भर श्रद्धालु आते रहते हैं परन्तु सावन, शिवरात्रि, कजरीतीज आदि त्यौहारों पर यहाँ लाखों की संख्या में लोग पहुँचते हैं।

कैसे पहुँचे:


इस मन्दिर के आसपास रुकने के लिए कोई होटल इत्यादि नहीं है। इसलिए बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए गोण्डा में रुकना ही अच्छा रहता है। गोण्डा में कई होटल हैं जहाँ आप बहुत कम पैसों में रुक सकते हैं। यहाँ से लगभग 30 किलोमीटर कि दूरी पर ये मन्दिर है। गोण्डा से मन्दिर तक जाने के लिए आपको टैक्सी इत्यादि आसानी से मिल जायेगी।

गोण्डा तक पहुँचने के लिए सड़क मार्ग से आप लखनऊ से सीधे गोण्डा बस अड्डे की बस ले सकते हैं। लखनऊ के अलावा भी कई अन्य महानगरों से गोण्डा के लिए बस इत्यादि की सुविधा है।

यदि आप वायु मार्ग से आना चाहते हैं तो आपको नजदीकी एअरपोर्ट श्री चौधरी चरण सिंह अमौसी एअरपोर्ट लखनऊ पहुँचना हैं, वहाँ से टैक्सी या बस से गोण्डा पहुँच सकते हैं।

रेल मार्ग से आने वाले लोग गोण्डा जंक्शन के लिए ट्रेन पकड़े। देश के तमाम शहरों से गोण्डा जंक्शन तक सीधी रेल सेवा उपलब्ध है। गोण्डा जंक्शन से शहर की दूरी महज 3 किलोमीटर है।

श्री पृथ्वीनाथ महादेव मन्दिर

- कुमार आशीष
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Saturday, June 2, 2018

मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

“हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और”

अपने एक अलग ही अंदाज़ में जीने वाले ग़ालिब जैसा कोई व्यक्तित्व शायद ही अब किसी युग के भाग्य में हो। ग़ालिब एक ऐसा नाम जिसने केवल अपनी शायरी के बलबूते इतिहास में अपनी पैठ बना रखी है। जिसकी शायरी हर आयु, हर वर्ग के लोगों को खूब भाती है, शायरी और ग़ालिब लगभग पर्यायवाची बन चुके हैं। अगर कहीं पर उर्दू/शायरी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित स्तंभों के नाम लिखें जायें तो उनमें एक नाम “मिर्ज़ा ग़ालिब” का भी जरूर होगा। आज हम आपको उनकी हवेली की सैर करवायेंगे, लेकिन उससे पहले ग़ालिब को थोड़े और करीब से जानने की कोशिश करते हैं।

27 दिसंबर 1797 को आगरा (उप्र) में जन्में मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम ‘मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान’ था, “ग़ालिब” उनका तख़ल्लुस (Pen Name) था। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्स की बेटी उमराव बेगम से हुआ, ग़ालिब के सात संताने हुईं लेकिन दुर्भाग्यवश सभी संतानें अल्पायु में काल के गाल में चली गयीं। ग़ालिब मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबारी कवि थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को ‘दबीर-उल-मुल्क़’ और ‘नज़्म-उद-दौला’ के खिताब से नवाज़ा। उन्हें बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मुगल दरबार के शाही इतिहासविद् भी थे। अपने वक़्त के सबसे महान शायर होने के बावज़ूद उनमें इस बात का जरा भी घमण्ड नहीं था। वो खुद मीर साहब का लोहा मानते थे।

"रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब!
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था..."

कहते हैं एक बार जब ग़ालिब ने बहुत उधार की शराब पी ली और पैसे नहीं चुका सके तो दुकानदारों ने उन पर मुकदमा कर दिया। अदालत की सुनवाई के दौरान ग़ालिब ने अपना ये शेर पढ़ा और कर्ज़ माफ़ हो गया।

“कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फाक़ामस्ती एक दिन...”

ग़ालिब अपने जीवन में अनेक शहरों में रहे, लेकिन आगरा से आकर दिल्ली बसने के बाद वो यहीं के हो कर रह गये। आज भी चाँदनी-चौक दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में गली कासिम जान स्थित एक हवेली है जिसे 'हवेली मिर्ज़ा ग़लिब' कहा जाता है। यहीं पर ग़ालिब ने अपने जीवन के अन्तिम 09 वर्ष व्यतीत किये। 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने दुनियाँ के साथ अपने दर्दों को अलविदा कह दिया।

"हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता..."

ग़ालिब ने अपने जीवन में दर्द-ही-दर्द झेला, शायद उन्हें लगता था कि मरने के बाद भी उन्हें अपने दुःख-दर्दों से छुटकारा नहीं मिलेगा।

“हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है...”

दिल्ली में बल्लीमारान इलाके में स्थित उनकी हवेली पर उनके न रहने के बाद वहाँ लोगों ने कब्ज़ा करके बाजार लगानी शुरू कर दी। क्योंकि उस जमीन पर कानूनी रूप से कोई मालिकाना दावा करने वाला नहीं था इसीलिए उनकी बहुत क्षति हुई। लेकिन जिसकी हवेली थी उसने ग़ालिब के न रहने का बाद भी काफी समय तक उसका अस्तित्व बचाये रखा। फिर सन् 1999 में भारत सरकार ने उस महान शायर को श्रद्धांजलि स्वरुप इस हवेली को पुनर्जीवित किया और पूरी हवेली को मुग़लकालीन शैली में सजाया-सँवारा गया। इस संग्रहालय में ग़ालिब से जुड़ी बहुत सी चीजें रखीं हुईं हैं जैसे:- कुर्ता, हुक्का, गज़लें, शतरंज, चौपड़, पुराने बर्तन, ग़ालिब के ख़त आदि।

26 दिसम्बर 2010 को गुलज़ार साहब ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार श्री भगवान् रामपूरे जी द्वारा निर्मित ग़ालिब साहब की एक मूर्ति लगवायी, जिसका अनावरण तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित जी ने किया था। 27 दिसंबर को हर साल यहाँ ग़ालिब के जन्मदिन के मौके से खूब चहल-पहल होती है। पूरी हवेली को सजाया जाता है और फिर रोशन शमाओं के साथ दूर-दराज़ के शायरों का जामवाड़ा लगता है। दिल्ली के चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से 20 मिनट की पैदल दूरी पर अनेक तंग गलियों के बीच ये हवेली है, जब भी वक़्त मिले अवश्य जायें।

“हज़ारों ख़्वाहिशे ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले...”

तस्वीरों में देखते हैं 'ग़ालिब की हवेली :-

हुक्के के शौक़ीन ग़ालिब


ग़ालिब का कुर्ता

हमेशा ही सुनाते रहे हो अपने शेर दुनियाँ को, मेरा भी एक शेर ज़रा सुन लो न ग़ालिब!

मुगलकालीन शैली में बनी ग़ालिब की हवेली

ग़ालिब के ख़त

एक फोटो ग़ालिब साहब के साथ

ये हवेली के मुख्यद्वार पर लगा है

हवेली का मुख्यद्वार

पुराने बर्तन

अंदाज़-ए-बयाँ

ग़ालिब के शेर

इन्हीं गलियों में आया, और यहीं पर खो गया ग़ालिब!

ग़लिब के घर में

फिर मिलते हैं एक नयी यात्रा के साथ...

- कुमार आशीष
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Tuesday, January 16, 2018

जम्मू ट्रिप - चौथा दिन : "कटरा से दिल्ली तथा यात्रा टिप्स"

पूरी जम्मू ट्रिप को शुरु से पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

दिनाँक 02 जनवरी 2018, कल इतना थक गये थे कि सुबह कब हुयी पता ही नहीं चला। सुबह लगभग 08:00 बजे एक बार नींद अवश्य खुली लेकिन उठा नहीं गया, फिर लगभग 11:00 बजे जब पापा की कॉल आयी तब उठे। बिस्तर से उतरने के बाद आगे नहीं बढ़ा जा रहा, पैर में बहुत दर्द हो रहा था। खैर किसी तरह ब्रश इत्यादि करके चाय पीया। मेरे जागने के लगभग आधे घंटे बाद सौरभ भी उठे। वैसे तो आज हमें सुबह 10:00 बजे पटनीटॉप जाना था लेकिन उठे ही नहीं तो जाते कहाँ? आज ही रात को हमारी दिल्ली की ट्रेन थी और प्रयास करने पर भी अगले दिन का टिकट नहीं मिल पाने के कारण हमने पटनीटॉप जाने का विचार त्याग दिया। वहाँ पर कुछ लोगों ने बताया कि इस समय वहाँ बर्फ़बारी भी नहीं हो रही तो जाने का मन भी ज्यादा नहीं हुआ। पूरा दिन लगभग आराम करने में गया फिर शाम को कटरा घूमने निकले, थोड़ा खाया-पिये फिर वहाँ की बाजार और दुकानें देखते-देखते घूम-फिरकर वापस होटल आ गये। अब बारी थी पूरे कमरे में बिखरे सामान को समेटकर बैग में रखने की, हाँ-हाँ सिर्फ अपना सामान, होटल का नहीं। हमने अपना सामान पैक किया फिर रात को करीब 11:00 बजे हम चेकआउट करके कटरा स्टेशन की तरफ चल पड़े, यहाँ 11:50 बजे हमारी गाड़ी थी। ट्रेन के चलते ही हम सो गये और फिर सुबह आँख खुली तब से दिल्ली पहुँचने में बहुत ऊब गये क्योंकि ट्रेन जगह-जगह बहुत देर-देर तक रुक रही थी। आखिर में 06:00 घंटे की देरी से ट्रेन आनन्द विहार रेलवे स्टेशन पर पहुँची, हमने यहीं से अपने घर जाने के लियी मेट्रो पकड़ी।

माँ वैष्णों देवी जी एवं शिव जी का आशीर्वाद, मोबाइल और कैमरा मिलाकर 600 से अधिक तस्वीरें, बहुत से नये लोगों के साथ का संपर्क, होटल के अच्छे स्टाफ का व्यवहार, और भी बहुत-सारी सोमंचित करने वाली यादें तथा ढेर सारी थकान अपने दामन में समेटे अपने निवास स्थान पर पहुँचा। उन सभी का आभार जिन्होंने मेरी यात्रा के शुभ होने में दुआओं से सहयोग दिया। कुल मिलाकर बहुत-ही यादगार सफ़र रहा, मैं बार-बार जाना चाहूँगा। इस बार जो देखना रह गया है वो फिर कभी जाकर पूरा करूँगा, अपने अगले जम्मू-ट्रिप में दुबारा जब भी जाऊँगा तो पटनीटॉप, नत्थाटॉप और मानतलाई जाने की बड़ी तीव्र इच्छा है। देखते हैं अब ईश्वर अपने कौन-से नये स्वरुप के दर्शन करवाते हैं...


|| जय माता दी ||


जम्मू यात्रा के टिप्स :-

  1. सबसे पहले श्री वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की अधिकारिक वेबसाइट से वहाँ के मौसम और यात्रियों की संख्या देखकर वहाँ जाने की योजना बनाना चाहिये। वेबसाइट पर पहुँचने के लिये यहाँ क्लिक करें।
  2. अपने आने-जाने के लिये बस/ट्रेन/विमान का टिकट और वहाँ ठहरने के लिये होटल इत्यादि का आरक्षण कर लेना चाहिये। होटल की बुकिंग आप यहाँ क्लिक करके करेंगे तो आपको पूरे 700/- रूपये की छूट मिलेगी।
  3. श्राइन बोर्ड की वेबसाइट से उस दिन की यात्रा-पर्ची ले लेनी चाहिये जिस दिन आप चढ़ाई करना चाहते हैं।
  4. अगर आप हेलीकॉप्टर द्वारा कटरा से साँझीछत तक जाना चाहते हैं तो उसका भी आरक्षण करवा लेना चाहिये। इसकी सुविधा भी श्राइन बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
  5. यात्रा के दौरान जरूरी दवाएँ अपने साथ रखना न भूलें।
  6. जम्मू में प्रीपेड की सिम नहीं चलती, इसलिये आप वहाँ पोस्टपेड सिम लेकर जायें अथवा आप वहाँ पहुँचकर यात्री-सिम अवश्य खरीदें जिससे आप अपने स्वजनों के संपर्क में रहें। इंटरनेट के माध्यम से आप वहाँ के अधिकारीयों के संपर्क-सूत्र देखकर अपने मोबाइल में सुरक्षित कर लें, जिससे आपात स्थिति में आप सहायता ले सकें।
  7. चढ़ाई के दौरान बिलकुल जल्दबाजी न करें, अथवा बाद में परेशानी हो सकती है। जो गलती मैंने की मैं नहीं चाहता आप भी करें। अच्छा रहेगा कि भवन पहुँचकर वहाँ कमरा लेकर आराम कर लें फिर नहा-धोकर तब दर्शन के लिये जायें। मेरी तरफ नहाने से परहेज न करें।
  8. भैरोंनाथ पर आपको सांस लेने में दिक्कत हो सकती है, अतः वहाँ की चढ़ाई के दौरान जल्द-जल्दी रुककर विश्राम करें फिर आगे बढ़ें। अगर स्वास्थ्य साथ न दे तो सीढ़ियों से चढ़ाई करने से बचें।
  9. अपने साथ चढ़ाई के दौरान जितना कम-सामान रखेंगे उतना ही आपका सफ़र आसान रहेगा।
  10.  प्रसाद इत्यादि भवन पर मिलते हैं, इसलिये नीचे से लेकर न चढ़ें। वहाँ आपको हर दुकानदार यही कहता मिलेगा कि आगे प्रसाद नहीं मिलता।
  11.  जहाँ-जहाँ पत्थर खिसकने की आशंका है, वहाँ बोर्ड लगा होता है, उसके आसपास रुकने की गलती न करें।
  12.  नशीले पदार्थ तथा अति तैलीय खाद्य-पदार्थों के सेवन से बचें।
  13.  उलटी हो, जी मचलाये तो तुरन्त नजदीकी स्वास्थ्य सहायता केंद्र से संपर्क करें।
  14.  वहाँ बहुत-से लोग अकेले यात्रा करने आते हैं, लेकिन अकेले यात्रा न करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा।
  15.  अगर आप सर्दियों में जा रहे हैं, तो कटरा के तामपान को देखते हुये, गर्म कपडे ऊपर न जाने की भूल न करें। कटरा की अपेक्षा ऊपर बहुत अधिक ठण्डी रहती है।
  16.  अगर क्लॉकरूम पर अधिक भीड़ मिले तो मेरा वाला आईडिया अपनायें, अर्थात् बाहर से प्रसाद लेकर वहीं रखें।
  17.  गुफा के अन्दर माता जी पिण्डी स्वरुप में हैं, अतः ऐसा न हो आप मूर्ति ढूँढते रहें और दर्शनों से वंचित रह जायें।
  18.  पूरी यात्रा में कहीं-भी अनुशासनहीनता न करें, इससे आपके साथ यात्रियों को भी असुविधा होगी और आप भी कानूनी पचड़े में पड़ सकते हैं।
  19.  अगर वैष्णों-देवी के साथ-साथ और कहीं जैसे शिव-खोड़ी इत्यादि घूमने की योजना के साथ जा रहे हैं तो एक जगह घूमने के बाद एक दिन या एक रात का आराम लेकर ही अगली यात्रा शुरू करें। थके हुये शरीर से न यात्रा का आनन्द आयेगा न फोटो अच्छी आयेगी।
  20.  चढ़ाई पूरी श्रद्धा और जयकारों के साथ करें, कि यही एकमात्र रास्ता है जो आपको थकने नहीं देगा, और आपका आनन्द कई गुना बढ़ायेगा।

आशा करता हूँ मेरी पूरी यात्रा पढ़ने के बाद आपको अपनी यात्रा में काफी मदद मिलेगी। पूरे ट्रिप के दौरान ली गयी तस्वीरें देखने के लिये तथा प्रश्न पूछने के लिये नीचे दिये गये किसी भी सोशल साईट पर क्लिक करके मुझसे संपर्क कर सकते हैं...


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फिर मिलते हैं एक नयी यात्रा के साथ...


Monday, January 15, 2018

जम्मू ट्रिप - तीसरा दिन : "माता श्री वैष्णों देवी जी की यात्रा"

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|| सबसे पहले आप सभी को नव-वर्ष की अनन्त शुभकामनाएँ ||

आज 01 जनवरी 2018 की पहली सुबह है। इस बार हमारा सौभाग्य है कि हम अपने नव-वर्ष 2018 के पहले दिन ही माँ वैष्णों देवी जी के दर्शन करेंगे, इससे अच्छी शुरुआत किसी नव-वर्ष पर नहीं हुई। जैसा कि आपने पढ़ा कि शिव-खोड़ी जाने के लिये मुझे ठण्डे पानी से नहाना पड़ा था, आज मैं ऐसी कोई गलती नहीं करने वाला। मैं सुबह 06 बजे उठा और इससे पहले कि सौरभ उठते मैं नहा-धोकर तैयार हो गया। इसके बाद मैंने सौरभ को हैप्पी न्यू ईयर बोलते हुये जगाया। वो भी तैयार होने लगा तब तक मैंने चाय ऑर्डर कर दी। मैंने चाय पी और सौरभ ने कॉफी ली। इसके बाद हम दोनों पैदल ही बाण-गंगा चेक पोस्ट की तरफ चल पड़े, जो कि हमारे होटल से यानी बस-अड्डे से महज 01 किलोमीटर की दूरी पर है। चेक पोस्ट पर सुबह के समय काफी लम्बी लाइन लगी होती है, क्योंकि आगे वो मुख्य प्रवेश-द्वार है जहाँ हमारी यात्रा-पर्ची चेक होती है और हमारा सामान चेक होता है। इन सबके बाद ही आप आगे चढ़ाई कर सकते हैं। यात्रा-पर्ची काउंटर बस-अड्डे के पास ही है, वहाँ से ले सकते हैं अथवा सुविधा के लिये आप माता श्री वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की अधिकारिक वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। वेबसाइट पर पहुँचने के लिये यहाँ क्लिक करें।

यहाँ पंक्ति लम्बी अवश्य होती है लेकिन समय ज्यादा नहीं लगता, हमने भी चेकिंग करवायी और फिर चढ़ाई शुरू कर दी। यहाँ से कुछ भक्त घोड़े अथवा पालकी से जाते हैं। बच्चों के लिये यहाँ पिट्ठू मिलते हैं। अब यहाँ से साँझीछत तक हेलीकॉप्टर जाने लगे हैं लेकिन उसके लिये पहले टिकट लेना पड़ता है। सुविधाएँ खूब हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजा पैदल चलने में आता है, अगर सम्भव हो तो पैदल ही चढ़ाई करनी चाहिये। यहाँ दोनों तरफ बाजार है, खाने/पीने की अच्छी व्यवस्था रहती है। चलते-चलते हम प्रमुख-प्रवेश द्वार से 01 किलोमीटर आगे वहाँ पहुँचे जहाँ माता जी ने बाण चलाकर जल का स्रोत उत्पन्न किया था और अपने केश धोये थे, तथा जहाँ पर हनुमानजी ने प्यास बुझायी थी— बाण-गँगा। रास्ते से ही कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरने के बाद आप बाण-गँगा पर पहुँचते हैं। यहाँ भक्तगण स्नान करते हैं फिर आगे जाते हैं। यहाँ का जल बहुत ही धवल है। इस यात्रा वृन्तात को पढ़ते हुये अभी तक आप समझ गये होंगे कि “न तीर से, न तलवार से, बन्दा डरता है तो सिर्फ ठण्ड की फुहार से...” इसलिये हमने यहाँ हाथ-मुँह धोया थोड़ा जल पिया, कुछ फोटो खिंचवायी और फिर आगे बढ़े। आप कटरा से और भैरोनाथ तक सड़क मार्ग से भी जा सकते हैं और सीढियों की भी व्यवस्था है। लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ना ज्यादा कठिन होता है इसलिये सड़क मार्ग से ही चलना ठीक है।

प्रमुख प्रवेश द्वार (दर्शनी दरवाजा)

बाण-गँगा चेक पोस्ट

बाण-गँगा चेक पोस्ट से त्रिकूट पर्वत का नज़ारा

बाण-गँगा

बाण-गँगा से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे जाने पर “चरण-पादुका मन्दिर” है। जब कन्या रूपी वैष्णों माता को पकड़ने के लिये भैरौनाथ पीछे दौड़ा था तब इसी जगह से माता जी एक बार पीछे मुड़कर देखा था कि भैरोनाथ आ रहा या नहीं। माताजी के रुकने से उनके चरण-चिन्ह यहाँ बन गये। आजकल यहाँ बहुत ही खूबसूरत मन्दिर है, जहाँ पर माताजी के चरण-चिन्ह और उनके एक स्वरुप का दर्शन होता है, जिसमें वो शेर पर बैठी हैं। मन्दिर के अन्दर अन्य कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी हैं उनका दर्शन करके आशीर्वाद लेते हैं और आगे बढ़ते हैं। यहीं पास में “गीता-भवन मन्दिर” भी है, उसके दर्शन करना न भूलें। 

एक सेल्फी चरण-पादुका मन्दिर के पास

साभार इंटरनेट : माता श्री वैष्णों देवी जी के चरण-चिन्ह

साभार इंटरनेट : चरण-पादुका मन्दिर का प्रमुख दर्शन

साभार इंटरनेट : चरण-पादुका भवन

गीता-भवन मन्दिर

गीता-भवन मन्दिर के बाहर का दृश्य

दर्शन करते और फोटो खिंचवाते हम आगे बढ़ने लगे। शिव-खोड़ी की चढ़ाई करके मुझे एहसास हो गया था कि बिना खाना खाये चढ़ाई करना कितना मुश्किल होता है, इसलिये मैंने सबसे पहले खाने को प्राथमिकता दी। इस रास्ते पर खाने-पीने की बहुत-सी दुकानें हैं। हमने भी एक होटल पर आलू-पराठे का आनन्द लिया और फिर आगे चल पड़े। दोनों तरफ बाजारें सजी थीं, और दूर कहीं नज़र डालो तो पहाड़ों की सुन्दरता थकान भुला देती थी। हम प्राकृतिक सुन्दरता का आनन्द लेते चलते जा रहे थे। कुछ दूर जाने पर हम उस दो-राहे पर आ गये जहाँ से एक रास्ता (जो पुराना मार्ग है) साँझी-छत होते हुये माता जी के भवन जाता है, तथा दूसरा रास्ता (जो नया मार्ग है) हिमकोटि होते हुये माता के भवन जाता है। नया वाला मार्ग आसान है, अतः यहाँ से अधिकतर भक्त नये मार्ग पर मुड़ जाते हैं, नये मार्ग पर घोड़े नहीं जाते हैं वो सिर्फ पुराने मार्ग से चलते हैं। लेकिन क्योंकि हमें अभी ‘अर्द्धकुँवारी’ में दर्शन की पर्ची लेनी है इसलिये हम पुराने मार्ग पर थोड़ी दूर चलेंगे।

साभार इंटरनेट : यहाँ से रास्ते अलग-अलग होते हैं

धीरे-धीरे चलते और जोर-जोर से माताजी के जयकारे करते हम अर्द्धकुँवारी पहुँच गये। अर्द्धकुँवारी प्रमुख प्रवेश द्वार से 06 किलोमीटर की दूरी पर है तथा चरण-पादुका मन्दिर से साढ़े तीन किलोमीटर। यहाँ पर गर्भजून गुफा है, जहाँ माताजी ने नौ माह तपस्या की थी। यहाँ भी दर्शन के लिये पर्ची लेनी पड़ती है। मैंने जाकर पर्ची ली। आमतौर पर यात्री यहाँ आराम करते हैं, यहाँ 100/- में एक कम्बल मिलता है, जिसे वापस करने पर आपको पैसे दे दिये जाते हैं अर्थात् निःशुल्क व्यवस्था। लेकिन हमें तो आज ही यानी नव-वर्ष के दिन ही माता जी के दर्शन करने थे, इसलिये हम नहीं रुके। पर्ची काउन्टर से बायीं तरफ एक छोटी सुरंग जैसा रास्ता है, इधर से चलकर हम फिर नये वाले रास्ते पर आ गये जो कि हिमकोटि होते हुये भवन जाता है। ये रास्ता पुराने मार्ग की अपेक्षा कम चढ़ाई वाला और सुगम है। अब तक हम काफी थक चुके थे, लेकिन बैठने से थकान ज्यादा हावी होती इसलिये धीरे-धीरे बढ़ते रहना ठीक लगा। अचानक हमें याद आया कि हमने बहुत देर से कुछ खाया-पिया नहीं है, इसलिये अब हमें चाय/कॉफी की तलाश थी। बीच-बीच में कई जगह ऐसी सुविधाएँ मिली, लेकिन वहाँ सब जगह भीड़ थी। हम खोज करते-करते इस नये मार्ग पर करीब 02 किलोमीटर चल चुके थे। फिर एक जगह चाय/कॉफी मिली जहाँ भीड़ भी कम थी, हमने चाय लिया और बेंच खाली न होने के कारण पहाड़ के एक टीले पर बैठ गये। सुबह 09:00 बजे के चले अब बैठे थे, कितना सुकून और आनन्द मिला यहाँ लिखकर बता पाना मुश्किल है।

साभार इंटरनेट : सुकून देने वाला बोर्ड

यहाँ करीब पन्द्रह मिनट रुककर हम फिर आगे बढ़ चले। जब हम चले थे तो जैकेट पहन के निकले थे और स्वेटर बैग में रख चुके थे, लेकिन यहाँ तो जैकेट भी कमर में बाँधकर चलना पड़ रहा था क्योंकि गर्मी लग रही थी। रास्ते में ही एक जगह देवी-द्वार पड़ता है, यहाँ सेल्फी लेना हमने अपना कर्तव्य समझा तो ले लिया। इस जगह को देवी-द्वार शायद इसलिये कहा जाता है क्योंकि यहाँ एक तरफ तो पहाड़ रहता है दूसरे तरफ भी पहाड़ के ही अवशेष है तो इस तरह यहाँ प्राकृतिक द्वार बन जाता है, और देवी माँ के रास्ते हैं इसलिये देवी-द्वार कहलाता है। रास्ते में दो-तीन चेक पोस्ट पड़ते हैं यहाँ आपको स्कैन मशीन से गुजरना पड़ता है, इन जगहों पर अक्सर पंक्ति लम्बी लग जाती है बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़े वक़्त का नुकसान हो जाता है। क्योंकि बहुत से लोग पंक्ति में नहीं लगते बस आगे बढ़ते जाते हैं फिर वहाँ चेक पोस्ट पर बीच में घुसकर निकलते हैं तो पंक्ति वाले खड़े रह जाते हैं। हालाँकि हमने ऐसा कभी नहीं किया और अच्छा होगा आप भी न करें। इसके आगे जाने पर एक चेक पोस्ट पर यात्रा पर्ची पर मुहर लगती है और दर्शन के लिये ग्रुप नम्बर मिलता है, इसके क्या इस्तेमाल होता है मुझे नहीं पता क्योंकि जब हमने पर्ची पर मुहर लगवायी तो ग्रुप नम्बर क्या था वो पढ़ने में नहीं आ रहा था और न ही कभी भी, कहीं पर हमसे हमारा ग्रुप नम्बर पूछा गया।

सुन्दर दृश्य

साभार इंटरनेट : माता जी का भवन

चलते-चलते हम भवन के काफी समीप पहुँच गये, दोपहर के लगभग 01 बज चुके थे। यहाँ पर जगह-जगह कई क्लॉक रूम बने हैं, जहाँ आप अपना सामान जमा करते हैं, तथा कई श्राइन बोर्ड की दुकानें हैं जहाँ से आप भेंट-प्रसाद खरीदते हैं। यहाँ पर स्नान आदि की समुचित व्यवस्था है, बहुत से लोग यहाँ स्नान करके फिर सामान जमा करते हैं। कहने की जरूरत नहीं आप समझ ही चुके होंगे कि मैंने यहाँ भी स्नान नहीं किया। हम दो बार सामान जमा करने के लिये पंक्ति में खड़े हुये लेकिन वहाँ बहुत सारा वक़्त लग रहा था। इसके बाद भेंट-प्रसाद लेने के लिये और दर्शन के लिये बहुत लम्बी लाइन लगी थी इसलिये हम किसी वैकल्पिक व्यवस्था की खोज में लग गये। जहाँ दर्शन की लाइन लगी थी वहीं बहुत-सी प्रसाद बेंचने की दुकाने थीं, वो मनमाना पैसा लेकर प्रसाद देते थे और आपका सामान रख लेते थे। हमने वहीं से प्रसाद खरीदना ठीक समझा, क्योंकि ऐसा करके हमारा प्रसाद खरीदने और सामान जमा करने का वक़्त बच जाता। उन्हें जब हमने बताया कि हम दो लोग हैं तो उन्होंने एक का प्रसाद 250/- रूपये का तैयार किया, हमने सामान जमा किया और प्रसाद लेकर पंक्ति में जाकर खड़े गये। घड़ी में 03:00 बज चुके थे। यहाँ कटरा के मुकाबले काफी ठण्डी थी— तापमान लगभग 01 या 02 डिग्री के आसपास। मैंने अपना जैकेट पहन लिया और सौरभ ने निकाल कर बैग में रख दिया था तो उनकी हालत तो वही जानते होंगे। पंक्ति में उम्मींद के मुकाबले काफी कम समय लगा। मुझे लग रहा था कि कम-से-कम 04/05 घंटे लगेंगे लेकिन पंक्ति तेजी से बढ़ रही थी तो एक-डेढ़ घंटे में ही हम मन्दिर के समीप पहुँच गये। यहाँ सबसे पहले एक जगह पर नारियल जमा करके टोकन लेना पड़ता है फिर आगे बढ़ना होता है। वहाँ दो-तीन जगह सीढियाँ चढ़नी पड़ती है, अत्यधिक भीड़ के कारण पता नहीं चला कि कितनी-कितनी सीढ़ियाँ हैं। फिर कुछ-कुछ लोगों को मन्दिर के अन्दर भेज रहे थे। पिछली बार जब मैं आया था तब ये नया वाला मन्दिर नहीं था सिर्फ माता जी की गुफा ही थी, लेकिन अब बहुत भव्य मन्दिर बन गया था। उसी मन्दिर में से माता जी के प्राचीन गुफा के दर्शन होते हैं। यूँ तो यहाँ चलते-चलते दर्शन करने होते हैं, लेकिन पता नहीं कैसे हमारे पीछे ज्यादा भीड़ नहीं थी तो हमें कुछ क्षण वहाँ ठहरने का अवसर मिला। ठीक 04 बजकर 20 मिनट पर हम उस भवन में थे, 01/02 मिनट रुक कर फिर आगे बढ़े। वहाँ से निकलकर आगे जाने पर थोड़ा ऊपर चढ़ना होता है फिर आगे निकास द्वार की सीढ़ियाँ शुरू होती है। मेरी जानकारी के अनुसार सामान्यतः माता जी की प्राचीन गुफा के दर्शन इसी भवन से करने होते है प्रमुख गुफा का द्वार बन्द रहता है, लेकिन सर्दियों में उनकी प्राचीन गुफा (जिसका दर्शन भवन से करते हैं) भी खोल दी जाती है। हमारा सौभाग्य ही कहा जाना चाहिये कि वो गुफा भी खुली थी, तो जैसे ही हम भवन से बाहर निकले वहीँ पर बायीं तरफ माता जी की गुफा का प्रवेश द्वार खुला मिला। सभी भक्त पंक्तिबद्ध होकर उधर जा रहे थे कुछ आगे बढ़कर निकास द्वार की सीढियों से बाहर भी निकल रहे थे। हम भी गुफा के दरवाजे तक पहुँच गये लेकिन आगे भीड़ बहुत अधिक होने के कारण पंक्ति रुक गयी। मुझे लगा शायद यहाँ तक पहुँचकर भी गुफा में प्रवेश नहीं मिलेगा क्योंकि आरती का समय हो रहा था और आरती के समय गुफा का द्वार बंद कर दिया जाता है फिर लगभग 02 घंटे बाद दर्शन शुरू होता है। भीड़ में खड़े होकर मैं आस-पास देख रहा था तो लगा कि अब बहुत कुछ बदल गया है। जब ग्यारह वर्ष पूर्व आया था तो गुफा के भीतर चट्टान ही थी और वहाँ गँगाजी की तीव्र धारा बहती रहती थी लेकिन अब संगमरमर लग गया था। माता जी की गुफा के प्रवेश द्वार पर दो दरवाजे और लगे हैं जो कि सोने के हैं। अब तक शाम के 04 बजकर 40 मिनट हो चुके थे और शायद 05:00 बजे द्वार बंद होना था, इसलिये मैं चिंतित था और प्रार्थना भी कर रहा था कि प्रवेश मिल जाये। मेरी प्रार्थना सुनी भी गयी और मुझे अगले 05 मिनट बाद प्रवेश मिल गया। ठीक 04 बजकर 45 मिनट पर मैं अपने जीवन के बहु-प्रतीक्षित स्थान पर खड़ा था, अर्थात् माता जी के ठीक सामने। यही वो स्थान है जिसके एक साक्षात्कार के लिये दुनियाँ भर के करोड़ों श्रद्धालु कई परेशानियों का सामना करके भी आने को आतुर रहते हैं। यहाँ रुकना संभव नहीं था क्योंकि भीड़ बहुत थी। मस्तक झुकाया, दर्शन किया और आगे बढ़ गये। वहाँ से बाहर निकलकर हमने वहाँ मिलने वाले मिश्री प्रसाद को प्राप्त किया, मेरे हिसाब यही यहाँ का प्रमुख प्रसाद माना जाना चाहिये। वैसे तो यहाँ का मुख्य प्रसाद माता जी का दर्शन और वो तिलक है जो गुफा में पुजारी जी सबके मस्तक पर लगाते हैं। मुझे नहीं लगता कोई श्रद्धालु इस तिलक से वंचित रहता होगा।

साभार इंटरनेट : नये भवन से माता जी का प्रमुख दर्शन

इसके बाद हमें नारियल प्राप्त करना था जो कि हमने भवन में प्रवेश करते समय जमा करके टोकन प्राप्त किया था। यहाँ भी बहुत भीड़ होती है, इसलिये सिर्फ सौरभ ने अपना टोकन देकर नारियल वापस लिया मैंने नहीं। फिर सीढियों के रास्ते नीचे उतरने पर, 200 मीटर बाद दाहिनी तरफ भगवान् शिव जी की भी एक गुफा है। वहाँ पर लगे बोर्ड के अनुसार ये स्थल भी प्राचीन है लेकिन पहले इसकी जानकारी केवल कुछ स्थानीय लोगों को थी पर जबसे ये मन्दिर श्राइन बोर्ड के अधिकार में आया है इसका प्रचार बहुत तेजी से हुआ है। यहाँ दर्शन करने के लिये हमें लगभग 100 सीढ़ियाँ नीचे उतरना होता है। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि यहाँ ठण्ड बहुत अधिक हो रही थी, और हमने जूते भी नहीं पहने थे इसलिये हमारे पैर बिलकुल सुन्न हो रहे थे। खैर हम सीढ़ियों से नीचे पहुँचे, यहाँ पर भी एक छोटी-सी गुफा है जिसमें झुक कर जाना होता है, वहाँ अन्दर भगवान् शिव का स्वरुप बहुत ही सुन्दर शिवलिंग स्थापित है। यहाँ दर्शन करके हम वापस आये और उस दुकान पर पहुँच गये जहाँ अपना सामान रखा था। यहाँ जूते पहनने के बाद का जो आनन्द मिला उसका तो पूछिये मत। फिर हमने थोड़ा नाश्ता किया और अब वहीं पर लगे भैरो-घाटी बोर्ड का अनुसरण किया। अब तक शाम के 05 बजकर 30 मिनट हो चुके थे।

भैरोंनाथ यात्रा :-


पहले यहाँ से भैरो-घाटी जाने के लिये भक्तों को साँझीछत तक वापस जाना पड़ता था फिर वहाँ से भैरो-घाटी की चढ़ाई करनी होती थी। तब ये दूरी शायद 05 किलोमीटर की होती थी। लेकिन अब भवन के पास से ही भैरोंनाथ की चढ़ाई शुरू होती है इसलिये अब भवन से भैरो घाटी मन्दिर पहुँचने के लिये सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई करनी होती है। क्योंकि हम बहुत थक चुके थे और फिर लगा कि वहाँ भी मन्दिर में भीड़ होगी पंक्ति में जाने कितनी देर लगे इसलिये एक बार मन हुआ कि वापस चलते हैं, वहाँ दर्शन नहीं करेंगे। लेकिन हम सोंचते हुये चल रहे थे तो कुछ ऊपर चढ़ गये फिर हमने निर्णय लिया कि चलते हैं वरना यात्रा अधूरी रह जायेगी। यहाँ से रास्ता बहुत पतला और अधिक चढ़ाई वाला है, अभी तक एक ही मार्ग है लेकिन अब वैकल्पिक व्यवस्था की जा रही है। इस रास्ते पर ज्यादातर लोग घोड़े से जाते हैं। इसलिये कई बार तो रुक कर घोड़ों को निकलने का मार्ग देना पड़ता है। इधर पैदल चलने वालों की संख्या कम ही होती है। खैर हम तो पैदल ही चल रहे थे। अभी तक हमने चढ़ाई के लिये किसी भी जगह सीढियों का प्रयोग नहीं किया (जहाँ तक सड़क का मार्ग था) । यहाँ मैंने सौरभ से सीढ़ियों से चलने को कहा तो वो मान गये। लेकिन ये हमारा निर्णय गलत था, क्योंकि इतना थकने के बाद सीढियों पर चढ़ना बहुत मुश्किल था। 300 से कुछ अधिक सीढ़ियाँ थीं और हमने लगभग तीन बार विश्राम किया तब वो सीढ़ियाँ पूरी कर सके। इसके बाद हमने कभी भी सीढियों से चढ़ने की गलती नहीं की। हम फिर सड़क मार्ग से ही आगे बढ़ने लगे, कुछ आगे जाने पर हमने चाय पिया, और पास के बेंच पर बैठ गये। अब हम त्रिकूट पर्वत की लगभग सबसे ऊँची चोटी के पास थे। आस-पास की सभी चोटियाँ जो पहले हमें सर उठाने पर दिखायी देती थीं अब हमारे बराबर लग रही थीं। यहाँ ठण्ड भवन की अपेक्षा और भी अधिक थी। हाथ जैकेट से बहार निकलते ही सुन्न हो जाते थे। यूँ तो बर्फ नहीं पड़ी थी लेकिन लग ऐसा ही रहा था जैसे हम बर्फीली हवाओं के बीच में खड़े हों। मेरे अनुमान के अनुसार इस स्थान पर तापमान शून्य से कुछ नीचे रहा होगा। थोड़ा विश्राम करके हम फिर आगे बढ़े और भैरोनाथ जी के मन्दिर पहुँच गये। भवन से यहाँ तक पहुँचने में हमने डेढ़ किलोमीटर की दूरी करीब 01 घंटे में तय की जबकि हमने शिव-खोड़ी में तीन किलोमीटर की चढ़ाई सिर्फ आधे घंटे में पूरी कर की थी, वहाँ की भी चढ़ाई ऐसी ही थी। हमने प्रसाद लिया और फिर भैरोनाथ जी के मन्दिर के पास पहुँच गये। घड़ी में शाम के 06 बजकर 30 मिनट हो चुके थे। यहाँ भी 07:00 बजे आरती के लिये मन्दिर बन्द होना था इसलिय आवश्यक था कि जल्दी-से दर्शन कर लें। यहाँ भीड़ नहीं थी सिर्फ पाँच मिनट में मन्दिर के अन्दर पहुँचा जा सकता था, हमने वहीं एक जगह जूते निकाले और तभी एक बन्दर ने सौरभ का प्रसाद ले लिया। वो भोग लगाने लगा और सौरभ जी दूसरा प्रसाद खरीदने चले लगे। इसमें हमारा 10-12 मिनट चला गया। मन्दिर में लगे क्यू में प्रवेश करने के लिये कुछ दूर से आना पड़ता लेकिन जल्दबाजी में हम बीच में ही क्यू के ऊपर लगे एंगल से अन्दर कूद गये और फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर भैरोनाथ जी के दर्शन किये। सौरभ तो वैष्णों देवी कभी नहीं आये थे मैं एक बार आया तो लेकिन तब भैरोनाथ जी के दर्शन करने नहीं आया था। मैं भैरोनाथ जी के दर्शन पहली बार कर रहा था। यहाँ भैरोनाथ जी का सिर ही है दर्शन करने के लिये क्योंकि जब माता ने त्रिशूल से प्रहार किया था तो धड़ वहीँ गुफा के द्वार पर रह गया था और सिर यहाँ आकर गिरा था। यहाँ से दर्शन करके हम फिर बाहर आये।

भैरोंनाथ मन्दिर के पास लगा बोर्ड

अगर दिन होता तो हम भी यहाँ का आनन्द लेते

 ठण्डी भी बहुत लग रही थी, थकान भी बहुत ज्यादा लगी थी इसलिये अब हमें कहीं कम्बल और एक कमरा मिल जाता तो हम सो जाते। लेकिन हमें अगले दिन पटनीटॉप जाना था तो रुकना संभव नहीं था, इसलिये कुछ खाने की तलाश में नीचे उतरने लगे। यहाँ से कटरा जाने के लिये दो रास्ते हैं। पहला जिस रास्ते से हम ऊपर आये थे जो कि भवन तथा हाथीमत्था से होते हुये कटरा जाता वो, और दूसरा जो यहाँ का पुराना मार्ग है— साँझीछत होते हुये कटरा जाता है। नये मार्ग पर जाने के लिये वापस भवन जाना पड़ता तो दूरी लगभग साढ़े चौदह किमीटर पड़ती इसलिये पुराने मार्ग से उतरना ठीक था जो कि साँझीछत होते होकर जाता है, इस तरफ से दूरी सिर्फ 11 किलोमीटर पड़ती है। हमने इसी का अनुसरण किया। जब मैं पहली बार अपने माता-पिता जी के साथ आया था तो मैं इसी रास्ते से चढ़ा भी था और उतरा भी, क्योंकि तब यही एक रास्ता था। पहले जब पुराना मार्ग ही था तब श्रद्धालु इस रास्ते से ही आते थे और साँझीछत से भैरोनाथ की चढ़ाई करने के बजाय सीधे चलकर माता जी के भवन पहुँचते थे, वहाँ से दर्शन करके वापस साँझीछत आते थे और फिर भैरोनाथ जी की चढ़ाई शुरू करते थे। ऐसे में उन्हें भवन और भैरोनाथ जी दोनों का रास्ता लम्बा पड़ता था। नये मार्ग के निर्माण से दूरी भी कम हुई है और चढ़ाई भी आसन हो गयी है तथा भीड़-भाड़ भी काबू में रहती है। जिन विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में यहाँ नित-नयी सुविधाएँ हमें मिल रही है उनके लिये श्राइन बोर्ड निश्चित रूप से साधुवाद की अधिकारी है।

लगभग 02 किलोमीटर उतरने के बाद हम साँझीछत के करीब आ गये, और वही एक होटल पर हमने चाय-समोसे का आनन्द लिया। सुबह 09:00 बजे से लगातार घुमावदार रास्ते पर चढ़ाई करने के कारण उल्टी सी लग रही थी हालाँकि हम दोनों का में किसी को भी उल्टी हुई नहीं लेकिन उसी वजह से हम खाना नहीं खा सके। इस रास्ते पर उतरते समय आपको स्वयं पर काबू रखना पड़ता है वरना आप न चाहते हुये दौड़ते रहेंगे और ऐसा करने से आपके पैरों में मोच आने की आशंका अधिक रहती है। हम बस बढ़ते ही जा रहे थे सामने से कुछ लोग घोड़े द्वारा इधर से चढ़ाई करते हैं बाकी पैदल वाले अधिकतर नये मार्ग से जाते हैं। रात्रि में ऊपर से देखने पर जगह-जगह जल रही बिजलियों से पहाड़ की शोभा और भी अधिक बढ़ जाती है। चलते-चलते हम अर्द्धकुँवारी आ गये। यहाँ मैंने जाकर पता किया तो जानकारी मिली कि दर्शन के लिये हमारा नम्बर कल शाम तक आयेगा अर्थात लगभग 20 घंटे बाद। अगले ही दिन हमें पटनीटॉप जाना था और हमारी ट्रेन भी थी। दुर्भाग्यवश हमें यहाँ का दर्शन नहीं मिला। हम नीचे की तरफ बढ़ने लगे। यहाँ जगह-जगह लोग दुकानों से सामान की खरीददारी करते हैं, लेकिन हम इतना थक चुके थे कि हम जल्दी से होटल पहुँचना चाहते थे। इसलिये बिना किसी खरीददारी के हम बाण-गँगा के चेक पोस्ट पर पहुँच गये।

दर्शनी दरवाजा, रात का दृश्य

कहा जा सकता है कि हमारी पैदल-यात्रा पूर्ण हो चुकी थी क्योंकि यहाँ से होटल जाने के लिये ऑटो मिल सकता था। हमने ऑटो से कहा बस-अड्डे जाना है तो उसने 01 किलोमीटर का 400 रूपये माँगा। हम पैदल ही आगे बढ़ चले। बाण-गँगा से होटल तक पैदल ही आये। रात को 11:00 बजे होटल में पहुँचते ही गर्म-पानी से पैर धुले तो बड़ी राहत मिली। थकान बहुत थी लेकिन माता जी दर्शनों के आनन्द के आगे फीकी थी। मेरी यात्रा बहुत-ही यादगार और सुखद रही, मेरा तो नया-वर्ष बन गया। कल क्या करना है, क्या नहीं कुछ सोंचने की शक्ति नहीं बची थी बस सोने का मन हो रहा था इसलिये हम तुरन्त बिस्तर पर गिरे और सो गये।

|| जय माता दी ||


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