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Sunday, July 9, 2023

मेरी उत्तराखण्ड यात्रा (दिन-1 : लखनऊ से अल्मोड़ा)

देवभूमि उत्तराखण्ड की ख़ूबसूरती और अध्यात्मिक चेतना का तलबगार हर कोई रहता ही है। मेरा भी हमेशा से उत्तराखण्ड जाने का बहुत मन था। कई बार हरिद्वार, ऋषिकेश की योजनायें बनी भी और निरस्त भी हुईं। तमाम असफल प्रयासों के बाद अंततः मेरी उत्तराखण्ड यात्रा 24 जून 2023 को लखनऊ से आरम्भ हुई। सुबह उनींदी आँखों से बाहर देखा तो पहाड़ नहीं दिख रहे थे और जो दिख रहा था उसे वर्षा रानी ने अपना विकराल रूप लेकर देखने नहीं दिया। खिड़की का सटर बंद करके हम रेलगाड़ी की खटर-पटर सुनते, अपने मोबाइल में टिकिर-टिकिर करते हुए रेलगाड़ी के गंतव्य तक पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थे।

इस यात्रा में सब कुछ ठेठ घुमक्कड़ी की तरह था। कुछ पता नहीं कि स्टेशन से उतरकर कहाँ जाना हैं, कहाँ रुकना है, कहाँ घूमना है? बस 2-4 दिन पहाड़ों में कहीं भटकना है और बाबा नीब करोली जी का दर्शन लाभ लेना है। मेरी इस यात्रा के एक-दो दिन पहले मैंने कई फेसबुक घुमक्कड़ी समूहों में उस तरफ की यात्राओं से जुड़ी पोस्ट पढ़ी और कुछ पर उत्तर-प्रतिउत्तर से थोड़ी जानकारी जुटाई। लेकिन इतना सब मेरे लिए पर्याप्त नहीं था। मुझे हितेश भैया ने खुद से कॉल करने को कहा तो मैंने उन्हें निकलने से पहले फ़ोन कर दिया। मुझे उन्होंने रास्ते, रुकने आदि की कुछ जानकारी फ़ोन पर समझा दी। बाकी का मैंने कहा आकर देखते हैं। इसी बीच हमारी ‘लौहपथ गामिनी’ हल्द्वानी नामक ‘लौहपथ गामिनी गतिमान शून्य स्थल’ पर पहुँच गयी। स्टेशन पर उतरकर देखा तो अब पहाड़ दिखने लगे थे। एक दो तस्वीरें ली और स्टेशन से बाहर आया तो रिमझिम बारिश हो रही थी। बारिश में भीगना शौक़ है तो भीगते हुए करीब 300मी की पदयात्रा और वहाँ के कुछ भले लोगों की मार्गदर्शन से मैं एक बस के पास पहुँचा जो मुझे धानाचूली तक ले जाने वाली थी। फिर वहाँ से कोई टैक्सी लेकर मुझे (मुक्तेश्वर के पास) भटियाली पहुँचना था। बस धानाचूली की तरफ बढ़ चली और मैं उत्तराखण्ड की खूबसूरत वादियों का आनन्द लेने में व्यस्त हो गया। ‘मुझे पहाड़ बहुत प्रिय हैं’ ये बात आज पक्का कर रहा था। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब तक मैंने सिर्फ पहाड़ देखे थे तब तक वो प्रिय थे, परन्तु लग रहा था कि शायद समंदर और प्यारे होंगे। पिछले साल जब गोवा जाने का मौक़ा मिला तो समंदर भी अच्छे लगे लेकिन पहाड़ पहले प्यार की तरह ज्यादा ही प्यारे रहे।

हल्द्वानी रेलवे स्टेशन 

कानों में मिश्री घोलती हुई जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़, हल्की-हल्की बरसात और उत्तराखण्ड के खूबसूरत पहाड़ों के लगातार पीछे छूटते जा रहे शानदार नज़ारे आँखों के सामने दिखाई दे रहे थे। इससे अच्छा सफ़र क्या ही हो सकता है... कहते हैं ख़ूबसूरती ख़तरनाक भी होती है, मतलब पहाड़ों में मोशनसिकनेस का खतरा तो रहता ही है। मेरे जैसे मैदानी ईलाके में रहने वाले लड़के के लिए भी मोशन सिकनेस एक समस्या है। जिसकी दवाई मैंने इन्हीं समूहों में पढ़कर अपने साथ पहले से रखी हुई थी। परन्तु क्या है न कि दवाई कितनी भी अच्छी क्यों न हो, जब तक आप बैग में रखें रहेंगे वो जरा भी असर नहीं कर पाती है। मेरी भी दवा बैग में होने के बावजूद असर नहीं कर पाई और मैं नजारों में खोया दवाई खाना ही भूल गया था। परन्तु शरीर के कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं ने याद दिलाया तो दवाई खा ली। कुछ खास दिक्कत नहीं हुई और मैं धानाचूली पहुँच गया। वहाँ से एक कार टैक्सी से भटेलिया के लिए चल पड़ा, आगे के नज़ारे और भी प्यारे होते जा रहे थे और बरसात मुसलसल जारी थी। भटेलिया पहुँचे तो वहाँ बारिश नहीं हो रही थी। उतरकर सबसे पहले हितेश भाई से कॉल पर बात की उन्होंने एक मित्र का नम्बर भेजा जिनसे मुझे स्कूटी रेंट करनी थी। मैंने बात की और उनकी दूकान की तरफ पहुँचा तब तक हितेश भैया भी पहुँच चुके थे। हमें बात करते हुए अभी ठीक से 24 घंटे भी नहीं हुए थे, परन्तु किसी पुराने मित्र के मिलने जैसा एहसास ही उनके साथ की पहली मुलाक़ात में हुआ।

स्कूटी रेंट पर लेकर हमने पास की एक दूकान पर चाय की चुस्की ली और फिर हितेश भैया के साथ अलगे 3 दिन की योजना पर एक सार्थक चर्चा हुई। चाय ख़त्म होते-होते हमारी कैबिनेट में ये प्रस्ताव पास हो चुका था कि हम आज रात अल्मोड़ा में विश्राम करेंगे। सबसे पहले हितेश भैया मुझे अपने घर ले गये। जो कि वहाँ से थोड़ी ही दूर था। जो लोग उनके घर जा चुके हैं वो जानते हैं कि किसी मैदानी ईलाके में रहने वाले वाले लड़के के लिए एक शुद्ध पहाड़ी गाँव का रास्ता उतरना कितना बेहतरीन एहसास होता है। लेकिन उतरने के दौरान पर्याप्त सावधानी की आवश्यकता भी होती है। घर जाकर उन्होंने हमें सेब के बगीचे दिखाए। मैं जीवन में पहली बार सेब के पेड़ देख रहा था। सेब अभी अधपके थे परन्तु खुमानी एकदम तैयार थी। उन्होंने कुछ खुमानी लाकर हमें दिया। मेरा इस फल से प्रथम परिचय था। मैंने उनसे खाने के तरीके पूछे और दो घुमानी निपटा दी। बाकी इस घर की बातें आगे की पोस्ट में करेंगे, अभी यहाँ से वापस स्कूटी की तरफ चलते हैं। उनके घर से सड़क तक पहुँचना मुझे बहुत बड़ा टास्क लगा। एकदम खड़ी चढ़ाई ने थका दिया, इतना कि मुझे 500मी. की दूरी में भी एक जगह अल्प-विराम लेना पड़ा। हम स्कूटी तक पहुँचे फिर वहाँ से मैं और हितेश भैया अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। रास्तें में देश-दुनियाँ और अपनी तमाम बातें करते हुए, सुन्दर नजारों का आनन्द उठाते हम अल्मोड़ा की तरफ बढ़ रहे थे। पहाड़ों पर बाइक चलाना मेरे कई सपनों में से एक था। परन्तु कभी ऐसा मौक़ा नहीं मिलने के कारण आत्मविश्वास कम था। इसलिए अभी के लिए स्कूटी हितेश भैया के हाथ में थी। अल्मोड़ा पहुँचते-पहुँचते मैं बहुत थक चुका था। मेरा एक कल का पूरा दिन बहुत व्यस्त रहा था। पहले ऑफिस, फिर घर जाकर तैयारी करना, ट्रेन रात में 12:15 की थी, इसलिए नींद भी ठीक से नहीं ली थी। फिर आज जब से हल्द्वानी उतरे थे पूरा दिन सफ़र में बीत रहा था। ठीक से नाश्ता भी नहीं हुआ था और लंच का तो मौक़ा ही नहीं लगा। मेरा बहुत तेज सिर दर्द कर रहा था। मैं किसी होटल में जाकर लेट जाना चाहता था। हितेश भैया ने अल्मोड़ा पहुँचते ही अपने सूत्रों के माध्यम से एक होटल बुक किया और वहाँ जाकर मैंने एक दवाई ली और थोड़ी देर लेट गया। रात करीब 08:00 बजे उठा तो थोड़ा फ्रेश लग रहा था। बालकनी से जगमगाते अल्मोड़ा को देखा, कुछ बिस्कुट वगैरह खाये और फिर से सो गया। जब तक मैं नींद पूरी करता हूँ आप नीचे दी गयी तस्वीरें देख लीजिये

अल्मोड़ा को मैंने एक किताब से जाना था। उसके बाद अल्मोड़ा के बहुत से फोटो/विडियो देखे और यहाँ आने का बहुत मन था। इस विषय में बाकी बातें अगली पोस्ट में... तब तक के लिए धन्यवाद!

मुक्तेश्वर से अल्मोड़ा जाते हुए रास्ते में कहीं 
 
दो बैलों की कथा 

- कुमार आशीष
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