लेखक - डॉ. राही मासूम रज़ा
फॉर्मेट - पेपरबैक
पृष्ठ संख्या - 114 पेज
मूल्य - ₹100
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन
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बी. आर. चोपड़ा जी द्वार निर्देशित ‘महाभारत’ धारावाहिक के अमर संवादों का लेखन करने वाले ‘डॉ. राही मासूम रज़ा’ द्वारा रचित उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ वास्तव में बलभद्र नारायाण शुक्ला उर्फ़ टोपी शुक्ला का जीवन परिचय है। पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है। परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गन्दी गाली है। यह उपन्यास अश्लील है- जीवन की तरह। ‘यह कहानी इस देश, बल्कि इस संसार की कहानी का एक स्लाइस है।‘
हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों पर करारे व्यंगात्मक शैली में लिखा गया ये उपन्यास सचमुच आज की परिस्थिति को आईना दिखा रहा है जिसकी सूरत बहुत ही ख़राब है। इसी में एक जगह लिखा है कि “हिन्दू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा?" इस कहानी का जो प्रमुख पात्र टोपी शुक्ला है, उसे कुछ जगह नौकरी इसलिए नहीं मिलती क्योंकि वह हिन्दू है और कुछ जगह इसलिए नहीं मिलती क्योंकि वह मुस्लिम है। इस पुस्तक के अनुसार इस देश में सभी जातियों के लिए थोड़ा या ज्यादा जगह की गुंजाइश है पर जो हिन्दुस्तानी है वो कहाँ जाये? यह उपन्यास जहाँ हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की सच्चाई उजागर करता है वहीं एक तीखा प्रश्न भी समाज के सामने लाकर रख देता है, जिस पर बड़े-बड़े सामाजिक ठेकेदारों को सोचने और उत्तर खोजने की ज़रूरत है। उपन्यास के अन्त में टोपी शुक्ला उन लोगों से कंप्रोमाइज नहीं कर पाता है जो समाज के तथाकथित ठेकेदार हैं, जो टोपी शुक्ला से इसीलिए नफरत करते हैं क्योंकि वो हिन्दू होकर भी मुसलमानों से हमदर्दी रखता है, उनके साथ रहता है। इसीलिए जब टोपी शुक्ला को नौकरी मिलती है तो वो आत्महत्या कर लेता है। ‘आत्महत्या’ वाली बात लिखकर मैं इस पुस्तक के क्लाइमैक्स का उजागर नहीं कर रहा हूँ क्योंकि ये पूरी पुस्तक हर पन्ने पर क्लाइमैक्स है। उसे उजागर करने के लिए मुझे पूरी किताब ही यहाँ लिखनी पड़ेगी। परन्तु मैं ऐसा करने वाला नहीं हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि एक बार आप इस पुस्तक को जरूर पढ़ें। इस पुस्तक के लगभग सभी किरदार मुख्य भूमिका में नज़र आते हैं, केवल कुछ को छोड़कर (जो मुख्य पात्र में नहीं है) सभी पात्र में आप स्वयं को पायेंगे। ऐसा लगेगा कि ये कहानी आपकी ही है। जैसे-जैसे पन्ने पलटते जायेंगे आप अपना भी किरदार बदलते जायेंगे और यही बात मुझे इस पुस्तक की सबसे ख़ास लगी। इसी पुस्तक में कथाकार कहता है कि “कोई कहानी कभी बिलकुल किसी एक की नहीं हो सकती। कहानी सबकी होती है और फिर भी उसकी ईकाई नहीं टूटती है।“
इस पुस्तक की प्रिंटिंग क्वालिटी आधुनिकता के हिसाब से ठीक है। परन्तु इसके कवर में बहुत हल्का पेपर इस्तेमाल हुआ है जो कि अब प्रचलन में बहुत कम देखने को मिलता है। इसका फ्रंट कवर कहानी की गाथा से मैचिंग करता नहीं लग रहा है। (ये मेरा व्यक्तिगत मत ही है क्योंकि बनाने वाले ने जरूर कुछ सोचा होगा।) परन्तु कवर पर कुछ पात्र हैं जो आपस में बातचीत करते दिखाये गये हैं वो सभी मुस्लिम भेषभूषा में हैं जबकि कहानी हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते पर है तो कवर में दोनों का उल्लेख इसे शायद और बेहतर बनाता। बैक कवर पर ‘राही मासूम रज़ा’ साहब की तस्वीर के पुस्तक का उपसंहार और भूमिका की एक पंक्ति इसे पढ़ने को लालायित करती है। इन सब के अतिरिक्त मैं फिर से कहना चहूँगा कि पुस्तक की विषयवस्तु और लेखन बहुत उम्दा है। भाव अतिउत्तम हैं, आपको ये पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।
राही मासूम रजा की किताबें मेरी पढ़ी जाने वाली किताबों की सूची में हैं। मैंने उनकी अभी तक ओंस की बूँद ही पढ़ी है और वो एक बेहतरीन किताब थी। इसे भी जल्द ही पढ़ता हूँ। आपका लेख किताब पढ़ने को उत्साहित करता है। आभार।
ReplyDeleteओंस की बूँद पर लिखा मेरा लेख:
https://www.ekbookjournal.com/2017/01/Os-ki-Boond-by-Rahi-masoom-raza.html
प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार सर! मैंने राही साहब की अभी तक एक ही पुस्तक पढ़ी है। अब जल्दी ही और पुस्तकें इनकी पढ़ने को उत्सुक हूँ। इनके द्वारा रचित महाभारत धारावाहिक के संवादों का मैं पहले से बहुत बड़ा फैन हूँ तब शायद जानता भी नहीं था कि किसने लिखा है...
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