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Saturday, June 30, 2018

मेरी नज़र में डॉ कुमार विश्वास

इन्टरनेट से साभार

डॉ. कुमार विश्वास आधुनिक साहित्य जगत में एक बड़ा और विवादित नाम है। इनकी बुराई ज्यादतर ऐसे कवियों के मुँह से सुनने को मिलती है जो स्वयं कविता की वाचिक परम्परा से दूर हैं। काव्य-मंचों की भी बुराई ज्यादातर वही लोग करते हैं जो स्वयं काव्य-मंच से दूर हैं। लोग कुमार विश्वास के मुक्तक पढ़कर कहते हैं कि उन्हें गीत लिखना नहीं आता। मुझे कविता की समझ नहीं है तो हो सकता है कि कुमार विश्वास की कमियों को मैं नहीं पकड़ पा रहा हूँ। लेकिन मुझे कोई ये तो समझाये कि आपकी नज़रों में ‘अच्छा-गीत’ किसे कहा जा सकता है? अगर कुमार विश्वास को पसन्द करने वालों की संख्या करोड़ों में है तो आप कहते हैं ये कोई मानक नहीं हुआ कि उनकी रचनाएँ बेहतरीन हैं, मार्केटिंग करके कोई भी फेमस हो सकता है। अगर कुमार विश्वास का मानदेय थोड़ा ज्यादा है तो आप कहते हैं पैसों से तय नहीं किया जा सकता है कि उनकी रचनाएँ बेहतरीन हैं। अगर हिन्दी कविता से दूर रहने वाले युवा पीढ़ी के लोग अपने कॉलेज के फेस्टिवल में कवि-सम्मलेन करवाते हैं और ख़ुद भी कुछ लिखने/सुनाने की कोशिश करते हैं और इसका श्रेय वो कुमार विश्वास को देते हैं तो आप कहते हैं ये जुमलेबाजी का कमाल है तो आपकी नज़र में गीत किसे कहा जाता है? आपके अनुसार जो आप लिख रहे हैं वो कविता है बाकी सब तुकबंदी है? लेकिन कैसे? इसका कोई मापन नहीं दे रहे हैं आप? मैं समझता था जो जन-साधारण लोग हैं जिन्हें व्याकरण का इतना ज्ञान नहीं है जिनके शब्दकोश में अधिकतर दैनिक-जीवन में प्रयोग होने वाले शब्दों के अतिरिक्त शब्द नहीं है ऐसे लोग भी जिस कविता को समझकर उसका आनन्द उठा सकें उसे अच्छा कहा जाये। जो जन-सामान्य को स्वीकार्य हो लेकिन लग रहा है मैं गलत हूँ। मुझे ये तो हजारों लोग कहते हैं कि कुमार विश्वास के पास गीत का शिल्प नहीं है लेकिन क्यों नहीं है, ये कोई नहीं बताता। एक वक़्त था जब सोशल मिडिया नहीं थी, अखबारों का भी इतना बोल-बाला नहीं था, सब लोग पत्रिकाएँ नहीं खरीद पाते थे, उस वक़्त में भी लोगों की ज़बान पर चढ़कर श्री हरिवंश राय बच्चन, श्रीरामधारी सिंह दिनकर जी की रचनाएँ मीलों का सफ़र तय करती थीं उस युग में स्वीकार्य रचनाओं को हम आज भी बड़े चाव से पढ़ते/सुनते हैं। इस हिसाब से अगर मैं ये धारणा बना लूँ कि जो अच्छा लिखा जा रहा है वो लोगों को पसन्द आ रहा है तब तो कुमार विश्वास को भी करोड़ों लोग पसन्द करते हैं।

कविता की वाचिक परम्परा में एक वक़्त ऐसा भी था कि जब कुमार विश्वास कवि-सम्मेलनों से रात को घर आते थे तो उनके पिताजी नाराज़ होते थे। मैंने और भी कई काव्य-प्रेमियों से सुना है कि वो किशोरावस्था में भी लिखते थे लेकिन घर वालों से छुपाते थे उन्हें डर लगता था कि कोई क्या कहेगा? जबकि आज हम लोग जो भी टूटा-फूटा लिखते हैं अपने घर वालों को भी पढ़ाते हैं और बिना डरे किसी से बताते हैं बल्कि कई बार तो ‘बहुत ज्यादा’ बताते हैं, तो मुझे लगता है ये धरातल जिस पर खड़े होकर मेरी उम्र के लड़के/लड़कियाँ कविता लिखने की कोशिश बिना डरे कर सकते हैं वो हमें कुमार विश्वास और आशीष देवल जैसे गीतकारों से मिला है।

‘कुमार विश्वास के पास गीत नहीं है, उन्हें लिखना नहीं आता, वो तो भांड हैं’ ऐसी टिपण्णी करने वाले कवियों ने अपनी रचनाओं पर कहाँ से सर्टिफिकेट लिया है कि वो बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उन्होंने किस मापन से समझा है कि वो कुमार विश्वास से बेहतर हैं जबकि न ऐसे लोग मंच पर हैं, न प्रकाशक इनके पीछे पड़ा है कि अपनी किताब छपवा लो, न श्रोता/पाठक परेशान हैं इनके लिये तो इन्हें कैसे पता कि ये बहुत बेहतरीन लिख रहे हैं? कोई मापन है या ख़ुद ही अपने मन में मानकर बैठे हैं कि उनके जैसा रचनाकार अब इस धरती पर और कोई नहीं है।

[कुमार विश्वस मुझे नहीं जानते हैं, न मुझे वो मंच देंगे न मुझे वो पैसा भेजने वाले हैं, न मेरी तारीफ़ में अपने पेज पर कुछ लिखने वाले हैं ये सब मेरे मन के उद्गार हैं, पूरे लेख का स्वार्थ इतना है कि मैं समझ सकूँगा कि ‘अच्छी कविता’ का मापन क्या है? ये पोस्ट किसी के पोस्ट से प्रेरित नहीं है कोई अपने ऊपर लेता है तो इसका मतलब सूरज ख़ुद जुगनू से रोशनी में प्रतियोगिता करना चाहता है, किसी को भी इस पोस्ट से दिक्कत हो तो रिपोर्ट कर सकता है डिलीट हो जायेगी]
धन्यवाद!

- कुमार आशीष
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Saturday, June 9, 2018

हे मेरे राम! आकर के मुझसे मेरा

इंटरनेट से साभार

हे मेरे राम! आकर के मुझसे मेरा,
एक परिचय जरा-सा करा दीजिये।
बेर जूठे रखे, मैं हूँ शबरी बना,
आ के मेरी प्रतीक्षा मिटा दीजिये।
हे मेरे राम!...

एक युग से बना जड़ अहिल्या-सा मैं,
पूरे संसार की ठोकरों में पड़ा।
कोई ऐसा नहीं जो मेरे संग हो,
कोई भी तो नहीं साथ मेरे खड़ा।
आखिरी आस मेरी तुम्हीं हो प्रभु!
अपने चरणों से मुझको लगा लीजिये।
हे मेरे राम!...

मैंने जो था किया वो सही था किया,
और मुझको ही तो घर निकाला मिला।
मैंने समझाया भी, मैंने बतलाया भी,
पर मेरे प्यार का अब यही है सिला।
एक बन्दर ही हूँ, नाम सुग्रीव है,
मेरा सम्मान मुझको दिला दीजिये।
हे मेरे राम!...

आपको तो था मैं पहले भूला हुआ,
अब स्वयं को भी मैं भूलने हूँ लगा।
एक सागर किनारे पे मैं हूँ खड़ा,
उसकी लहरों के संग झूलने हूँ लगा।
मेरे गुण-दोष क्या हैं मझे क्या पता,
ऋक्षपति बन के मुझको दिशा दीजिये।
हे मेरे राम!...
- कुमार आशीष
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Saturday, June 2, 2018

मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

“हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और”

अपने एक अलग ही अंदाज़ में जीने वाले ग़ालिब जैसा कोई व्यक्तित्व शायद ही अब किसी युग के भाग्य में हो। ग़ालिब एक ऐसा नाम जिसने केवल अपनी शायरी के बलबूते इतिहास में अपनी पैठ बना रखी है। जिसकी शायरी हर आयु, हर वर्ग के लोगों को खूब भाती है, शायरी और ग़ालिब लगभग पर्यायवाची बन चुके हैं। अगर कहीं पर उर्दू/शायरी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित स्तंभों के नाम लिखें जायें तो उनमें एक नाम “मिर्ज़ा ग़ालिब” का भी जरूर होगा। आज हम आपको उनकी हवेली की सैर करवायेंगे, लेकिन उससे पहले ग़ालिब को थोड़े और करीब से जानने की कोशिश करते हैं।

27 दिसंबर 1797 को आगरा (उप्र) में जन्में मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम ‘मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान’ था, “ग़ालिब” उनका तख़ल्लुस (Pen Name) था। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्स की बेटी उमराव बेगम से हुआ, ग़ालिब के सात संताने हुईं लेकिन दुर्भाग्यवश सभी संतानें अल्पायु में काल के गाल में चली गयीं। ग़ालिब मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबारी कवि थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को ‘दबीर-उल-मुल्क़’ और ‘नज़्म-उद-दौला’ के खिताब से नवाज़ा। उन्हें बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मुगल दरबार के शाही इतिहासविद् भी थे। अपने वक़्त के सबसे महान शायर होने के बावज़ूद उनमें इस बात का जरा भी घमण्ड नहीं था। वो खुद मीर साहब का लोहा मानते थे।

"रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब!
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था..."

कहते हैं एक बार जब ग़ालिब ने बहुत उधार की शराब पी ली और पैसे नहीं चुका सके तो दुकानदारों ने उन पर मुकदमा कर दिया। अदालत की सुनवाई के दौरान ग़ालिब ने अपना ये शेर पढ़ा और कर्ज़ माफ़ हो गया।

“कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फाक़ामस्ती एक दिन...”

ग़ालिब अपने जीवन में अनेक शहरों में रहे, लेकिन आगरा से आकर दिल्ली बसने के बाद वो यहीं के हो कर रह गये। आज भी चाँदनी-चौक दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में गली कासिम जान स्थित एक हवेली है जिसे 'हवेली मिर्ज़ा ग़लिब' कहा जाता है। यहीं पर ग़ालिब ने अपने जीवन के अन्तिम 09 वर्ष व्यतीत किये। 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने दुनियाँ के साथ अपने दर्दों को अलविदा कह दिया।

"हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता..."

ग़ालिब ने अपने जीवन में दर्द-ही-दर्द झेला, शायद उन्हें लगता था कि मरने के बाद भी उन्हें अपने दुःख-दर्दों से छुटकारा नहीं मिलेगा।

“हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है...”

दिल्ली में बल्लीमारान इलाके में स्थित उनकी हवेली पर उनके न रहने के बाद वहाँ लोगों ने कब्ज़ा करके बाजार लगानी शुरू कर दी। क्योंकि उस जमीन पर कानूनी रूप से कोई मालिकाना दावा करने वाला नहीं था इसीलिए उनकी बहुत क्षति हुई। लेकिन जिसकी हवेली थी उसने ग़ालिब के न रहने का बाद भी काफी समय तक उसका अस्तित्व बचाये रखा। फिर सन् 1999 में भारत सरकार ने उस महान शायर को श्रद्धांजलि स्वरुप इस हवेली को पुनर्जीवित किया और पूरी हवेली को मुग़लकालीन शैली में सजाया-सँवारा गया। इस संग्रहालय में ग़ालिब से जुड़ी बहुत सी चीजें रखीं हुईं हैं जैसे:- कुर्ता, हुक्का, गज़लें, शतरंज, चौपड़, पुराने बर्तन, ग़ालिब के ख़त आदि।

26 दिसम्बर 2010 को गुलज़ार साहब ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार श्री भगवान् रामपूरे जी द्वारा निर्मित ग़ालिब साहब की एक मूर्ति लगवायी, जिसका अनावरण तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित जी ने किया था। 27 दिसंबर को हर साल यहाँ ग़ालिब के जन्मदिन के मौके से खूब चहल-पहल होती है। पूरी हवेली को सजाया जाता है और फिर रोशन शमाओं के साथ दूर-दराज़ के शायरों का जामवाड़ा लगता है। दिल्ली के चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से 20 मिनट की पैदल दूरी पर अनेक तंग गलियों के बीच ये हवेली है, जब भी वक़्त मिले अवश्य जायें।

“हज़ारों ख़्वाहिशे ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले...”

तस्वीरों में देखते हैं 'ग़ालिब की हवेली :-

हुक्के के शौक़ीन ग़ालिब


ग़ालिब का कुर्ता

हमेशा ही सुनाते रहे हो अपने शेर दुनियाँ को, मेरा भी एक शेर ज़रा सुन लो न ग़ालिब!

मुगलकालीन शैली में बनी ग़ालिब की हवेली

ग़ालिब के ख़त

एक फोटो ग़ालिब साहब के साथ

ये हवेली के मुख्यद्वार पर लगा है

हवेली का मुख्यद्वार

पुराने बर्तन

अंदाज़-ए-बयाँ

ग़ालिब के शेर

इन्हीं गलियों में आया, और यहीं पर खो गया ग़ालिब!

ग़लिब के घर में

फिर मिलते हैं एक नयी यात्रा के साथ...

- कुमार आशीष
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