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Tuesday, July 11, 2023

मेरी उत्तराखण्ड यात्रा (दिन-2, भाग-1 : अल्मोड़ा से जागेश्वर और दण्डेश्वर)

इस यात्रा को आरम्भ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिये

अल्मोड़ा की सुबह बहुत लुभावनी लगी। थोड़ी देर बालकनी में खड़े होकर पर्वत श्रृंखलाओं को निहारा और फिर उस किताब की कुछ तस्वीरें क्लिक की जिसमें अल्मोड़ा के विषय में पढ़ा था। लेखक श्री अनुराग पाठक जी ने एक सच्ची घटना के आधार पर ‘ट्वेल्थ फेल’ नाम की एक किताब लिखी है। जिसमें उस किताब का नायक नव-वर्ष पर नायिका से एक बार बात करने के लिए उसके पैत्रिक घर अल्मोड़ा जाता है। उसी की यात्रा के दौरान अल्मोड़ा का थोड़ा-सा वर्णन उस किताब में आता है। हालाँकि वो बहुत कम था फिर भी अल्मोड़ा तब से मेरे मन से नहीं निकला। अल्मोड़ा आना मेरे लिए सपने के सच होने जैसा ही था। खैर, हम आज की यात्रा शुरू करते हैं।

होटल की बालकनी से अल्मोड़ा

आज हमें श्री जागेश्वर धाम की तरफ जाना था। आज मैंने होशियार बच्चे की तरह मोशन-सिकनेस की दवा सुबह ही खा ली थी जिससे दिन भर में कोई दिक्कत न हो। मेरे एक मित्र ने मुझे जागेश्वर धाम के विषय में बताया था। मैंने उनसे कहा था मुक्तेश्वर जाना है तो उन्होंने जागेश्वर का भी जिक्र कर दिया। हालाँकि पहले ये मेरी योजना में नहीं था परन्तु भोलेनाथ की कृपा से इधर भी चल पड़े। अल्मोड़ा से थोड़ी दूर ही ‘श्री चितई गोलू देवता’ का मंदिर है। हमारा आज का पहला पड़ाव यही है। जब तक हम मंदिर में दर्शन करके आते हैं तब तक आप इस मंदिर के विषय में पढ़ लीजिये।

श्री चितई गोलू देवता मंदिर:

ये स्थान अल्मोड़ा से आठ किलोमीटर दूर पिथौरागढ़ हाईवे पर है। मन्दिर के अंदर सफेद घोड़े पर बैठे, सिर में सफेद पगड़ी बाँधे गोलू देवता की प्रतिमा है, जिनके हाथों में धनुष बाण है। स्थानीय संस्कृति में सबसे बड़े और त्वरित न्याय के राजवंशी देवता के इस मन्दिर में विदेशों से भी श्रद्धालु पहुँचते हैं, ऐसा मुझे बताया गया। यहाँ आपको लाखों की संख्या में चिट्ठियाँ और स्टाम्प लटके मिलेंगे और उतनी ही घंटियाँ और बड़े घंटे भी दिखेंगे। लोकमान्याता अनुसार लोग अपनी मनोकामनाएँ यहाँ चिट्ठी में लिखकर टांग देते हैं और फिर जब वो कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तो घंटी चढ़ाने आते हैं। बढ़िया प्रांगण और सुन्दर मन्दिर निश्चित दर्शनीय है। इसके बाहर प्रसाद और खाने-पीने की तमाम दुकानें भी हैं।

चितई गोलू देवता मन्दिर

यहाँ पर हम चितई गोलू देवता की पूजा और अपनी पेट पूजा करके आगे बढ़े। आज नाश्ते में आलू के पराठे के साथ दही और सलाद मिला था। जबकि मैं आमतौर पर चाय-पराठे को प्राथमिकता देता हूँ। सुबह से एक भी चाय नहीं मिलने से आगे के खूबसूरत नज़ारे पूरा आनन्द नहीं दे पा रहे थे। मैं मंजिल से भी ज्यादा सफर का आनन्द उठाने में विश्वास रखता हूँ। इसलिए एक अल्प-विराम लिया और ‘दुग्ध शर्करा मिश्रित पेय पदार्थ’ से अपने गले को सिंचित करके हम जागेश्वर की तरफ बढ़ते जा रह थे। रास्ता मेरे अनुमान से अधिक सुन्दर था। इधर के तमाम विडियो मैंने विभिन्न ट्रेवल व्लोग्स में देख रखे थे। आज उसी खूबसूरत रास्ते पर अपने बाइक चलाने के सपने को पूरा कर रहा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी दिक्कतों में से एक ये भी है कि हर 15 मिनट पर रुककर फोटो खिंचवाने का मन करता है। मेरे साथ हितेश भैया जैसे ‘उत्तराखण्ड यात्रा विशेषज्ञ एवं धैर्यवान फोटोग्राफर’ भी थे। उन्होंने कई जगह चिन्हित करके खुद भी स्कूटी रुकवाई और कई जगह मैंने रोकी। हम दोनों ने खूब सारी तस्वीरें ली, हालाँकि उनकी कम मेरी ज्यादा होती थी। हितेश भैया जो नज़ारों को कैद करते हैं उसके फैन्स तो विभिन्न यात्रा समूहों में तमाम लोग हैं ही, मैंने उन्हें तस्वीरें लेते हुए देखा। कैसे उसी जगह मुझे कुछ और दिख रहा होता और जब वो क्लिक करके दिखाते तो वही जगह एकदम ही अलग लगती। कई बार मैंने भी उनके एंगल से क्लिक करने का असफल प्रयास भी किया। इस यात्रा में उनके साथ होने से बहुत सहूलियत रही और फोटोग्राफी का थोड़ा-थोड़ा तरीका उनसे सिखने को मिल रहा था।

अल्मोड़ा से जागेश्वर धाम के रास्ते में कहीं

फोटो/विडियो निकालते, चाय पीते, सफ़र का आनन्द उठाते हम जागेश्वर धाम पहुँच गये। सबसे पहले हितेश भैया के एक सूत्र के पास अपने बैग और हेलमेट रखे और फिर हाथ-पाँव धोकर श्री शंकर जी के प्रथम शिवलिंग स्वरुप के दर्शनों के लिए चल पड़े। यहीं से 200मी की दूरी पर इन्हीं मंदिर समूहों में से एक हैं श्री दण्डेश्वर महादेव जी हम वहाँ भी दर्शन करेंगे। जब तक हम सब जगह के दर्शन करके आते हैं तब तक आप इस स्थान की विशेषताओं से परिचित हो लीजिये।

श्री जागेश्वर धाम एवं दण्डेश्वर महादेव: 

जागेश्वर धाम उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊँमण्डल में पड़ने वाले एक खूबसूरत जनपद अल्मोड़ा में समुद्रतल से 1890 मीटर की ऊँचाई पर स्थित कई मंदिरों का समूह है। यहाँ कुल 124 मंदिर एक ही स्थान बने हैं। कुछ जगह इनकी गिनती 250 बताई जाती है परन्तु वो शायद दण्डेश्वर और वृद्धजागेश्वर आदि जोड़कर लिखी जाती होगी। मंदिर समूह से लगकर ही एक धारा भी बहती है, जिसे ‘जटागँगा’ कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इसी स्थान पर भगवान् शिव ने माता सती के जीवनसमाप्ति के बाद तपस्या की थी। ये स्थान सप्तऋषियों की भी तपःस्थली भी है। इससे जुड़ी एक कथा आप डंडेश्वर मंदिर के सन्दर्भ में पढेंगे। यहाँ भगवान् शिव के बालरूप एवं तरुणावस्था की पूजा होती है। जागेश्वर धाम में स्थित शिवलिंग ही ब्रम्हाण्ड का प्रथम शिवलिंग है। लोकमान्यताओं के अनुसार पुराणों में जो द्वादश ज्योतिर्लिंग की चर्चा आती है उसमें से 8वां ज्योतिर्लिंग यही जागेश्वर धाम स्थित नागेश भगवान् ही हैं। “नागेशं दारुकावने” इसी स्थान के लिए लिखा गया है। कुछ लोग ‘दारुकावने’ का अर्थ देवदार के वन से लगते हैं उनके अनुसार ये स्थान 8वां ज्योतिर्लिंग है और कुछ लोग इसका अर्थ द्वारिका से निकालते हैं तो वो गुजरात स्थित नागेश को 8वां ज्योतिर्लिंग मानते हैं। इस स्थान को उत्तराखण्ड के चार धामों (केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री) के बाद 5वाँ धाम माना जाता है। लोकश्रुतियों की माने तो यहाँ माँगी गयी हर मनोकामना उसी स्वरुप में पूर्ण हो जाती थी, जिससे कई बार इसका दुरूपयोग भी होता था। फिर आदिगुरू शंकराचार्य जी ने यहाँ स्थित मृत्युंजय शिव स्वरुप को कीलित करके उसके दुरूपयोग को रोका अर्थात् अब ये स्थान आपकी सद्इच्छाओं की पूर्ति के लिए है। 

श्री जागेश्वर धाम मंदिर समूह

इसी से 200मी. की दूरी है श्री दण्डेश्वर महादेव जी की मंदिर है। कहते हैं एक बार जब सप्तऋषियों की पत्नियाँ यहाँ से अपने आश्रमों की तरफ जा रही थी। उन्होंने भगवान् शिव को तपस्या करते देखा और मोहित होकर रुक गयी। उनके आश्रम विलम्ब से पहुँचने का कारण सप्तऋषियों ने शिव को समझा और उन्हें दण्डित करते हुए श्राप दे दिया। उसी स्थान पर अब श्री दण्डेश्वर महादेव जी का शिवलिंग स्वरुप लेते हुए अवस्था पूजित होता है। 

पुरातव विभाग के सर्वेक्षणों और इतिहासकारों को माने तो इन मंदिर समूहों का निर्माणकाल तीन अलग-अलग कालों में विभाजित है। कल्युरीकाल, उत्तरकत्युरीकाल एवं चंद्रकाल। कत्यूरीवंशी राजाओं ने ही अल्मोड़ा जनपद में जागेश्वर मंदिर समूहों सहित अन्य 400 मंदिरों का भी निर्माण करवाया था। मंदिरों का निर्माण लकड़ी या सीमेंट की जगह बड़े-बड़े पत्थर स्लैब से किया गया है। यहाँ की वास्तुकला के अनुसार इनके निर्माणकाल खण्ड का अनुमान 7वीं से 12वीं शताब्दी लगाया जाता है। इन विषयों पर कोई मतेक्य नहीं है, सभी के अपने-अपने तथ्य एवं तर्क हैं। देवदार के घने वन प्रदेश में, बड़े देवदार वृक्षों और ऊँची पहाड़ियों से घिरा हुआ ये परम पवित्र स्थान नयनाभिराम दृश्यों से अलंकृत तो है ही, इसके साथ आपको यहाँ मन की शान्ति और सुकून का जो एहसास मिलेगा उसका अनुभव यहाँ पहुँचकर ही किया जा सकता है। अल्मोड़ा से इस स्थान की दूरी लगभग 40 किलोमीटर है। जहाँ आप बस, टैक्सी या निजी वाहन द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं, सडक मार्ग से बढ़िया जुड़ा हुआ है और रास्ते भी अच्छे हैं। नजदीकी रेलवे स्टेशन काठगोदाम और हवाई अड्डा पन्त नगर है।

श्री दण्डेश्वर महादेव मंदिर

श्री दण्डेश्वर महादेव मंदिर

उपर्युक्त परिचय वहाँ के स्थानीय लोगों  और इन्टरनेट आदि के माध्यम से प्राप्त जानकारी के आधार पर है। मैं इतिहास का विद्यार्थी भी नहीं हूँ तो मेरी अल्पज्ञता का ध्यान रखकर तथ्यात्मक त्रुटियों को अपनी प्रतिक्रियाओं में ठीक करते रहिएगा, आपकी बड़ी कृपा होगी।

श्रीजागेश्वर धाम और श्रीदण्डेश्वर धाम जी के दर्शनों के बाद हम वापस अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। यहाँ से वृद्ध जागेश्वर की दूरी अधिक नहीं है परन्तु हमारी योजना किसी और तरफ होने तथा अगली बार यहाँ आने के बहाने के नाम पर हम श्री वृद्ध जागेश्वर नहीं जा रहे हैं। इस यात्रा में ये दूसरा दिन आधा बीत रहा है। बाकी का आधा दिन एक ऐसे स्थान पर बीतेगा जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस स्थान की एक अनोखी विशेषता है। ये स्थान भारत में इकलौता और विश्व में केवल 3 है। बाकी विस्तृत हम वहाँ पहुँचकर बतायेंगे। तब तक आप फोटो देख लीजिये, हम मिलते हैं इस यात्रा-वृत्तांत के अगले भाग में...

अल्मोड़ा का एक दृश्य

जटागँगा की पवित्र धारा

- कुमार आशीष
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Sunday, July 9, 2023

मेरी उत्तराखण्ड यात्रा (दिन-1 : लखनऊ से अल्मोड़ा)

देवभूमि उत्तराखण्ड की ख़ूबसूरती और अध्यात्मिक चेतना का तलबगार हर कोई रहता ही है। मेरा भी हमेशा से उत्तराखण्ड जाने का बहुत मन था। कई बार हरिद्वार, ऋषिकेश की योजनायें बनी भी और निरस्त भी हुईं। तमाम असफल प्रयासों के बाद अंततः मेरी उत्तराखण्ड यात्रा 24 जून 2023 को लखनऊ से आरम्भ हुई। सुबह उनींदी आँखों से बाहर देखा तो पहाड़ नहीं दिख रहे थे और जो दिख रहा था उसे वर्षा रानी ने अपना विकराल रूप लेकर देखने नहीं दिया। खिड़की का सटर बंद करके हम रेलगाड़ी की खटर-पटर सुनते, अपने मोबाइल में टिकिर-टिकिर करते हुए रेलगाड़ी के गंतव्य तक पहुँचने का इंतज़ार कर रहे थे।

इस यात्रा में सब कुछ ठेठ घुमक्कड़ी की तरह था। कुछ पता नहीं कि स्टेशन से उतरकर कहाँ जाना हैं, कहाँ रुकना है, कहाँ घूमना है? बस 2-4 दिन पहाड़ों में कहीं भटकना है और बाबा नीब करोली जी का दर्शन लाभ लेना है। मेरी इस यात्रा के एक-दो दिन पहले मैंने कई फेसबुक घुमक्कड़ी समूहों में उस तरफ की यात्राओं से जुड़ी पोस्ट पढ़ी और कुछ पर उत्तर-प्रतिउत्तर से थोड़ी जानकारी जुटाई। लेकिन इतना सब मेरे लिए पर्याप्त नहीं था। मुझे हितेश भैया ने खुद से कॉल करने को कहा तो मैंने उन्हें निकलने से पहले फ़ोन कर दिया। मुझे उन्होंने रास्ते, रुकने आदि की कुछ जानकारी फ़ोन पर समझा दी। बाकी का मैंने कहा आकर देखते हैं। इसी बीच हमारी ‘लौहपथ गामिनी’ हल्द्वानी नामक ‘लौहपथ गामिनी गतिमान शून्य स्थल’ पर पहुँच गयी। स्टेशन पर उतरकर देखा तो अब पहाड़ दिखने लगे थे। एक दो तस्वीरें ली और स्टेशन से बाहर आया तो रिमझिम बारिश हो रही थी। बारिश में भीगना शौक़ है तो भीगते हुए करीब 300मी की पदयात्रा और वहाँ के कुछ भले लोगों की मार्गदर्शन से मैं एक बस के पास पहुँचा जो मुझे धानाचूली तक ले जाने वाली थी। फिर वहाँ से कोई टैक्सी लेकर मुझे (मुक्तेश्वर के पास) भटियाली पहुँचना था। बस धानाचूली की तरफ बढ़ चली और मैं उत्तराखण्ड की खूबसूरत वादियों का आनन्द लेने में व्यस्त हो गया। ‘मुझे पहाड़ बहुत प्रिय हैं’ ये बात आज पक्का कर रहा था। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब तक मैंने सिर्फ पहाड़ देखे थे तब तक वो प्रिय थे, परन्तु लग रहा था कि शायद समंदर और प्यारे होंगे। पिछले साल जब गोवा जाने का मौक़ा मिला तो समंदर भी अच्छे लगे लेकिन पहाड़ पहले प्यार की तरह ज्यादा ही प्यारे रहे।

हल्द्वानी रेलवे स्टेशन 

कानों में मिश्री घोलती हुई जगजीत सिंह जी की मखमली आवाज़, हल्की-हल्की बरसात और उत्तराखण्ड के खूबसूरत पहाड़ों के लगातार पीछे छूटते जा रहे शानदार नज़ारे आँखों के सामने दिखाई दे रहे थे। इससे अच्छा सफ़र क्या ही हो सकता है... कहते हैं ख़ूबसूरती ख़तरनाक भी होती है, मतलब पहाड़ों में मोशनसिकनेस का खतरा तो रहता ही है। मेरे जैसे मैदानी ईलाके में रहने वाले लड़के के लिए भी मोशन सिकनेस एक समस्या है। जिसकी दवाई मैंने इन्हीं समूहों में पढ़कर अपने साथ पहले से रखी हुई थी। परन्तु क्या है न कि दवाई कितनी भी अच्छी क्यों न हो, जब तक आप बैग में रखें रहेंगे वो जरा भी असर नहीं कर पाती है। मेरी भी दवा बैग में होने के बावजूद असर नहीं कर पाई और मैं नजारों में खोया दवाई खाना ही भूल गया था। परन्तु शरीर के कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं ने याद दिलाया तो दवाई खा ली। कुछ खास दिक्कत नहीं हुई और मैं धानाचूली पहुँच गया। वहाँ से एक कार टैक्सी से भटेलिया के लिए चल पड़ा, आगे के नज़ारे और भी प्यारे होते जा रहे थे और बरसात मुसलसल जारी थी। भटेलिया पहुँचे तो वहाँ बारिश नहीं हो रही थी। उतरकर सबसे पहले हितेश भाई से कॉल पर बात की उन्होंने एक मित्र का नम्बर भेजा जिनसे मुझे स्कूटी रेंट करनी थी। मैंने बात की और उनकी दूकान की तरफ पहुँचा तब तक हितेश भैया भी पहुँच चुके थे। हमें बात करते हुए अभी ठीक से 24 घंटे भी नहीं हुए थे, परन्तु किसी पुराने मित्र के मिलने जैसा एहसास ही उनके साथ की पहली मुलाक़ात में हुआ।

स्कूटी रेंट पर लेकर हमने पास की एक दूकान पर चाय की चुस्की ली और फिर हितेश भैया के साथ अलगे 3 दिन की योजना पर एक सार्थक चर्चा हुई। चाय ख़त्म होते-होते हमारी कैबिनेट में ये प्रस्ताव पास हो चुका था कि हम आज रात अल्मोड़ा में विश्राम करेंगे। सबसे पहले हितेश भैया मुझे अपने घर ले गये। जो कि वहाँ से थोड़ी ही दूर था। जो लोग उनके घर जा चुके हैं वो जानते हैं कि किसी मैदानी ईलाके में रहने वाले वाले लड़के के लिए एक शुद्ध पहाड़ी गाँव का रास्ता उतरना कितना बेहतरीन एहसास होता है। लेकिन उतरने के दौरान पर्याप्त सावधानी की आवश्यकता भी होती है। घर जाकर उन्होंने हमें सेब के बगीचे दिखाए। मैं जीवन में पहली बार सेब के पेड़ देख रहा था। सेब अभी अधपके थे परन्तु खुमानी एकदम तैयार थी। उन्होंने कुछ खुमानी लाकर हमें दिया। मेरा इस फल से प्रथम परिचय था। मैंने उनसे खाने के तरीके पूछे और दो घुमानी निपटा दी। बाकी इस घर की बातें आगे की पोस्ट में करेंगे, अभी यहाँ से वापस स्कूटी की तरफ चलते हैं। उनके घर से सड़क तक पहुँचना मुझे बहुत बड़ा टास्क लगा। एकदम खड़ी चढ़ाई ने थका दिया, इतना कि मुझे 500मी. की दूरी में भी एक जगह अल्प-विराम लेना पड़ा। हम स्कूटी तक पहुँचे फिर वहाँ से मैं और हितेश भैया अल्मोड़ा की तरफ चल पड़े। रास्तें में देश-दुनियाँ और अपनी तमाम बातें करते हुए, सुन्दर नजारों का आनन्द उठाते हम अल्मोड़ा की तरफ बढ़ रहे थे। पहाड़ों पर बाइक चलाना मेरे कई सपनों में से एक था। परन्तु कभी ऐसा मौक़ा नहीं मिलने के कारण आत्मविश्वास कम था। इसलिए अभी के लिए स्कूटी हितेश भैया के हाथ में थी। अल्मोड़ा पहुँचते-पहुँचते मैं बहुत थक चुका था। मेरा एक कल का पूरा दिन बहुत व्यस्त रहा था। पहले ऑफिस, फिर घर जाकर तैयारी करना, ट्रेन रात में 12:15 की थी, इसलिए नींद भी ठीक से नहीं ली थी। फिर आज जब से हल्द्वानी उतरे थे पूरा दिन सफ़र में बीत रहा था। ठीक से नाश्ता भी नहीं हुआ था और लंच का तो मौक़ा ही नहीं लगा। मेरा बहुत तेज सिर दर्द कर रहा था। मैं किसी होटल में जाकर लेट जाना चाहता था। हितेश भैया ने अल्मोड़ा पहुँचते ही अपने सूत्रों के माध्यम से एक होटल बुक किया और वहाँ जाकर मैंने एक दवाई ली और थोड़ी देर लेट गया। रात करीब 08:00 बजे उठा तो थोड़ा फ्रेश लग रहा था। बालकनी से जगमगाते अल्मोड़ा को देखा, कुछ बिस्कुट वगैरह खाये और फिर से सो गया। जब तक मैं नींद पूरी करता हूँ आप नीचे दी गयी तस्वीरें देख लीजिये

अल्मोड़ा को मैंने एक किताब से जाना था। उसके बाद अल्मोड़ा के बहुत से फोटो/विडियो देखे और यहाँ आने का बहुत मन था। इस विषय में बाकी बातें अगली पोस्ट में... तब तक के लिए धन्यवाद!

मुक्तेश्वर से अल्मोड़ा जाते हुए रास्ते में कहीं 
 
दो बैलों की कथा 

- कुमार आशीष
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मैं प्रेमी भी हूँ और लेखक भी

मैं प्रेमी भी हूँ और लेखक भी, इसलिए मैं करना चाहता हूँ एक सफल प्रेम और फिर उस पर लिखना चाहता हूँ, एक किताब। एक ऐसी किताब जिसके प्रत्येक पृष्ठ पर प्रेम हो, कुछ में उसे पाने का संघर्ष और बाकी में उसी प्रेम की सफलता के किस्से...

असफल प्रेम कहानियाँ तो बहुत बार लिखी गयीं, सुनी गयी, सराही भी गयी बस महसूस नहीं की गयी। उन दो बिछड़ चुके या कहें सामाजिक ढोंग-ढकोसलों के रूप में राहु-केतु द्वारा ग्रसित सूरज-चंदा जैसे शाश्वत प्रेम को ग्रहण लगा कर अलग कर दिए गये, उन दो सुकोमल हृदयों से निकले रक्त की हर बूँद और नयनों से बहे आँसू के हर एक कण पर हमने बार-बार कविताएँ और कहानियाँ लिखीं और जिन सामाजिक ठेकेदारों ने निर्दयता से उन्हें दूर कर दिया था उन्होंने भी बड़े चाव से सुना और 'वाह-वाह' किया। किसी का बिछड़ना भी समाज ने आनन्द का कारण बना लिया और उससे आपना मनोरंजन किया। उस पर भी मन नहीं भरा तो समाज ने उसे श्रृंगार रस के संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार के रूप में व्याख्यायित किया, जबकि मैं कहूँगा कि ये सब बहुत विभत्स है, ऐसे लेखों, कविताओं और कहानियों में विभत्स रस प्रधान है।

खैर! समाज मेरे हिसाब से व्याख्याएँ नहीं करेगा। इसलिए मेरी किताब में हमारी सफल प्रेम की गाथाएँ होंगी। नितान्त मौलिक, अनुभव आधारित, सहजता, सम्मान, स्नेह, विश्वास से परिपूर्ण, आधुनिक भी और पारंपरिक भी... 

यहाँ मैं किसी को जवाब देने, नीचा दिखाने अथवा गलत ठहराने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ। क्योंकि प्रेम का उद्देश्य इतना ओछा हो भी नहीं सकता और मैं इतनी छोटी सोच रखकर प्रेम का अपमान करना भी नहीं चाहता। मैं ऐसी किताब सिर्फ इसलिए लिखना चाहता हूँ कि आने वाली पीढ़ी और उससे निर्मित होने वाले समाज को ये बता सकूँ कि वो "कुछ वर्षों बाद प्रेम कम या खत्म क्यों हो जाता है?" "विवाह के बाद पहले जैसा प्रेम क्यों नहीं रहता?" जैसे प्रश्नों का उत्तर लिखकर इंटरनेट का भार बढ़ाने वाले कीबोर्ड वीरों से बचकर रहें। जो कम-ज्यादा की मापनी में उतरे, विश्वास-अविश्वास के धरातल पर परखा जाए वो प्रेम नहीं महज आकर्षण होता है। ये आकर्षण कभी शरीर की खूबसूरती से उत्पन्न हुआ, कभी सैलरी पैकेज से, कभी बड़े पदनाम से, कभी बड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा से, कभी चाल-ढाल से, कभी हाव-भाव से, कभी काम-काज से और कभी-कभी आवश्यकताओं से... इन केंद्रबिंदुओं की धुरी से बँधा हुआ आकर्षण इनके कम ज्यादा होने से प्रभावित होता है। जैसे-जैसे खूबसूरती उम्र की चपेट में ढलेगी, पैसा-प्रॉपर्टी परिस्थितियों की मार में कम या अधिक होगा तो आकर्षण भी उसी अनुपात में घटता-बढ़ेगा रहेगा। परन्तु अखिल ब्रम्हाण्ड नायक चराचर परब्रम्ह भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी स्वरूप प्रेम इन बिंदुओं से बहुत ऊपर, बहुत अलग केवल दो आत्माओं के एकीकृत हो जाने का नाम है। अब जो आकर्षण उत्पन्न होगा उसका कारण प्रेम है और प्रेम हर परिस्थिति में बीते हुये कल से आज कुछ और गाढ़ा होता है तो आकर्षण भी बढ़ता जाएगा। इस आकर्षण का केंद्रबिंदु प्रेम है और प्रेम शाश्वत है तो उससे जुड़ी हर चीज सदा शाश्वत ही रहेंगी। मसलन वो चेहरा, उसकी खूबसूरती, उसके हाव-भाव और अन्य तमाम भौतिक चीजें भी... 

मैं इन सब बातों को किताब में लिख देना चाहता हूँ। जिससे आने वाले लोग ये समझ सकें कि कैसे एक लंबे कालखण्ड तक समाज ने प्रेम करने से ज्यादा प्रेम लिखने को प्राथमिकता दी। प्रेम लिखने वाले तो सराहे जाते रहे, परंतु प्रेम करने वाले हमेशा हाशिये पर रह गए। उन्हें न ही इस क्रूर समाज ने स्वीकृति दी और न वो सम्मान ही जिसके वो हकदार थे और जो सम्मान दिया भी, वो उनके मरने के बाद किताबों में अपने मनोरंजन के लिए दिया। यही समाज का वीभत्स स्वरूप है। 

मैं इस व्यथा को परिवर्तित करना चाहता हूँ। इसलिये मैं भगवान श्रीकृष्ण और माँ राधा की उपासना मानकर प्रेम करना चाहता हूँ और अपने सफल प्रेम के किस्से समाज को सौंपकर इस संसार से जाना चाहता हूँ। (लेख समाप्त) 

मेरी किताब की प्रमुख नायिका पात्र हेतु मेरा हृदय आपको वरण कर रहा है और मैं आपसे सहयोग और सार्थक मार्गदर्शन की अभिलाषा रखता हूँ। यदि ये ख्वाब मेरी हैसियत से बहुत आगे का नहीं है तो इसे अपनी स्वीकृति से सम्मानित कीजिये। मेरे जीवन में मेरी सहधर्मिणी और मेरे कविताओं, कहानियों और लेखों की रानी बनने के लिए आपका स्वागत है... 


मेरा जीवन है शापित दुपहरी कोई, मेरी शामें-ए-सुहानी बनोगी क्या?
मैंने लेखों में तुमको ही लिखा सदा, अब उनकी निशानी बनोगी क्या?
मैं ये जीवन लुटा दूँ तुम्हारे लिए, और धर दूँ मेरा यश तेरी देहरी,
बस मुझे तुम बता दो जरा सोचकर, मेरे गीतों की रानी बनोगी क्या?
- कुमार आशीष

Saturday, March 25, 2023

तुम्हारे साथ मेरे ख़्वाब

सुनो! मुझे एक बात बतानी है। आजकल मैं अपनी अधजगी रातों और अलसाये दिनों में, खुली-बंद आँखों से बहुत-से ख़्वाब देखने लगा हूँ। एक ऐसा ख़्वाब जो शायद पूरा भी हो और न भी हो। मैंने ख्वाब में देखा तुमसे बातें करते हुए मैं मुस्कुरा रहा था, मैंने खुद को इतना खुश कभी बड़ी-से-बड़ी सफलता पर भी नहीं देखा जितना खुश तुम्हारे साथ होने भर से था। मैंने ख्वाब में खुद को अकेले बैठकर तुम्हारे बारे में सोचते हुए देखा, मैंने जाना कि मैं क्या सोच रहा था... मैं सोच रहा था कि जिस लड़के को कभी अपनी पसन्द का एक परिधान तक पाने की ख्वाहिश नहीं हुई वो अचनाक इतने ख़्वाब  कैसे पाल रहा है? लेकिन अब जो मेरी चाहत है वो है...

मैं चाहता हूँ कि मैं तुमसे अपने सभी सपने बता दूँ, तुम हँस भी दोगी तो बुरा नहीं लगेगा। तुमसे बता दूँ कि मैं जिन्दगी में पैसे, नाम, पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागते हुए मरना नहीं चाहता, मैं जिन्दगी में प्यार, व्यवहार और सद्विचार के साथ यात्रा करना चाहता हूँ, मैं ईमानदार रहना चाहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि मैं किसी की मदद का निमित्त बन सकूँ। मैं अपना बचपना और उसकी निश्चलता अपने जीवन की आख़िरी साँस तक साथ रखना चाहता हूँ, मैं बहुत समझदार बनने से बचना चाहता हूँ। मैं अपनी इस भौतिक सुविधा विहीन परन्तु स्नेह, शान्ति, सुकून और आनंद से भरे जीवन यात्रा में तुम्हें अपना सहयात्री बनाना चाहता हूँ। इस यात्रा के दौरान हम दोनों एक-दूसरे की सफलता, असफलता, हँसी-ख़ुशी, दुःख-दर्द सब में समान रूप से सहभागी रहें। कभी मैं तुम्हें प्रेरित करूँ, कभी तुम मुझे, हम दोनों मिलकर अपने परिवार, अपने गाँव-समाज, अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं वो सोचे, उसके लिए परिश्रम करें और ईश्वर से सफलता की प्रार्थना करें। मैं तुम्हें भगवान् की आरती उतारते हुए या पूजा की थाल से जरा-सा लाल चन्दन मेरे माथे पर लगाते हुए बड़े हर्ष और सम्मान के साथ देखना चाहता हूँ। मैं पूरी दुनियाँ को बताना चाहता हूँ कि तुमने मेरा घर, मेरा जीवन सब अपने माता-पिता के दिए उच्च संस्कारों से मंदिर की तरह पवित्र कर दिया है। तुम्हें पाकर मैं ही नहीं मेरे माता-पिता, यार-दोस्त, रिश्तेदार, कुल-खानदान के लोग भी धन्य हो रहे हैं...

मैं चाहता हूँ कि कभी-कभी हम दोनों अपने व्यवसायिक जीवन से फुर्सत के कुछ दिन चुरायें और फिर बंजारों की तरह धरती का हर कोना अपनी आँखों से देखने निकल पड़ें। कभी हम रेगिस्तान में उड़ती रेत के बीच अपनी आँखों को अपने हाथों से ढाँपे आगे बढें और फिर प्यास एवं थकान से व्याकुल एक दूसरे के सूखते होंठों को देखकर कहीं थोड़ी-सी छाया खोजे और वहीं सुस्ताते हुए दुनियाँ-जहान की बातें करें। वैसे भी हम दोनों के पास कभी न ख़त्म होने वाली बातें तो हैं ही...

कभी किसी समन्दर के किनारे जाएँ, वहाँ लगातार उठती लहरों के आरोहों-अवरोहों के बीच दिन भर अठखेलियाँ करें। समन्दर की लहरें हमें सिखायेंगी कि प्यार कैसा होना चाहिए? जैसे समन्दर में लहरों का वेग कभी धीमा नहीं पड़ता, जैसे उसकी लहरें हर बार नई-सी लगती हैं, जैसे उसकी लहरों में अनेकों बहुमूल्य खजाने होते हैं, ठीक वैसे ही हमारा प्यार भी हो। रोज़ एकदम नया, रोज़ बीते हुए कल से थोड़ा और गहरा, हम दूर रहें या पास हमारे प्यार की तरंगे उन्हीं लहरों की तरह हमेशा एक-दूसरे के दिलों को भिगोती रहें। हमारे प्यार की प्रत्येक लहर भी खजानों से भरी हुईं हों, खजाना; हीरा-मोती-माणिक्य आदि नहीं बल्कि विश्वास, सुकून, सम्मान और आत्मीयता का... इन्हीं खज़ानों के साथ हमारे प्रेम समन्दर को अनन्त काल तक के लिए एक प्यास का एहसास भी रहे। ये प्यास हो, कभी न समाप्त होने वाली हमारी बातों की, असीमित स्नेह की, अविश्वसनीय विश्वास की और जीवन भर साथ रहने के चाहत की और इसी तरह हम एक-दूसरे पर सदैव खुद को न्यौछावर करते रहें। यहाँ से प्यार करना सीखकर हम दोनों एक ऊँची जगह ढूँढे जहाँ से समन्दर की लहरें सिर्फ दिखाई दें वो हमें छू न सकें। क्योंकि यहाँ मैं किसी का स्पर्श नहीं चाहता, बस तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ। उस ऊँचाई पर बैठे हुए दोनों सामने लहरों पर नज़र गड़ाए, समन्दर में एक-दूसरे का चेहरा बनायें, देर तक ख़ामोश बैठे रहें, फिर अचानक एक-दूसरे की तरफ देखें, मुस्कुराये और अगले पड़ाव के लिए उठकर चल दें।

हम वहाँ से उठें और कहीं दूर, बहुत दूर किसी पहाड़ की दुर्गम चोटी पर एक-दूसरे का हाथ थामे चढ़ते जाएँ। जैसे हमने अपने सपनों के आकाश की यात्रा की हो, जैसे हम जीवन के उतार-चढ़ाव में एक-दूसरे का संबल रहे हों वैसे ही इस पहाड़ी के दुर्गम रास्तों पर चलते रहें। जब तुम थक जाओ तो मैं सहारा दूँ, जब मैं थक जाऊँ तो तुम सहारा दो और जब दोनों थक जाए तो किसी पत्थर के सहारे बैठकर देर तक हाँफते-हँसते हुए एक दूसरे से बातें करें और फिर एक-दूसरे की ऊर्जा बनकर उठें और आगे बढ़ें... थकना, गिरना, उठना अपना जीवन हो, बस उसमें रुकना न हो। जब इतनी मेहनत से आगे बढ़ेंगे तो प्रकृति के कुछ मन चुराने वाले दृश्यों को भी देखेंगे, वहाँ तुम्हारी तस्वीरें उतारते हुए मेरी नज़र कैमरे पर कम और तुम्हारे चेहरे पर ज्यादा होगी। तुम्हें एक बार और मुस्कुराता हुआ देखने की लालच में ये प्यारा झूठ बार-बार बोलेंगे कि वो फोटो अच्छी नहीं है, फिर से खींचते हैं... हालाँकि मैं अपने और तुम्हारे बीच कैमरे को उतना ही आने देना चाहता हूँ जितना यादें सहेजने के लिए जरूरी हो, बाकी मैं पूरा वक़्त जीकर सब अपने दिल में सहेज लेना चाहता हूँ।

पहाड़ों पर चलकर, पसीने से नहाये हुए, हम वसुधारा या दूध-धारा जैसे दिखने वाले किसी पवित्र झरने तक पहुँचेंगे। लेकिन ये जलप्रपात ऐसी जगह होगा जहाँ भीड़ नहीं होगी, सिर्फ मैं और तुम होंगे। उसी झरने के पास कुछ तस्वीरें उतारने के बाद कैमरा ऑफ़ करके अलग रख देंगे और फिर दोनों साथ खड़े होकर झरने की रफ़्तार और अपने प्यार का स्पंदन महसूस करेंगे। वहीं झरने की कुछ फुहारों से भीग रहे तुम्हारे बालों को मैं सुलझाना चाहूँगा, तुम्हारा क्लेचर निकालकर किसी खाई में फेंक दूँगा कि तुम खुले बालों में ज्यादा सुन्दर लगती हो। तुम्हारे सौन्दर्य को प्रकृति का आशीष उन्हीं धवलधारा की कुछ बूंदों से प्राप्त होगा, तुम्हारे चेहरे पर बिखरी तुम्हारी हल्की भीग चुकी जुल्फों को हटाते हुए मैं देर तक तुम्हारी आँखों में देखूँगा। मैं उस समय प्रकृति की सारी सुन्दरता तुम्हारी आँखों से देख लेने को उतावला रहूँगा, मैं तुम्हें हर चीज बता-बताकर दिखाऊँगा। जितना ज्यादा वहाँ के बारे में जानकारी होगी सब साझा कर दूँगा। फिर अचानक मुझे लगेगा कि सब बातें तुमने भी पढ़ रखी हैं, सब दृश्य तुम खुद भी देख रही हो, इसमें बताने जैसा क्या है? लेकिन सब जानकर भी केवल मेरी ख़ुशी के लिए धैर्य से सुनती हुई तुम, अचनाक मेरे चुप होने पर मेरी तरफ देखोगी और हम दोनों मेरी इस बेवकूफी पर जब साथ में मुस्कुरायेंगे तब मेरा ध्यान तुम्हारे अधरों की लालिमा पर ठहर जाएगा। मेरी पसन्द की लिपस्टिक से लाल हुए तुम्हारे होंठ मुस्कुराते हुए वैसे ही सुन्दर लगते हैं जैसे ब्रम्हा जी की सृष्टि में पहला कमल खिला हो। इन मुस्कुराते होंठो की कोमलता पर झरने की फुहारों से बिछुड़ी श्वेतरंगी मोती समान कुछ बूँदें उसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा रही हैं। अब मैं सब भूलकर बस इन्हीं मोतियों को तुम्हारे मुस्कराहट की मुद्रा में हुए अधरों पर देखते रहना चाहता हूँ। मेरी देखने की अभिलाषा इतनी है कि मैं इन अधरों और मोतियों को स्पर्श नहीं करना चाहता कि कहीं ये मोती बिखर न जाये, कहीं नीचे न गिर जाए।

रुको! बस, अब आगे न पढ़ो, आगे पढ़ोगी तो ये होंठ हिलेंगे और होंठ हिले तो ये बूँद का मोती छिटक सकता है, जो कि मैं नहीं चाहता। मैं बस इन्हें ऐसे तुम्हारे लाल अधरों पर सजा हुआ देखते रहना चाहता हूँ, तुम बस ऐसे ही मुस्कुराती रहो...

- कुमार आशीष
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