देखो फिर विक्षिप्त हुआ मृग, बिछड़ के निज कस्तूरी से।
पूरा जंगल तड़प उठा हे राम तुम्हारी दूरी से।।
जब से तुम जंगल आये थे, नवजीवन हम सब पाये थे।
छूकर पावन चरण तुम्हारे, नयन सहज ही भर आये थे।।
तुमने आकर कष्ट निवारे, तुमने आकर भाग्य सँवारे।
जीवन का वरदान सौंपकर, बन बैठे तुम प्राण हमारे।।
अब तो हम घुट-घुट जीते हैं, जीवन की मजबूरी से।
पूरा जंगल तड़प उठा हे राम तुम्हारी दूरी से।।
फिर से था यदि हमें रुलाना, तो फिर हमें हँसाया क्यों?
इन मायावी असुरों के, चंगुल से हमें बचाया क्यों?
हमको तुमसे अनुराग हुआ अब, बिछड़ के न रह पायेंगे।
हमको भी प्रभु अवध बुला लो, जंगल में मर जायेंगे।।
जीवन का रथ आगे कैसे, जाये साँस अधूरी से?
पूरा जंगल तड़प उठा हे राम तुम्हारी दूरी से...
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