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स्नेह के बंधन सभी,
जो थे तुम्हारे संग कभी।
उन बन्धनों को खोलकर,
दृढ़ता को अपनी तोलकर।
वो पथ जो दुनियाँ को न भाये,
आकाश के आगे जो जाये।
उस राह पर चलने की खातिर में मैं स्वयं को,
अब उसी पर मोड़ता हूँ,
सुन सफलता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।
मत करो जयघोष के स्वर,
मैं अब इनसे डर रहा हूँ।
शोहरतें ज्यों-ज्यों बढ़ें हैं,
मैं स्वयं में मर रहा हूँ।
ज़िन्दगी से मोह मेरा टूटता है,
और अपना साथ देखो छूटता है।
मैं हूँ बहुत विक्षिप्त इस कारण स्वयं को,
अब किसी वनवास से मैं जोड़ता हूँ,
सुन सफलता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।
कर निछावर अनगिनत रातों की नींदें,
मैं स्वयं के आँसुओं में भीगता था।
हर तरफ था एक सन्नाटा ग़ज़ब का,
और उसमें मैं अकेला चीखता था।
मुस्कान, आँसू, नेह, सपने, नाम अपना,
सब छोड़कर कितना किया नुकसान अपना।
सब खो दिया था एक जिस वादे की खातिर,
मैं स्वयं अपना वो वादा तोड़ता हूँ,
सुन सफ़लता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।
- कुमार आशीष
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बहुत सुंदर।
ReplyDeleteआभार...
Deleteजयगुरुदेव
ReplyDeleteसुन्दर रचना
शुक्रिया सर!
Deleteखूबसूरत और उत्साहित करती प्रतिक्रया के लिए आभार मैम!
ReplyDeleteजब हम अपनी ज़िन्दगी में बहुत कुछ पा लेते हैं तो उसके बाद कभी शायद ये भी सोचते हैं कि सब छोड़कर कहीं किसी वनवास पर चले जायें और सकून और शान्ति में रहें। इसी कसमकस में इस कविता का जन्म हुआ है।
पुनः आभार...