|| सबसे पहले आप सभी को नव-वर्ष की अनन्त शुभकामनाएँ ||
आज 01 जनवरी 2018 की पहली सुबह है। इस बार हमारा सौभाग्य है कि हम अपने नव-वर्ष 2018 के पहले दिन ही माँ वैष्णों देवी जी के दर्शन करेंगे, इससे अच्छी शुरुआत किसी नव-वर्ष पर नहीं हुई। जैसा कि आपने पढ़ा कि शिव-खोड़ी जाने के लिये मुझे ठण्डे पानी से नहाना पड़ा था, आज मैं ऐसी कोई गलती नहीं करने वाला। मैं सुबह 06 बजे उठा और इससे पहले कि सौरभ उठते मैं नहा-धोकर तैयार हो गया। इसके बाद मैंने सौरभ को हैप्पी न्यू ईयर बोलते हुये जगाया। वो भी तैयार होने लगा तब तक मैंने चाय ऑर्डर कर दी। मैंने चाय पी और सौरभ ने कॉफी ली। इसके बाद हम दोनों पैदल ही बाण-गंगा चेक पोस्ट की तरफ चल पड़े, जो कि हमारे होटल से यानी बस-अड्डे से महज 01 किलोमीटर की दूरी पर है। चेक पोस्ट पर सुबह के समय काफी लम्बी लाइन लगी होती है, क्योंकि आगे वो मुख्य प्रवेश-द्वार है जहाँ हमारी यात्रा-पर्ची चेक होती है और हमारा सामान चेक होता है। इन सबके बाद ही आप आगे चढ़ाई कर सकते हैं। यात्रा-पर्ची काउंटर बस-अड्डे के पास ही है, वहाँ से ले सकते हैं अथवा सुविधा के लिये आप माता श्री वैष्णों देवी श्राइन बोर्ड की अधिकारिक वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। वेबसाइट पर पहुँचने के लिये यहाँ क्लिक करें।
यहाँ पंक्ति लम्बी अवश्य होती है लेकिन समय ज्यादा नहीं लगता, हमने भी चेकिंग करवायी और फिर चढ़ाई शुरू कर दी। यहाँ से कुछ भक्त घोड़े अथवा पालकी से जाते हैं। बच्चों के लिये यहाँ पिट्ठू मिलते हैं। अब यहाँ से साँझीछत तक हेलीकॉप्टर जाने लगे हैं लेकिन उसके लिये पहले टिकट लेना पड़ता है। सुविधाएँ खूब हैं लेकिन सबसे ज्यादा मजा पैदल चलने में आता है, अगर सम्भव हो तो पैदल ही चढ़ाई करनी चाहिये। यहाँ दोनों तरफ बाजार है, खाने/पीने की अच्छी व्यवस्था रहती है। चलते-चलते हम प्रमुख-प्रवेश द्वार से 01 किलोमीटर आगे वहाँ पहुँचे जहाँ माता जी ने बाण चलाकर जल का स्रोत उत्पन्न किया था और अपने केश धोये थे, तथा जहाँ पर हनुमानजी ने प्यास बुझायी थी— बाण-गँगा। रास्ते से ही कुछ सीढ़ियाँ नीचे उतरने के बाद आप बाण-गँगा पर पहुँचते हैं। यहाँ भक्तगण स्नान करते हैं फिर आगे जाते हैं। यहाँ का जल बहुत ही धवल है। इस यात्रा वृन्तात को पढ़ते हुये अभी तक आप समझ गये होंगे कि “न तीर से, न तलवार से, बन्दा डरता है तो सिर्फ ठण्ड की फुहार से...” इसलिये हमने यहाँ हाथ-मुँह धोया थोड़ा जल पिया, कुछ फोटो खिंचवायी और फिर आगे बढ़े। आप कटरा से और भैरोनाथ तक सड़क मार्ग से भी जा सकते हैं और सीढियों की भी व्यवस्था है। लेकिन सीढ़ियाँ चढ़ना ज्यादा कठिन होता है इसलिये सड़क मार्ग से ही चलना ठीक है।
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प्रमुख प्रवेश द्वार (दर्शनी दरवाजा)
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बाण-गँगा चेक पोस्ट
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| बाण-गँगा चेक पोस्ट से त्रिकूट पर्वत का नज़ारा |
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| बाण-गँगा |
बाण-गँगा से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे जाने पर “चरण-पादुका मन्दिर” है। जब कन्या रूपी वैष्णों माता को पकड़ने के लिये भैरौनाथ पीछे दौड़ा था तब इसी जगह से माता जी एक बार पीछे मुड़कर देखा था कि भैरोनाथ आ रहा या नहीं। माताजी के रुकने से उनके चरण-चिन्ह यहाँ बन गये। आजकल यहाँ बहुत ही खूबसूरत मन्दिर है, जहाँ पर माताजी के चरण-चिन्ह और उनके एक स्वरुप का दर्शन होता है, जिसमें वो शेर पर बैठी हैं। मन्दिर के अन्दर अन्य कई देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ भी हैं उनका दर्शन करके आशीर्वाद लेते हैं और आगे बढ़ते हैं। यहीं पास में “गीता-भवन मन्दिर” भी है, उसके दर्शन करना न भूलें।
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| एक सेल्फी चरण-पादुका मन्दिर के पास |
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| साभार इंटरनेट : माता श्री वैष्णों देवी जी के चरण-चिन्ह |
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| साभार इंटरनेट : चरण-पादुका मन्दिर का प्रमुख दर्शन |
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| साभार इंटरनेट : चरण-पादुका भवन |
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| गीता-भवन मन्दिर |
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| गीता-भवन मन्दिर के बाहर का दृश्य |
दर्शन करते और फोटो खिंचवाते हम आगे बढ़ने लगे। शिव-खोड़ी की चढ़ाई करके मुझे एहसास हो गया था कि बिना खाना खाये चढ़ाई करना कितना मुश्किल होता है, इसलिये मैंने सबसे पहले खाने को प्राथमिकता दी। इस रास्ते पर खाने-पीने की बहुत-सी दुकानें हैं। हमने भी एक होटल पर आलू-पराठे का आनन्द लिया और फिर आगे चल पड़े। दोनों तरफ बाजारें सजी थीं, और दूर कहीं नज़र डालो तो पहाड़ों की सुन्दरता थकान भुला देती थी। हम प्राकृतिक सुन्दरता का आनन्द लेते चलते जा रहे थे। कुछ दूर जाने पर हम उस दो-राहे पर आ गये जहाँ से एक रास्ता (जो पुराना मार्ग है) साँझी-छत होते हुये माता जी के भवन जाता है, तथा दूसरा रास्ता (जो नया मार्ग है) हिमकोटि होते हुये माता के भवन जाता है। नया वाला मार्ग आसान है, अतः यहाँ से अधिकतर भक्त नये मार्ग पर मुड़ जाते हैं, नये मार्ग पर घोड़े नहीं जाते हैं वो सिर्फ पुराने मार्ग से चलते हैं। लेकिन क्योंकि हमें अभी ‘अर्द्धकुँवारी’ में दर्शन की पर्ची लेनी है इसलिये हम पुराने मार्ग पर थोड़ी दूर चलेंगे।
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| साभार इंटरनेट : यहाँ से रास्ते अलग-अलग होते हैं |
धीरे-धीरे चलते और जोर-जोर से माताजी के जयकारे करते हम अर्द्धकुँवारी पहुँच गये। अर्द्धकुँवारी प्रमुख प्रवेश द्वार से 06 किलोमीटर की दूरी पर है तथा चरण-पादुका मन्दिर से साढ़े तीन किलोमीटर। यहाँ पर गर्भजून गुफा है, जहाँ माताजी ने नौ माह तपस्या की थी। यहाँ भी दर्शन के लिये पर्ची लेनी पड़ती है। मैंने जाकर पर्ची ली। आमतौर पर यात्री यहाँ आराम करते हैं, यहाँ 100/- में एक कम्बल मिलता है, जिसे वापस करने पर आपको पैसे दे दिये जाते हैं अर्थात् निःशुल्क व्यवस्था। लेकिन हमें तो आज ही यानी नव-वर्ष के दिन ही माता जी के दर्शन करने थे, इसलिये हम नहीं रुके। पर्ची काउन्टर से बायीं तरफ एक छोटी सुरंग जैसा रास्ता है, इधर से चलकर हम फिर नये वाले रास्ते पर आ गये जो कि हिमकोटि होते हुये भवन जाता है। ये रास्ता पुराने मार्ग की अपेक्षा कम चढ़ाई वाला और सुगम है। अब तक हम काफी थक चुके थे, लेकिन बैठने से थकान ज्यादा हावी होती इसलिये धीरे-धीरे बढ़ते रहना ठीक लगा। अचानक हमें याद आया कि हमने बहुत देर से कुछ खाया-पिया नहीं है, इसलिये अब हमें चाय/कॉफी की तलाश थी। बीच-बीच में कई जगह ऐसी सुविधाएँ मिली, लेकिन वहाँ सब जगह भीड़ थी। हम खोज करते-करते इस नये मार्ग पर करीब 02 किलोमीटर चल चुके थे। फिर एक जगह चाय/कॉफी मिली जहाँ भीड़ भी कम थी, हमने चाय लिया और बेंच खाली न होने के कारण पहाड़ के एक टीले पर बैठ गये। सुबह 09:00 बजे के चले अब बैठे थे, कितना सुकून और आनन्द मिला यहाँ लिखकर बता पाना मुश्किल है।
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| साभार इंटरनेट : सुकून देने वाला बोर्ड |
यहाँ करीब पन्द्रह मिनट रुककर हम फिर आगे बढ़ चले। जब हम चले थे तो जैकेट पहन के निकले थे और स्वेटर बैग में रख चुके थे, लेकिन यहाँ तो जैकेट भी कमर में बाँधकर चलना पड़ रहा था क्योंकि गर्मी लग रही थी। रास्ते में ही एक जगह देवी-द्वार पड़ता है, यहाँ सेल्फी लेना हमने अपना कर्तव्य समझा तो ले लिया। इस जगह को देवी-द्वार शायद इसलिये कहा जाता है क्योंकि यहाँ एक तरफ तो पहाड़ रहता है दूसरे तरफ भी पहाड़ के ही अवशेष है तो इस तरह यहाँ प्राकृतिक द्वार बन जाता है, और देवी माँ के रास्ते हैं इसलिये देवी-द्वार कहलाता है। रास्ते में दो-तीन चेक पोस्ट पड़ते हैं यहाँ आपको स्कैन मशीन से गुजरना पड़ता है, इन जगहों पर अक्सर पंक्ति लम्बी लग जाती है बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन थोड़े वक़्त का नुकसान हो जाता है। क्योंकि बहुत से लोग पंक्ति में नहीं लगते बस आगे बढ़ते जाते हैं फिर वहाँ चेक पोस्ट पर बीच में घुसकर निकलते हैं तो पंक्ति वाले खड़े रह जाते हैं। हालाँकि हमने ऐसा कभी नहीं किया और अच्छा होगा आप भी न करें। इसके आगे जाने पर एक चेक पोस्ट पर यात्रा पर्ची पर मुहर लगती है और दर्शन के लिये ग्रुप नम्बर मिलता है, इसके क्या इस्तेमाल होता है मुझे नहीं पता क्योंकि जब हमने पर्ची पर मुहर लगवायी तो ग्रुप नम्बर क्या था वो पढ़ने में नहीं आ रहा था और न ही कभी भी, कहीं पर हमसे हमारा ग्रुप नम्बर पूछा गया।
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| सुन्दर दृश्य |
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| साभार इंटरनेट : माता जी का भवन |
चलते-चलते हम भवन के काफी समीप पहुँच गये, दोपहर के लगभग 01 बज चुके थे। यहाँ पर जगह-जगह कई क्लॉक रूम बने हैं, जहाँ आप अपना सामान जमा करते हैं, तथा कई श्राइन बोर्ड की दुकानें हैं जहाँ से आप भेंट-प्रसाद खरीदते हैं। यहाँ पर स्नान आदि की समुचित व्यवस्था है, बहुत से लोग यहाँ स्नान करके फिर सामान जमा करते हैं। कहने की जरूरत नहीं आप समझ ही चुके होंगे कि मैंने यहाँ भी स्नान नहीं किया। हम दो बार सामान जमा करने के लिये पंक्ति में खड़े हुये लेकिन वहाँ बहुत सारा वक़्त लग रहा था। इसके बाद भेंट-प्रसाद लेने के लिये और दर्शन के लिये बहुत लम्बी लाइन लगी थी इसलिये हम किसी वैकल्पिक व्यवस्था की खोज में लग गये। जहाँ दर्शन की लाइन लगी थी वहीं बहुत-सी प्रसाद बेंचने की दुकाने थीं, वो मनमाना पैसा लेकर प्रसाद देते थे और आपका सामान रख लेते थे। हमने वहीं से प्रसाद खरीदना ठीक समझा, क्योंकि ऐसा करके हमारा प्रसाद खरीदने और सामान जमा करने का वक़्त बच जाता। उन्हें जब हमने बताया कि हम दो लोग हैं तो उन्होंने एक का प्रसाद 250/- रूपये का तैयार किया, हमने सामान जमा किया और प्रसाद लेकर पंक्ति में जाकर खड़े गये। घड़ी में 03:00 बज चुके थे। यहाँ कटरा के मुकाबले काफी ठण्डी थी— तापमान लगभग 01 या 02 डिग्री के आसपास। मैंने अपना जैकेट पहन लिया और सौरभ ने निकाल कर बैग में रख दिया था तो उनकी हालत तो वही जानते होंगे। पंक्ति में उम्मींद के मुकाबले काफी कम समय लगा। मुझे लग रहा था कि कम-से-कम 04/05 घंटे लगेंगे लेकिन पंक्ति तेजी से बढ़ रही थी तो एक-डेढ़ घंटे में ही हम मन्दिर के समीप पहुँच गये। यहाँ सबसे पहले एक जगह पर नारियल जमा करके टोकन लेना पड़ता है फिर आगे बढ़ना होता है। वहाँ दो-तीन जगह सीढियाँ चढ़नी पड़ती है, अत्यधिक भीड़ के कारण पता नहीं चला कि कितनी-कितनी सीढ़ियाँ हैं। फिर कुछ-कुछ लोगों को मन्दिर के अन्दर भेज रहे थे। पिछली बार जब मैं आया था तब ये नया वाला मन्दिर नहीं था सिर्फ माता जी की गुफा ही थी, लेकिन अब बहुत भव्य मन्दिर बन गया था। उसी मन्दिर में से माता जी के प्राचीन गुफा के दर्शन होते हैं। यूँ तो यहाँ चलते-चलते दर्शन करने होते हैं, लेकिन पता नहीं कैसे हमारे पीछे ज्यादा भीड़ नहीं थी तो हमें कुछ क्षण वहाँ ठहरने का अवसर मिला। ठीक 04 बजकर 20 मिनट पर हम उस भवन में थे, 01/02 मिनट रुक कर फिर आगे बढ़े। वहाँ से निकलकर आगे जाने पर थोड़ा ऊपर चढ़ना होता है फिर आगे निकास द्वार की सीढ़ियाँ शुरू होती है। मेरी जानकारी के अनुसार सामान्यतः माता जी की प्राचीन गुफा के दर्शन इसी भवन से करने होते है प्रमुख गुफा का द्वार बन्द रहता है, लेकिन सर्दियों में उनकी प्राचीन गुफा (जिसका दर्शन भवन से करते हैं) भी खोल दी जाती है। हमारा सौभाग्य ही कहा जाना चाहिये कि वो गुफा भी खुली थी, तो जैसे ही हम भवन से बाहर निकले वहीँ पर बायीं तरफ माता जी की गुफा का प्रवेश द्वार खुला मिला। सभी भक्त पंक्तिबद्ध होकर उधर जा रहे थे कुछ आगे बढ़कर निकास द्वार की सीढियों से बाहर भी निकल रहे थे। हम भी गुफा के दरवाजे तक पहुँच गये लेकिन आगे भीड़ बहुत अधिक होने के कारण पंक्ति रुक गयी। मुझे लगा शायद यहाँ तक पहुँचकर भी गुफा में प्रवेश नहीं मिलेगा क्योंकि आरती का समय हो रहा था और आरती के समय गुफा का द्वार बंद कर दिया जाता है फिर लगभग 02 घंटे बाद दर्शन शुरू होता है। भीड़ में खड़े होकर मैं आस-पास देख रहा था तो लगा कि अब बहुत कुछ बदल गया है। जब ग्यारह वर्ष पूर्व आया था तो गुफा के भीतर चट्टान ही थी और वहाँ गँगाजी की तीव्र धारा बहती रहती थी लेकिन अब संगमरमर लग गया था। माता जी की गुफा के प्रवेश द्वार पर दो दरवाजे और लगे हैं जो कि सोने के हैं। अब तक शाम के 04 बजकर 40 मिनट हो चुके थे और शायद 05:00 बजे द्वार बंद होना था, इसलिये मैं चिंतित था और प्रार्थना भी कर रहा था कि प्रवेश मिल जाये। मेरी प्रार्थना सुनी भी गयी और मुझे अगले 05 मिनट बाद प्रवेश मिल गया। ठीक 04 बजकर 45 मिनट पर मैं अपने जीवन के बहु-प्रतीक्षित स्थान पर खड़ा था, अर्थात् माता जी के ठीक सामने। यही वो स्थान है जिसके एक साक्षात्कार के लिये दुनियाँ भर के करोड़ों श्रद्धालु कई परेशानियों का सामना करके भी आने को आतुर रहते हैं। यहाँ रुकना संभव नहीं था क्योंकि भीड़ बहुत थी। मस्तक झुकाया, दर्शन किया और आगे बढ़ गये। वहाँ से बाहर निकलकर हमने वहाँ मिलने वाले मिश्री प्रसाद को प्राप्त किया, मेरे हिसाब यही यहाँ का प्रमुख प्रसाद माना जाना चाहिये। वैसे तो यहाँ का मुख्य प्रसाद माता जी का दर्शन और वो तिलक है जो गुफा में पुजारी जी सबके मस्तक पर लगाते हैं। मुझे नहीं लगता कोई श्रद्धालु इस तिलक से वंचित रहता होगा।
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| साभार इंटरनेट : नये भवन से माता जी का प्रमुख दर्शन |
इसके बाद हमें नारियल प्राप्त करना था जो कि हमने भवन में प्रवेश करते समय जमा करके टोकन प्राप्त किया था। यहाँ भी बहुत भीड़ होती है, इसलिये सिर्फ सौरभ ने अपना टोकन देकर नारियल वापस लिया मैंने नहीं। फिर सीढियों के रास्ते नीचे उतरने पर, 200 मीटर बाद दाहिनी तरफ भगवान् शिव जी की भी एक गुफा है। वहाँ पर लगे बोर्ड के अनुसार ये स्थल भी प्राचीन है लेकिन पहले इसकी जानकारी केवल कुछ स्थानीय लोगों को थी पर जबसे ये मन्दिर श्राइन बोर्ड के अधिकार में आया है इसका प्रचार बहुत तेजी से हुआ है। यहाँ दर्शन करने के लिये हमें लगभग 100 सीढ़ियाँ नीचे उतरना होता है। जैसा कि मैंने पहले भी लिखा कि यहाँ ठण्ड बहुत अधिक हो रही थी, और हमने जूते भी नहीं पहने थे इसलिये हमारे पैर बिलकुल सुन्न हो रहे थे। खैर हम सीढ़ियों से नीचे पहुँचे, यहाँ पर भी एक छोटी-सी गुफा है जिसमें झुक कर जाना होता है, वहाँ अन्दर भगवान् शिव का स्वरुप बहुत ही सुन्दर शिवलिंग स्थापित है। यहाँ दर्शन करके हम वापस आये और उस दुकान पर पहुँच गये जहाँ अपना सामान रखा था। यहाँ जूते पहनने के बाद का जो आनन्द मिला उसका तो पूछिये मत। फिर हमने थोड़ा नाश्ता किया और अब वहीं पर लगे भैरो-घाटी बोर्ड का अनुसरण किया। अब तक शाम के 05 बजकर 30 मिनट हो चुके थे।
भैरोंनाथ यात्रा :-
पहले यहाँ से भैरो-घाटी जाने के लिये भक्तों को साँझीछत तक वापस जाना पड़ता था फिर वहाँ से भैरो-घाटी की चढ़ाई करनी होती थी। तब ये दूरी शायद 05 किलोमीटर की होती थी। लेकिन अब भवन के पास से ही भैरोंनाथ की चढ़ाई शुरू होती है इसलिये अब भवन से भैरो घाटी मन्दिर पहुँचने के लिये सिर्फ डेढ़ किलोमीटर की चढ़ाई करनी होती है। क्योंकि हम बहुत थक चुके थे और फिर लगा कि वहाँ भी मन्दिर में भीड़ होगी पंक्ति में जाने कितनी देर लगे इसलिये एक बार मन हुआ कि वापस चलते हैं, वहाँ दर्शन नहीं करेंगे। लेकिन हम सोंचते हुये चल रहे थे तो कुछ ऊपर चढ़ गये फिर हमने निर्णय लिया कि चलते हैं वरना यात्रा अधूरी रह जायेगी। यहाँ से रास्ता बहुत पतला और अधिक चढ़ाई वाला है, अभी तक एक ही मार्ग है लेकिन अब वैकल्पिक व्यवस्था की जा रही है। इस रास्ते पर ज्यादातर लोग घोड़े से जाते हैं। इसलिये कई बार तो रुक कर घोड़ों को निकलने का मार्ग देना पड़ता है। इधर पैदल चलने वालों की संख्या कम ही होती है। खैर हम तो पैदल ही चल रहे थे। अभी तक हमने चढ़ाई के लिये किसी भी जगह सीढियों का प्रयोग नहीं किया (जहाँ तक सड़क का मार्ग था) । यहाँ मैंने सौरभ से सीढ़ियों से चलने को कहा तो वो मान गये। लेकिन ये हमारा निर्णय गलत था, क्योंकि इतना थकने के बाद सीढियों पर चढ़ना बहुत मुश्किल था। 300 से कुछ अधिक सीढ़ियाँ थीं और हमने लगभग तीन बार विश्राम किया तब वो सीढ़ियाँ पूरी कर सके। इसके बाद हमने कभी भी सीढियों से चढ़ने की गलती नहीं की। हम फिर सड़क मार्ग से ही आगे बढ़ने लगे, कुछ आगे जाने पर हमने चाय पिया, और पास के बेंच पर बैठ गये। अब हम त्रिकूट पर्वत की लगभग सबसे ऊँची चोटी के पास थे। आस-पास की सभी चोटियाँ जो पहले हमें सर उठाने पर दिखायी देती थीं अब हमारे बराबर लग रही थीं। यहाँ ठण्ड भवन की अपेक्षा और भी अधिक थी। हाथ जैकेट से बहार निकलते ही सुन्न हो जाते थे। यूँ तो बर्फ नहीं पड़ी थी लेकिन लग ऐसा ही रहा था जैसे हम बर्फीली हवाओं के बीच में खड़े हों। मेरे अनुमान के अनुसार इस स्थान पर तापमान शून्य से कुछ नीचे रहा होगा। थोड़ा विश्राम करके हम फिर आगे बढ़े और भैरोनाथ जी के मन्दिर पहुँच गये। भवन से यहाँ तक पहुँचने में हमने डेढ़ किलोमीटर की दूरी करीब 01 घंटे में तय की जबकि हमने शिव-खोड़ी में तीन किलोमीटर की चढ़ाई सिर्फ आधे घंटे में पूरी कर की थी, वहाँ की भी चढ़ाई ऐसी ही थी। हमने प्रसाद लिया और फिर भैरोनाथ जी के मन्दिर के पास पहुँच गये। घड़ी में शाम के 06 बजकर 30 मिनट हो चुके थे। यहाँ भी 07:00 बजे आरती के लिये मन्दिर बन्द होना था इसलिय आवश्यक था कि जल्दी-से दर्शन कर लें। यहाँ भीड़ नहीं थी सिर्फ पाँच मिनट में मन्दिर के अन्दर पहुँचा जा सकता था, हमने वहीं एक जगह जूते निकाले और तभी एक बन्दर ने सौरभ का प्रसाद ले लिया। वो भोग लगाने लगा और सौरभ जी दूसरा प्रसाद खरीदने चले लगे। इसमें हमारा 10-12 मिनट चला गया। मन्दिर में लगे क्यू में प्रवेश करने के लिये कुछ दूर से आना पड़ता लेकिन जल्दबाजी में हम बीच में ही क्यू के ऊपर लगे एंगल से अन्दर कूद गये और फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर भैरोनाथ जी के दर्शन किये। सौरभ तो वैष्णों देवी कभी नहीं आये थे मैं एक बार आया तो लेकिन तब भैरोनाथ जी के दर्शन करने नहीं आया था। मैं भैरोनाथ जी के दर्शन पहली बार कर रहा था। यहाँ भैरोनाथ जी का सिर ही है दर्शन करने के लिये क्योंकि जब माता ने त्रिशूल से प्रहार किया था तो धड़ वहीँ गुफा के द्वार पर रह गया था और सिर यहाँ आकर गिरा था। यहाँ से दर्शन करके हम फिर बाहर आये।
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| भैरोंनाथ मन्दिर के पास लगा बोर्ड |
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| अगर दिन होता तो हम भी यहाँ का आनन्द लेते |
ठण्डी भी बहुत लग रही थी, थकान भी बहुत ज्यादा लगी थी इसलिये अब हमें कहीं कम्बल और एक कमरा मिल जाता तो हम सो जाते। लेकिन हमें अगले दिन पटनीटॉप जाना था तो रुकना संभव नहीं था, इसलिये कुछ खाने की तलाश में नीचे उतरने लगे। यहाँ से कटरा जाने के लिये दो रास्ते हैं। पहला जिस रास्ते से हम ऊपर आये थे जो कि भवन तथा हाथीमत्था से होते हुये कटरा जाता वो, और दूसरा जो यहाँ का पुराना मार्ग है— साँझीछत होते हुये कटरा जाता है। नये मार्ग पर जाने के लिये वापस भवन जाना पड़ता तो दूरी लगभग साढ़े चौदह किमीटर पड़ती इसलिये पुराने मार्ग से उतरना ठीक था जो कि साँझीछत होते होकर जाता है, इस तरफ से दूरी सिर्फ 11 किलोमीटर पड़ती है। हमने इसी का अनुसरण किया। जब मैं पहली बार अपने माता-पिता जी के साथ आया था तो मैं इसी रास्ते से चढ़ा भी था और उतरा भी, क्योंकि तब यही एक रास्ता था। पहले जब पुराना मार्ग ही था तब श्रद्धालु इस रास्ते से ही आते थे और साँझीछत से भैरोनाथ की चढ़ाई करने के बजाय सीधे चलकर माता जी के भवन पहुँचते थे, वहाँ से दर्शन करके वापस साँझीछत आते थे और फिर भैरोनाथ जी की चढ़ाई शुरू करते थे। ऐसे में उन्हें भवन और भैरोनाथ जी दोनों का रास्ता लम्बा पड़ता था। नये मार्ग के निर्माण से दूरी भी कम हुई है और चढ़ाई भी आसन हो गयी है तथा भीड़-भाड़ भी काबू में रहती है। जिन विपरीत प्राकृतिक परिस्थितियों में यहाँ नित-नयी सुविधाएँ हमें मिल रही है उनके लिये श्राइन बोर्ड निश्चित रूप से साधुवाद की अधिकारी है।
लगभग 02 किलोमीटर उतरने के बाद हम साँझीछत के करीब आ गये, और वही एक होटल पर हमने चाय-समोसे का आनन्द लिया। सुबह 09:00 बजे से लगातार घुमावदार रास्ते पर चढ़ाई करने के कारण उल्टी सी लग रही थी हालाँकि हम दोनों का में किसी को भी उल्टी हुई नहीं लेकिन उसी वजह से हम खाना नहीं खा सके। इस रास्ते पर उतरते समय आपको स्वयं पर काबू रखना पड़ता है वरना आप न चाहते हुये दौड़ते रहेंगे और ऐसा करने से आपके पैरों में मोच आने की आशंका अधिक रहती है। हम बस बढ़ते ही जा रहे थे सामने से कुछ लोग घोड़े द्वारा इधर से चढ़ाई करते हैं बाकी पैदल वाले अधिकतर नये मार्ग से जाते हैं। रात्रि में ऊपर से देखने पर जगह-जगह जल रही बिजलियों से पहाड़ की शोभा और भी अधिक बढ़ जाती है। चलते-चलते हम अर्द्धकुँवारी आ गये। यहाँ मैंने जाकर पता किया तो जानकारी मिली कि दर्शन के लिये हमारा नम्बर कल शाम तक आयेगा अर्थात लगभग 20 घंटे बाद। अगले ही दिन हमें पटनीटॉप जाना था और हमारी ट्रेन भी थी। दुर्भाग्यवश हमें यहाँ का दर्शन नहीं मिला। हम नीचे की तरफ बढ़ने लगे। यहाँ जगह-जगह लोग दुकानों से सामान की खरीददारी करते हैं, लेकिन हम इतना थक चुके थे कि हम जल्दी से होटल पहुँचना चाहते थे। इसलिये बिना किसी खरीददारी के हम बाण-गँगा के चेक पोस्ट पर पहुँच गये।
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| दर्शनी दरवाजा, रात का दृश्य |
कहा जा सकता है कि हमारी पैदल-यात्रा पूर्ण हो चुकी थी क्योंकि यहाँ से होटल जाने के लिये ऑटो मिल सकता था। हमने ऑटो से कहा बस-अड्डे जाना है तो उसने 01 किलोमीटर का 400 रूपये माँगा। हम पैदल ही आगे बढ़ चले। बाण-गँगा से होटल तक पैदल ही आये। रात को 11:00 बजे होटल में पहुँचते ही गर्म-पानी से पैर धुले तो बड़ी राहत मिली। थकान बहुत थी लेकिन माता जी दर्शनों के आनन्द के आगे फीकी थी। मेरी यात्रा बहुत-ही यादगार और सुखद रही, मेरा तो नया-वर्ष बन गया। कल क्या करना है, क्या नहीं कुछ सोंचने की शक्ति नहीं बची थी बस सोने का मन हो रहा था इसलिये हम तुरन्त बिस्तर पर गिरे और सो गये।
|| जय माता दी ||
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