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ये कितनी अजीब बात है कि कोई भी इंसान निराश होने के लिए तैयार नहीं है। जबकि वो ये जानता है कि कभी-न-कभी उसे भी निराश तो होना ही पड़ेगा, क्योंकि सृष्टि में भगवान् को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है जिसने पराजय का स्वाद न चखा हो। मैंने स्वयं के अनुभवों से ये सीखा है कि निराश होना कोई बुरी बात नहीं है, बुरी बात ये है कि आप आवश्यकता से अधिक समय तक निराशा के अन्धकार में रहते हैं। ये बात ठीक उसी तरह है जैसे रात चाहे जितनी भी काली क्यों न हो अपने आयु भर ही रहती है, उसके बाद सूरज का उज्ज्वल प्रकाश अपनी आभा से पृथ्वी को उर्जान्वित और आनंदित करता ही है। ठीक इसी तरह निराशा के भी अपने प्रभाव हैं, कुछ अच्छे और कुछ बुरे। सबसे अद्भुत बात ये है कि ‘निराशा’ शब्द ही अपने आप में एक नकारात्मकता समेटे हुए है। कभी-भी कुछ होता है तो सब एक ही बात कहते हैं ‘निराश मत होना।’ मैं पूँछता हूँ क्यों भई, ऐसी क्या बुराई है निराश होने में...?
मुझे ऐसा लगता है कि ‘निराश होना या न होना ये हमारे वश में नहीं है।’ जब हम किसी काम को मेहनत से, ईमानदारी से करते हैं तथा इसके बावजूद भी हमें सफ़लता नहीं मिलती है तो हम पर ‘निराशा’ हावी हो ही जाती है। इस परिस्थिति में हम अपने जीवन में सीखे गये वो सभी वाक्य भूल जाते हैं तो हमें सकारात्मकता दे सकते हैं। शायद इसी क्षण के लिए किताबें हैं, गुरुदेव हैं और कोई अच्छा मित्र है। आप इनमें से किसी की शरण में चले जायें तो आपकी समस्या हल हो जायेगी।
निराश होने के नुकसान (मानसिक, भौतिक और शारीरिक रूप से) खूब हैं और आप उन्हें जानते भी होंगे। परन्तु निराश होने में एक विशेष फायदा भी है और वो ये है कि आप स्वयं को अपनी गलती पर ‘निराशा’ का दण्ड देते हैं। जिससे आप भविष्य के लिए अनुशासित रहते हैं। आप स्वयं को निराशा की स्थिति से निकालने के लिए किसी अच्छे दोस्त से बात करते हैं या अपने गुरु के सानिध्य में बैठते हैं या कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं। निराश होना मनुष्य का एक प्राकृतिक स्वाभाव है। जब भी कुछ मनुष्य के उम्मीदों से हटकर होता है तो वो तुरंत निराश हो जाता है। निराश होने में बुराई नहीं है बल्कि बुराई इस बात में है कि आप निराश होकर अपना तथा औरों का कितना नुकसान करते हैं? अधिकाँश लोग जब अवसाद में होते हैं तो वो दुनियाँ का सबसे आसान काम करने के लिए आगे बढ़ते हैं जो कि उस समय उन्हें सबसे मुश्किल लग रहा होता है— आत्महत्या। मेरे हिसाब से दुनियाँ का सबसे आसान कार्य है— मरना। अगर किसी को मरना है तो वो नस काट लेगा, रेलवे ट्रैक पर लेट जायेगा मतलब आपको सिर्फ कुछ मिनट के लिए ख़ुद को उस एक काम (जिसे आप मरने के लिए चुनते हैं) के लिए तैयार करना है बस, उसके बाद जो होना है वो ख़ुद ही होगा आप भी फिर कुछ नहीं कर पायेंगे। लेकिन अगर जीवन की बात करें तो दुनियाँ का सबसे मुश्किल काम है— जीना । अगर कभी किसी की तबियत ख़राब हो जाये या उसे चोट लग जाये तो कई बार लाखों-करोड़ों रूपये, अनेक अच्छे चिकित्सकों की पूरी टीम तथा तमाम आधुनिक तकनीकि पर आधारित यंत्र मिलकर भी उस व्यक्ति को मरने से नहीं बचा पाते हैं।
जीवन में हमेशा आगे बढ़ने के लिए, ख़ुद को उर्जान्वित करने के लिए, कुछ नया और रोचक सीखने के लिए, अपनी आशावादिता को और अधिक चमकाने के लिए, मनुष्य को निराश होना चाहिए।
लेकिन हमेशा याद रहे कि अगर निराश हो ही गये हैं (जो कि स्वाभाविक रूप से होने वाली क्रिया है आप इसे रोक नहीं सकते हैं) तो अपनी निराशा का इस्तेमाल उपर्युक्त अच्छे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करें न कि मरने के लिए। अगर कोई इन्सान निराशा के कारण आत्महत्या करता है तो मैं कहूँगा उसने अपनी कायरता को निराशा के पीछे छुपाने की कोशिश की है— वो निराश नहीं कायर है, क्योंकि निराशा तो उम्मीदों के नये रास्ते खोलती है और कायरता उन सभी रास्तों को रोककर खड़ी होती है जिनसे आपका नया जीवन आप तक पहुँचने वाला होता है।
जीवन की कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी अपने आराध्य पर भरोसा रखना ही उस स्थिति से निकलने का सबसे उत्तम रास्ता है। कहते हैं कि हमारे अन्दर ही ईश्वर है तो इस हिसाब से आपका जितना ज्यादा विश्वास ईश्वर के प्रति दृढ़ होगा उतना ही ज्यादा आप अपने पर विश्वास कर पायेंगे, अर्थात्— आत्मविश्वास। अगर आत्मविश्वास है तो फिर ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हमारे पास तोड़ न हो। किसी व्यक्ति ने बहुत अच्छी बात कही है कि “ईश्वर कभी गलती नहीं करता, उसने आपको बनाया है तो वह आपका पूरा ख़याल भी रखता है। वह वही करता है जो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ हो।”
उपर्युक्त सब बातों के सारांश में मैं ये कहना चाहूँगा कि, मुस्कुराइये, जीवन का आनन्द लीजिये, आत्मविश्वास मजबूत रखिये साथ-ही-साथ परेशान भी रहिये, चिंता भी करिए, निराशा आये तो उसे भी स्वीकार करिये ये सभी मनुष्य के साथ होने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है इन्हें रोक नहीं सकते और न ही हमें इनको रोकने में अपना समय ही व्यर्थ करना चाहिये। हमें कारणों से अधिक निवारणों के विषय में सोचना चाहिए और अपने साथ होने वाली सभी नकारात्मक गतिविधियों का सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।
Wish you all the Best
- कुमार आशीष
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कोई जान बूझकर निराश नहीं होता.. उसके आसपास की घटनाएं उसे प्रेरित करती हैं। आवश्यक ये है कि उन घटनाओं के प्रभाव को कम कर अपने को आशान्वित रखा जाए। यही इंसान की विजय का मूल मंत्र है।
ReplyDeleteनिराशा किसी ढहती हुई दीवार की तरह है जिसे अगर रोकने का प्रयास किया गया तो संभव है कि न रुके और यदि रुके भी तो कमजोर ही रहे इससे अच्छा है जो ऊर्जा हम उसे रोकने में लगायेंगे उसे आसपस के सामान हटाने में लगाएं और दीवार गिरने के बाद नयी दीवार उठाने के विषय में विचार करना चाहिए इससे उसी उर्जा में हमारे पास एक मजबूत दीवार होगी जो ज्यादा दिन चलेगी
Deleteजानबूझ कर निराश होना नहीं चाहिए
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