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Saturday, November 23, 2019

बचपन की यादें और हमारा प्रोटेस्ट (कृषि विज्ञान विशेष)

चित्र : गूगल से साभार
मैंने अपने विद्यालयी शिक्षा के दौरान आठवीं तक कृषि-विज्ञान पढ़ा है। उस समय जो मेरे कृषि-विज्ञान के अध्यापक थे उनका खुद कृषि-कार्यों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। पढ़ाने का तरीका उनका बहुत बढ़िया था तो पाठ पढ़कर प्रश्नोंत्तर लिखवा दिया करते थे और हम लोग रट्टा मारकर परीक्षा में लिख आते थे। उनकी आदत थी कि कक्षा में पढ़ाते समय कई बार कृषि-विज्ञान से हटकर जीवन की गम्भीरता और नैतिक शिक्षा पर हमारा ज्ञानवर्धन किया करते थे, ये आजीवन हमारे बहुत काम आयेगा।

जब मैं सातवीं कक्षा में था तो परीक्षा के दौरान प्रक्टिकल भी होना था। जिसमें गृह-विज्ञान पढ़ने वाली छात्राओं को विभिन्न व्यंजन बनाकर खिलाने थे और हम लोगों को कृषि कार्य से सम्बन्धित कुछ बनाकर लाना था, जैसे:- रस्सी, डलिया आदि।

जिस दिन प्रक्टिकल था उस दिन लड़कियों ने बढ़िया-बढ़िया व्यंजन विद्यालय में बनाये और गुरूजी लोगों के खाने के बाद जो बचा वो प्रसाद हम लोगों ने छककर उड़ाया। उसके बाद कृषि-विज्ञान वाले शिक्षक ने हम लोगों से पूछा ‘क्या लाये हो?’ तो हम मुँह बनाकर खड़े हो गये। सब लड़के गृह-विज्ञान के प्रक्टिकल में बने समोसा, कचौड़ी, टिक्की, पानी-बताशा आदि से पेट भरकर और हाथ से खाली थे। गुरूजी को गुस्सा भी लगी और समोसा की डकार आयी तो उन्हें कुछ अपमान भी महसूस हुआ कि गृह-विज्ञान वाली मैडम जी अब उन्हें नीचा दिखा सकती हैं क्योंकि उनकी लड़कियों ने इतना कुछ बनाकर खिलाया और गुरूजी के लड़के सब एक लाइन से नालायक और निकम्मे निकल गये। गुरुदेव को काफ़ी गुस्सा लगी तो उन्होंने अपने आशीर्वचनों से हमें कुछ सम्मानित किया, अब गुस्सा होने की बारी हमारी थी। मैं क्लास का मॉनीटर था तो मैंने ही सबका प्रतिनिधित्व करते हुए गुरूजी से कहा कि “जब हमें यहाँ विद्यालय में कुछ बनाने को सिखाया नहीं गया तो हम कैसे बना दें?” मेरी आवाज़ में गुस्सा और आत्मविश्वास एक साथ था क्योंकि मेरे लिए कृषि से सम्बंधित कुछ बनाकर लाना बिलकुल ‘आउट ऑफ़ स्लेबस’ जैसा ही था। सब लड़कों ने भी कुछ बुदबुदाकर मेरा समर्थन कर दिया।

हमारे इस तरह के “प्रोटेस्ट” के बाद गुरूजी ने समोसा खाकर बनाई गयी पूरी ऊर्जा के साथ सबको एक लाइन से 5-5 दण्डे का प्रसाद वितरित किया और आदेश दिया कि अगर कल तक आप लोगों ने कुछ बनाकर विद्यालय में जमा नहीं करवाया तो सब फेल कर दिये जाओगे। यूँ तो ये धमकियाँ हमको इतनी बार मिली थी कि हमें “फेल होने से डर नहीं लगता साहब! दण्डे से लगता है...” हम अपनी चोट में समोसा की चटनी का स्वाद भूल चुके थे और हमारा प्रोटेस्ट शुरू होने से पहले ही कुचल दिया गया। उस समय न ये बातें अख़बार में आ सकती थीं, न मिडिया इसे दिखाता, न इसके पक्ष/विपक्ष में चर्चा करने के लिए फेसबुकिया विद्वान थे। यहाँ तक की हम अपनी शिकायत प्रधानाचार्य जी से भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि हमें लगता था कि अध्यापकों का एक गुट होता है जो सिर्फ हमें मारने के लिए विद्यालय आता है और प्रधानाचार्य जी तो उसके सरदार हैं उन तक गये तो प्रसाद की मात्रा अधिक भी हो सकती है।

हमारे अभिभावक स्कूल और ट्यूशन के अध्यापकों पर इतना भरोसा करते थे कि कभी हमारे दण्डित होने पर शिकायत लेकर विद्यालय नहीं गये। अब तो लोग खुद विद्यालय पहुँच जाते हैं कि हमारे बच्चों को क्यों मारा, तब ऐसा नहीं होता था। उल्टा अगर पापा को गुस्सा लगती थी तो वो मारने का काम अध्यापाकों को सौंप देते थे। एक अध्यापक जिन्होंने मुझे 4 वर्ष की उम्र से 13 वर्ष की उम्र तक लगातार घर आकर ट्यूशन पढ़ाया वो ये काम बखूबी करते थे। उन्होंने ही ABCD भी सिखाई, ‘अ’ से अनार, ‘आ’ से आशीष भी सिखाया और पीटाई भी मन-भर करते थे।

अब फिर से अपनी बात पर आते हैं, हुआ ये कि लड़कियों द्वारा बनाये गये ‘समोसा’ और गुरूजी द्वारा मिली ‘मार’ खाकर हम शाम को विद्यालय से घर पहुँचे और बता दिया कि कल से हम पढ़ने नहीं जायेंगे हमारा नाम अलग लिखवा दो। पूछा गया क्या हुआ तो सब घटना सविस्तार वर्णन कर दिये। हमारे गाँव के एक दादा थे जो लगभग 20 वर्षों से हमारे घर पर काम करते थे। ट्रैक्टर चलाना, भैंस-गाय खिलाना, खेती आदि की सब व्यवस्था वही देखते थे और मेरे बाबा जी (ग्रैंडफादर) जो कि रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर थे वो खेती के कार्यों में दादा की सलाह ऐसे मानते थे जैसे उनके उच्च अधिकारी का आदेश हो। हमने दादा से कहकर एक बहुत बढ़िया रस्सी बनवाई। उन दिनों पेटुआ खेत में बोया जाता था फिर उसे तालाब में डुबाकर रखते थे कुछ समय बाद निकालकर उससे सन तैयार किया जाता था और फिर उसकी रस्सी बनती थी। जब रस्सी तैयार हो गयी तो फिर मैंने अपनी क्रियटीविटी दिखानी शुरू की। पास की दुकान से अलग-अलग कलर लेकर आये चवन्नी वाला फिर उसे पानी में खोलकर उसी में रस्सी को कलरफुल बनाया और रात भर सुखाने के बाद अगली सुबह विद्यालय में पेश किया। उस रस्सी की खूब तारीफ हुई, और पूरे विद्यालय में सबको दिखाई गयी। गुरूजी ने सबको बताया कि एक लड़के ने पहली बार रस्सी बनाई और इतनी बढ़िया रस्सी तैयार हुई है। उन्हें क्या पता कि लड़के के दादा ने रस्सी तैयार की है जिनके पूरे जीवन की हर बरसात रस्सी बनाने में बीतती थी। खैर, ये रहस्य आज उजागर हो गया। सब लड़के कोई रस्सी, कोई डलिया लेकर आये और गुरुदेव को समर्पित हुआ। कुछ डलिया विद्यालय में रखी गयी और कुछ गुरूजी अपने घर लेकर चले गये। अब गुरूजी भी खुश और बच्चे भी...
अतीत बड़ा लुभावना होता है चाहे उसमें कडुवाहट हो या मिठास...

- कुमार आशीष
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Saturday, November 16, 2019

बहुत याद आती है वो

चित्र : गूगल से साभार
हमारी जिंदगी में कितना कुछ अचानक हो जाता है न। जब हम मिले थे तब नहीं सोचा था कि कभी बात करेंगे, जब बात किया तब नहीं सोंचा था कि दोस्ती होगी और फिर प्यार होगा, लेकिन ये सब हुआ। अगर पीछे मुड़कर देखें तो लगता है कि जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन वे ही थे जब हम एक-दूसरे के करीब आये। हम कितना खुश रहते थे, ऐसा लगता था अब किसी और चीज की जरूरत ही नहीं मानो जैसे जिंदगी पूर्ण हो गयी हो। लेकिन जिस तरह हमें अनचाही खुशियाँ मिलती हैं उसी तरह हमें कई बार अनचाहे दुःख भी मिलते हैं, जो आज हमारे साथ हो रहा है। इतना लंबा समय बीत गया और पता भी नहीं चला ऐसा लगता है जैसे नींद में थे अब उठे हैं तो हमारे संग-संग जीने के वो हसीन ख्वाब टूटकर बिखर गये हैं। काश! ऐसा ही होता जैसे हम कभी जब सोकर उठते हैं तो सपने में मिली उपलब्धियों के खोने का कोई दुःख नहीं होता बस याद करके मुस्कुराते हैं और जिंदगी के साथ दौड़ में शामिल हो जाते हैं, लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा है, आज इस ख्वाब के टूटने का बहुत दुःख है। जीवन में कई क्षण ऐसे आते हैं जब हमें आगे का रास्ता कदाचित् साफ़-साफ़ दिखायी नहीं पड़ता, ऐसे में हम अनुमान के सहारे आगे बढ़ते हैं। आज ऐसा ही एक क्षण है जब हम दोनों को अनुमान के सहारे आगे बढना है, क्योंकि हमारे प्रेम के बीच में रस्म-औ-रिवाज की एक बन्दिश है। आज अगर हम अपने ख्वाब पूरा करने की सोंचे तो बहुत सी आँखों के ख्वाब टूट जायेंगे, तो बहुत से चेहरों को उदास करने से अच्छा है हम ही अपना दुर्भाग्य समझ लें। आज एक दुनियाँ उजड़ रही है लेकिन कल को इसी खण्डहर पर अनेकों नव-निर्माण होंगे। अभी हमें चारों तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा दिखायी दे रहा है लेकिन ये भी है कि इस क्षितिज के उस पार कहीं कोई उजाले की किरण अवश्य होगी। ये सच है कि दुनियाँ की नज़रों में अब हमारा एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं लेकिन हम तो एक-दूसरे की आँखों में रहकर रोज मिलेंगे। इसलिये ध्यान रखना कि जब-जब मैं अपने प्यार के बारे में सोंचूँ या आईना देखूँ तो मेरा सर फक्र से उठा हो मैं नहीं चाहता तुम कोई ऐसा काम करो जिससे मुझे शर्मिंदगी हो और मैं भी वादा करता हूँ मैं कभी भी कुछ ऐसा नहीं करूँगा तो तुम्हें अच्छा न लगे। तुम चाहती थी कि मैं कविता लिखना न छोडूँ तो नहीं ठीक है नहीं छोडूँगा यही मेरा तुम्हें आखिरी उपहार है। हम हमेशा एक-दूसरे के दिल की धड़कन बनकर धड़कते रहेंगे इसी वादे के साथ अलविदा...

- कुमार आशीष
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Saturday, November 9, 2019

श्री जवाहर लाल नेहरु जी

चित्र : गूगल से साभार


स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी को आज़ादी और स्वतन्त्र भारत के विकास में उनके योगदानों के प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी का जन्म 14 नवंबर सन् 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता जी का नाम श्री मोतीलाल नेहरु था और माता जी का नाम श्रीमती स्वरूपरानी था। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी के पिता श्री मोतीलाल नेहरु जी इलाहाबाद के प्रसिद्ध वकील और धनाड्य व्यक्ति थे। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी की अध्ययन में रूचि होने से उन्हें अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। वो उच्च शिक्षा के लिए 1905 में विदेश चले गए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री हासिल की। अपनी शिक्षा पूरी करके सन् 1912 में वो भारत लौटे और वकालत शुरू की। 1916 में उनकी शादी कमला नेहरू से हुई। पण्डित नेहरु जी की सुपुत्री का नाम इंदिरा प्रियदर्शनी था। यही प्रियदर्शिनी आगे चलकर स्वतन्त्र भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनीं और अपने अदम्य साहस से बड़े-बड़े निर्णय लिए तथा 'लौह-महिला' श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

सन् 1917 में पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी 'होम रुल लीग'‎ में शामिल हो गये। राजनीति में उनकी असली दीक्षा दो साल बाद सन् 1919 में हुई जब वे महात्मा गाँधी जी के संपर्क में आये। उस समय महात्मा गाँधी जी ने ‘रॉलेट अधिनियम’ के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। पण्डित नेहरू जी, महात्मा गाँधी जी के सक्रिय लेकिन शान्तिपूर्ण, 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' के प्रति खासे आकर्षित हुए। दिसम्बर 1929 में, 'कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन' लाहौर में आयोजित किया गया, जिसमें पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने 'स्वतंत्र भारत का झंडा' फहराया। उसके बाद 15 अगस्त 1947 को उन्होंने देश के पहले प्रधानमन्त्री के रूप में लालकिले से तिरंगा फहराया और राष्ट्र को सम्बोधित किया। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उन्हें एक झंडे के नीचे लाना उस वक्त की सबसे बडी चुनौती थी। पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने 'योजना आयोग' का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभायी। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी ने 6 बार कांग्रेस अध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। सन् 1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में नेहरूजी 9 अगस्त 1942 को बंबई में गिरफ्तार हुए और अहमदनगर जेल में रहे, जहाँ से 15 जून 1945 को रिहा किये गये। नेहरू ने पंचशील का सिद्धांत प्रतिपादित किया और 1954 में 'भारतरत्न' से अलंकृत हुए नेहरूजी ने तटस्थ राष्ट्रों को संगठित किया और उनका नेतृत्व किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के कार्यकाल में लोकतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करना, राष्ट्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को स्थायी भाव प्रदान करना और योजनाओं के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू करना उनके मुख्य उद्देश्य रहे। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी के विषय में ‘मिसाइल मैन’ वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम सर ने अपनी आत्मकथा 'अग्नि-की-उड़ान' में लिखा है:- “भारत में रॉकेट विज्ञान के पुनर्जन्म का श्रेय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नई प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि को जाता है। उनके इस सपने को साकार बनाने की चुनौती प्रो. साराभाई ने ली थी। हालाँकि कुछ संकीर्ण दृष्टि के लोगों ने उस समय यह सवाल उठाया था कि हाल में आजाद हुए जिस भारत में लोगों को खिलाने के लिए नहीं है उस देश में अंतरिक्ष कार्यक्रमों की क्या प्रासंगिकता है। लेकिन न तो प्रधानमंत्री नेहरु और न ही प्रो. साराभाई में इस कार्यक्रम को लेकर कोई अस्पष्टता थी। उनकी दृष्टि बहुत साफ़ थी— ‘अगर भारत के लोगों को विश्व समुदाय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तो उन्हें नई-से-नई तकनीक का प्रयोग करना होगा, तभी जीवन में आने वाली समस्याएँ हल हो सकेंगी।’ इनके माध्यम से उनका अपने शक्ति प्रदर्शन का कोई इरादा नहीं था।”

जैसा कि लगभग हर नेता के जीवन में विवाद अक्सर जुड़े रहते हैं, ऐसे ही पण्डित नेहरु जी भी इससे बच नहीं पाये। पण्डित नेहरू जी को महात्मा गाँधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर जाना जाता है। गाँधी जी पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने राजनीति में नेहरू जी को आगे बढ़ाने का काम सरदार वल्लभभाई पटेल समेत कई सक्षम नेताओं की कीमत पर किया। जब आजादी के ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात थी और माना जा रहा था कि जो कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा वही आजाद भारत का पहला प्रधानमन्त्री होगा, तब भी गाँधी जी ने प्रदेश कांग्रेस समितियों की सिफारिशों को अनदेखा करते हुए नेहरू को ही अध्यक्ष बनाने की दिशा में सफलतापूर्वक प्रयास किया। इससे एक आम धारणा यह बनती है कि पण्डित नेहरू ने न सिर्फ महात्मा गाँधी जी के विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया होगा बल्कि उन्होंने उन कार्यों को भी पूरा करने की दिशा में अपनी पूरी कोशिश की होगी जिन्हें खुद गाँधी जी नहीं पूरा कर पाए। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। यह बात कोई और नहीं बल्कि कभी पण्डित नेहरू जी के साथ एक टीम के तौर पर काम करने वाले श्री जयप्रकाश नारायण ने 1978 में आई पुस्तक ‘गाँधी टूडे’ की भूमिका में कही थी। जेपी ने नेहरू के बारे में कुछ कहा है तो उसकी विश्वसनीयता को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि नेहरू से जेपी की नजदीकी भी थी और मित्रता भी। लेकिन इसके बावजूद जेपी ने 'नेहरू मॉडल' की खामियों को उजागर किया।

समस्त राजनीतिक विवादों से हटकर बात करें तो राजनीतिक क्षेत्र में लोकमान्य तिलक के बाद सक्रीय रूप से लिखने वाले नेताओं में नेहरु जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नेहरू जी ने व्यवस्थित रूप से अनेक पुस्तकों की रचना की है। राजनीतिक जीवन के व्यस्ततम संघर्षपूर्ण दिनचर्या के चलते उन्हें लेखन का समय बहुत कम मिल पाता था, इसका हल उन्होंने यह निकाला कि वो अपने जेल के लम्बे दिनों को लेखन में बिताने लगे। उन्होंने अपनी अधिकाँश पुस्तकों की रचना जेल में ही की है। एक लेखक के रूप में उनमें एक साहित्यकार के साथ एक भाव प्रधान व्यक्ति भी दिखाई देता है। इसके साथ ही उन्हें ऐतिहासिक खोजी लेखक की तरह भी देखा जा सकता है। पण्डित नेहरु जी अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को पत्र लिखा करते थे, ये पत्र वास्तव में कभी भेजे नहीं गये। परन्तु इससे विश्व इतिहास की झलक जैसा सुसंबद्ध ग्रंथ तैयार हो गया। 'भारत की खोज' (डिस्कवरी ऑफ इण्डिया) की लोकप्रियता के चलते उस पर आधारित 'भारत एक खोज' नाम से एक धारावाहिक भी बनाया गया था। उनकी आत्मकथा 'मेरी कहानी' के बारे में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का मानना है कि उनकी आत्मकथा, जिसमें जीवन और संघर्ष की कहानी बयान की गयी है, हमारे युग की सबसे अधिक उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें की सूची इस प्रकार है:-
  1. पिता के पत्र : पुत्री के नाम - 1929
  2. विश्व इतिहास की झलक - 1933
  3. मेरी कहानी - 1936
  4. भारत की खोज/हिन्दुस्तान की कहानी (दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया) - 1945
  5. राजनीति से दूर
  6. इतिहास के महापुरुष
  7. राष्ट्रपिता
  8. जवाहरलाल नेहरू वाङ्मय (11 खंडों में)
चार बार पण्डित नेहरू जी की हत्या का प्रयास किया गया था। पहली बार 1947 में विभाजन के दौरान, दूसरी बार 1955 में एक रिक्शा चालक ने, तीसरी बार 1956 और चौथी बार 1961 में मुंबई में। 27 मई, सन् 1964 को हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। भारतीय बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा नेहरू’ के रूप में जानते हैं। यही कारण है कि उनके जन्मदिवस को आज भी भारत में ‘बाल-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

- कुमार आशीष
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Saturday, November 2, 2019

सच्चे प्यार का सच्चा वादा

मुझे तुमसे अपने ह्रदय की बात कहना है,
मुझे तो ज़िन्दगी भर बस तुम्हारे साथ रहना है।
मेरा वादा नहीं है चाँद-तारे तोड़ लाने का,
मेरा वादा नहीं है उस फ़लक पर घर बनाने का।
मेरा वादा नहीं है कि तेरी हर बात मानूँगा,
न वादा है कि बिन कहे हर बात जानूँगा।
परेशानी में अक्सर ही तुम्हें रुशवा करूँगा मैं,
तेरी छोटी सी गलती पर बहुत गुस्सा करूँगा मैं।
मेरा वादा नहीं है कि तुम्हें हर पल हँसाऊँगा,
मुझे तुम छोड़ मत जाना भले कितना रुलाऊँगा।
मैं जानता हूँ मैं तुम्हें ज्यादा सताता हूँ,
तुम्हें दिल की सभी बातें भी अक्सर कम बताता हूँ।
मेरा वादा है मैं अपनी सब कसमें निभाऊँगा,
तुझे पाने की खातिर मैं सभी रस्में निभाऊँगा।

तुम्हें सब देखकर बोलेंगे कि छप्पर में रहती हो,
तुम्हें ऐसा लगेगा जैसे कि महलों में बैठी हो।
तुम्हें गीतों में रचकर मंच से फिर गुनगुनाऊँगा,
तुम्हारे प्यार की बातें ज़माने को सुनाऊँगा।
तेरी साँसों के सँग दिल तक तेरे हर बार आऊँगा,
तुझसे मिलने को तेरे घर बनके मैं अखबार आऊँगा।

मेरी चाहत नहीं है चाँद से दीदार हो जाये,
मैं चूमूँ आसमां को कोई चमत्कार हो जाये।
मेरी चाहत है इतनी सी कुछ ऐसा यार हो जाये,
मेरी तरह तुमको भी मुझसे प्यार हो जाये।

देने को मैं तुम्हें बस चुटकी भर सिन्दूर दे दूँगा,
और उसके सँग जीवन भर का अपना नूर दे दूँगा।
तुम्हें गीतों में लिख-लिख कर बहुत अजान कर दूँगा,
और अपने दिल की दुनियाँ को तुम्हारे नाम कर दूँगा।
तुम्हें रोमाँचित करती सुबह और शाम दे दूँगा,
तुम्हें अपनी सफलतायें सभी अविराम दे दूँगा।

तुम्हें अपने जीवन का सबसे कीमती उपहार दे दूँगा,
तुम्हारे हिस्से में मैं अपनी माँ का प्यार दे दूँगा।
मेरा वादा है कि मैं सब वादे निभाऊँगा,
तुम्हें गीतों का ग़ज़लों का बड़ा संसार दे दूँगा।

- कुमार आशीष
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