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Sunday, December 16, 2018

क्या वो भी ख़्वाबों का आदी है



क्या वो भी ख़्वाबों का आदी है,
जिससे हुई तुम्हारी शादी है।
क्या उसकी बातें भी तुमको कुछ नया ख्वाब दिखलाती हैं
और फिर उन ख्वाबों को पूरा करना भी सिखलाती हैं
क्या वो भी अक्सर बातों का ढेर लगाता है,
और बातें करते-करते कोई अच्छा शेर सुनाता है।

क्या वो भी ऑफिस की बातों से रातें बोरिंग करता है,
क्या वो भी सिर्फ तुम्हारे पेन से अपनी साइन करता है।
क्या कभी तुम्हारे गालों पर वो ऑटोग्राफ बनाता है,
या तुम्हें मनाने की खातिर कोई फोटोग्राफ सजाता बनाता है।

जब वो ऑफिस के कामों में बहुत बिजी हो जाता है,
“कॉल यू लेटर” वाला मैसेज पास तुम्हारे आता है।
क्या उसका मोबाईल भी सौ-सौ मिसकालों से भरती हो,
जब शाम को वो घर आता है क्या उससे भी झगड़ा करती हो।

क्या उसके किये बहानों पर भी तुम्हें भरोसा होता है,
क्या जैसे मेरे संग होता था सबकुछ वैसा होता है।
दिन भर क्या-क्या किया आज क्या सबकुछ उसे बताती हो,
या “थके हुए हो सो जाओ” ये कहकर प्यार जताती हो।

क्या सर्दी में बाइक से घर आने पर उसका भी हाथ रगड़ती हो,
और फिर काली चाय पिलाने की खातिर कभी अकड़ती हो।
क्या उससे भी अपने बचपन वाली सब बातों को बता दिया,
जितना अधिकार जताती थी क्या सब उस पर भी जता दिया।

निभा रही हो तुम जिसके संग जीवन की सब रस्मों को,
क्या वो भी निभा रहा है अपने सब वादों, सब कसमों को।
क्या वो भी तुमसे कहता है, “विस्तार तुम्हारा अम्बर तक,
दुनियाँ क्या रोकेगी तुमको, इसकी औकात महज आडम्बर तक”

जिन आँखों के खालीपन में कुछ ख़्वाब सजाये थे मैंने,
जिन अधरों की मुस्कानों पर कुछ गीत बनाये थे मैंने।
जिन अभिलाषाओं के पूजन में मेरे दिन-रात कटा करते,
जिनकी प्यारी बातों से मन के सब दोष छटा करते।
क्या उन आँखों, उन अधरों पर मेरी छुअन अभी भी है,
क्या मुझको न पाने की खातिर कोई चुभन अभी भी है।

मैं नहीं तुम्हारा हो पाया, पर गीत मेरे सब तेरे हैं,
मेरा प्यार, दुआ मेरी, एहसास, शब्द जो मेरे हैं,
सब तुम्हें समर्पित करता हूँ, तुम रखना अब इन्हें सम्भाल,
जीवन हँसकर जी लेना, आगे बढ़ना, करना कमाल।

मेरा क्या है, मैं तो शायर हूँ, ख़्वाबों के संग जी लूँगा,
जीवन मंथन के विष को मैं महादेव बन पी लूँगा।
मैं बस्ती-बस्ती, द्वारे-द्वारे अपना गीत सुनाऊँगा,
कभी किया था जो मोहन ने वो सबको प्रेम सिखाऊँगा।

- कुमार आशीष
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Thursday, December 6, 2018

अपग्रेडेड-इंसान

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सेवा में
परमपिता परमेश्वर जी
(बैकुण्ठ-धाम)

विषय : पृथ्वी पर हो रहे नये-नये खोज के हिसाब से मनुष्य को अपग्रेड करने के सम्बन्ध में प्रार्थना-पत्र


हे सर्वशक्तिमान्!
  पृथ्वी पर सब कुशल-मंगल है, बस आपकी सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ स्वयं को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए आपस में लड़ती रहतीं हैं। खैर, ये पत्र मैं आपसे किसी और काम के लिए एक विशेष निवेदन के तौर पर लिख रहा हूँ, जो कि आप विषय पढ़कर समझ गये होंगे।

प्रभु! बात ऐसी है कि आपने जिन मानवों को पृथ्वी पर भेजा था उन सबने बहुत तरक्की कर ली है। अभी भी नित-नए खोज में जुटे रहते हैं, जो कि अच्छा भी है। परन्तु कहते हैं न ‘विकास’ और ‘विनाश’ साथ-साथ चलते हैं, वही अब यहाँ हो रहा है। जैसे:- जिस तरह आप त्रेयायुग में कहीं से भी बैठकर कहीं किसी से बात कर लेते थे वैसे ही यहाँ भी अब सुविधा हो गयी है। इस सुविधा की शुरुआत पहले तो निम्न स्तर पर थी लेकिन अब बहुत सुलभ और सस्ती हो गयी है। रोज नए-नए अपडेट करते-करते आजकल ये सुविधा स्मार्टफोन का रूप ले चुकी है। इसके अलावा हर क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का प्रमुख सहयोगी अब कम्यूटर है। इस समय पृथ्वी पर ऐसा कोई विभाग शायद ही बचा हो जिसमें कम्यूटर का दखल न हो। कम्यूटर की तरह एक लैपटॉप भी आता है जिसने काम और आसान कर रखा है। अब दिक्कत ये है प्रभु! कि हम लोगों का काम इन सब चीजों के बिना तो चल नहीं सकता है अतः हम इसे त्याग नहीं सकते और इसके लगातार इस्तेमाल से हमें अनेकों प्रकार के रोग हो रहे हैं। जैसे स्मार्टफ़ोन/लैपटॉप की स्क्रीन से निकलने वाली किरण हमारे आँखों पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं। इन्टरनेट के माध्यम से सब जानकारी इतनी सुलभ है कि हमें याद रखना जरूरी नहीं लगता, इसके चलते हमारी स्मरण शक्ति कमजोर होती जा रही है। विभिन्न प्रकार के उत्पादों के निर्माण में फैक्ट्री से निकलने वाला धुआँ अनेकों बीमारियों का कारण बन रहा है। ऐसे अन्य तमाम प्रकार की परेशानियाँ यहाँ हो रहीं हैं।

उपर्युक्त स्थिति को देखते हुए मेरा निवेदन है कि अगर समय हो तो एक बार आप ही चक्कर मार लें या फिर नारद जी को भेजकर पृथ्वी की यथास्थिति का सर्वेक्षण करवा लें। अगर नारदजी आ जायें तो उन्हें हम एक फ़ोन भी दें देंगे तथा उसी में विडियो बनाकर भेज देंगे जिससे आप स्वयं देखकर पूर्ण रूप से परेशानी का आंकलन कर लेंगे। इसके बाद अब जरूरत है कि आप भी पृथ्वी से कुछ सीख लेकर अपनी फैक्ट्री में कुछ बदलाव करें, नई तकनीकि का इस्तेमाल वहाँ भी शुरू करें।

मैं देख रहा हूँ कि आदिमानव के समय से आज तक धरती पर पैदा होने वाले सभी मनुष्यों में दो-हाथ, दो-पैर, चलना-फिरना, बोलना-सुनना, देखना-समझना आदि जो फीचर्स थे वही अब भी हैं। अब वक़्त आ गया है कि समय की माँग को देखते हुए आप भी “अपग्रेडेड-इंसान” प्रोड्यूज करना शुरू कर दें। इसके लिए पूरी एक टीम को आप काम पर लगायें जो सबसे पहले ये रिचर्स करे कि बदलाव क्या -क्या करने हैं? उसके बाद कैसे करने हैं उस पर काम करे। जैसे:- मोबाइल/कम्प्यूटर से होने वाले नुकसान के लिए आँखों के सॉफ्टवेर को अपग्रेड किया जाए, या कोई ऐसा एन्टीवायरस पहले से इंस्टाल कर दिया जाये जो किरण रूपी वायरस को बे-असर कर सके।

पृथ्वी पर ही बसे एक शहर न्यूयॉर्क के स्पाइन सर्जरी एंड रिहैबिलिटेशन हॉस्पिटल के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोध में सामने आया है कि मैसेज पढऩे के लिए सिर आगे की ओर जितना अधिक गर्दन झुकाते हैं, उस पर उतना ज्य़ादा भार पड़ता है। गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर पडऩे वाला यह दबाव 4 से 27 किलोग्राम तक होता है। यानी जब हम मोबाइल फोन पर कोई मैसेज देखने के लिए 60 डिग्री एंगल पर गर्दन झुकाते हैं तो गर्दन और रीढ़ की हड्डी पर इतना दबाव पड़ता है कि जैसे कि हमारी गर्दन पर सात साल का बच्चा बैठा हो। अब इसके हिसाब से जरूरत है कि आप रीढ़ की हड्डी बनाने के लिए जो रॉ-मटेरियल इस्तेमाल कर रहे हैं उसमें तब्दीली की जाये। इसी तरह से और भी कई समस्याएँ हैं जिनका निराकरण आवश्यक है। हालाँकि इनके कुछ-कुछ हल हमारी पृथ्वी पर भी वैज्ञानिकों ने ढूँढ लिए हैं जैसे, आँख कमजोर हो जाये तो चश्मा पहनो या लेंस इस्तेमाल करो। परन्तु यदि वहाँ से ही इंसानों को अपग्रेड करके भेजेंगे तो यहाँ चश्मा पहने का झंझट नहीं रहेगा। ये सब तो वो बातें हुईं जो हार्डवेयर से जुड़ी हैं। अब कुछ सॉफ्टवेर सम्बन्धी भी समस्याएँ हैं:-

सॉफ्टवेर से सम्बन्धित जो पहली समस्या है वो मोबाइल से जुड़ी है। देर रात तक मोबाइल के इस्तेमाल से अनिद्रा की शिकायत बढ़ती जा रही है। वैज्ञानिकों का कहना है हमारे दिमाग में एक घड़ी जैसी कोई ग्रंथि है जो हमें दिन-रात के हिसाब से सुलाने और जगाने का काम करती है। जब हम देर रात तक मोबाइल में लगे रहते हैं तो वो घड़ी अपना काम ठीक से नहीं कर पाती है जिससे हमारे सोने-जागने का समय बदल जाता है। ऐसे में हमारी नींद नहीं पूरी हो पाती फिर गाड़ी चलाते हुए या ऑफिस में काम करते हुए सोने का खतरा बना रहता है। ऑफिस में सोये तो नौकरी गयी, गाड़ी चलाते हुए सोये तो ज़िन्दगी। अर्थात् ये भी भीषण समस्या है। इसके लिए आप घड़ी को नए सॉफ्टवेर से अपडेट करिये जिससे हम उसमें अपने हिसाब से सोने और जागने का अलार्म सेट कर सकें। 

दूसरी समस्या है तनाव। यहाँ पैदा होते टाइम कौन ज्यादा रोया से लेकर मरते टाइम कौन कैसा था तक तगड़ा कम्पटीशन है प्रभु! इसी क्रम में, पढ़ाई में नम्बर, पार्टी में पैसा, ऑफिस में पोजीशन, सोसायटी में पावर सब जगह होड़ मची है। कहीं जरा-सी असफलता मिली तो हो गया तनाव। नम्बर कम आये-तनाव, पड़ोसी का लड़का पास हो जाये-तनाव, उसको प्रोमोशन मिल गया-तनाव, लड़की ने न कह दिया-तनाव। ऐसे ही पूरी ज़िन्दगी में हम सबसे ज्यादा कुछ कमाते हैं तो वो है-तनाव। इस स्थिति में सबसे बड़ी जरूरत है कि दिमाग में ‘क्लीन’ वाला और ‘फॉर्मेट’ वाला सिस्टम जोड़ा जाये। जिससे हम उस पल को, उस घटना को दिमाग से डिलीट कर सकें जो हमें तनाव दे सकता है। साथ ही फाइल मेनेजर जैसी सुविधाएँ जोड़ी जायें, ताकि जब हम कभी निराश होने लगें तो मोटिवेशन वाला फोल्डर जल्दी से ढूँढ सकें।

अब हमारी पृथ्वी हमारे रहने के तरीके में बहुत बदलाव आ गया है। मनुष्य यूँ तो किताबों में अभी भी सामाजिक प्राणी ही है, लेकिन कोई किसी के सुख-दुःख में भागीदार बनकर अपना समय जाया नहीं करना चाहता है। आधुनिकता की दौड़ में मनुष्यता लगभग मर चुकी है या कोमा में है। जानवरों में अभी कुछ एकता देखने को मिल जाती है लेकिन प्रभु! वो तो जानवर हैं उन्हें समय के महत्व क्या पता? हम लोग अब प्राचीन सभ्यता के नाम पर पूजा-पाठ करना, यज्ञ इत्यादि करना जिससे वातावरण शुद्ध हो, इन सब ढकोसलों में भरोसा नहीं रखते। हालाँकि कुछ लोग हैं जो अभी भी ऐसा करते हैं पर वो सब गँवार, अनपढ़ और बेवकूफ हैं। पढ़े-लिखे होकर के हम पूजा करने बैठ जायें ऐसे में कोई दोस्त या रिश्तेदार घर आ जाये तो क्या इज्ज़त रह जायेगी हमारी? समाज में पता चल जाये कि दूबे जी का लड़का पढ़ा लिखा होकर रोज माला जपने बैठ जाता है तब तो नाक कट जायेगी। लोग कहेंगे बाप ने मेहनत से पैसा कमाया, लड़के को पढ़ाया-लिखाया लेकिन लड़का नालायक निकला। अभी भी पूजा-पाठ में समय नष्ट कर रहा है। कुछ ऐसे भी लोग हैं जो अध्यात्म को जीवित रखने के लिये आधुनिक तकनीकि का खूब सहारा ले रहे हैं। ऐसे लोग मनोकामना आदि पूरा करने के लिए 108 बार ॐ लिखे मैसेज को 51 लोगों को फॉरवर्ड करवाकर लोगों की मदद कर रहे हैं। इसमें सबसे अच्छी बात ये है कि आप किसी भी जगह बैठकर ये मैसेज फॉरवर्ड कर सकते हैं, इसमें स्नानादि कोई पंगा नहीं है, न ही खाने-पीने को लेकर किसी विशेष नियम का पालन करना होता है।

पृथ्वी पर रहने के लिए आपके पास जिस एक चीज की सबसे ज्यादा आवश्यकता है, वो है—पैसा। जब आपको पुनः पृथ्वी पर आना होगा तो वन जाने का प्लान लेकर मत आना क्योंकि जिस तरह से हम तरक्की कर रहे हैं आने वाले कुछ दिनों में पृथ्वी पर वन तो क्या बगीचा नहीं बचेगा। यदि फिर भी कहीं जाना ही पड़े तो पैसा साथ लेकर जाइयेगा। अगर आपके पास पैसा नहीं रहेगा तो कोई पानी नहीं पूछेगा, उल्टा आपको लोग चोर या डाकू समझ सकते हैं।

खैर, ऐसी बहुत-सी बातें हैं जो आपको बतानी हैं लेकिन फिर कभी। अब बंद कर कर रहे हैं एक दूसरी चिट्ठी वेटिंग में आ रही है। लेकिन हे दयासिन्धु! मैंने जो निवेदन किया है उसके हिसाब से आप सर्वे करवा लीजियेगा। इन बदलावों के बिना मनुष्य का पृथ्वी पर जीना दुर्लभ हो रहा है। अगर मनुष्य ही नहीं रहेगा तो आपने जो सृष्टि बसाई है वो उजड़ जायेगी। आशा है आप परिस्थिति की गम्भीरता को देखते हुए जल्द ही “अपग्रेडेड-इंसान” बनाने का काम शुरू करेंगे।
सधन्यवाद!

आपका बनाया हुआ 
पृथ्वी का एक जिम्मेदार वासी

- कुमार आशीष
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Sunday, December 2, 2018

चलो निराश होते हैं

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ये कितनी अजीब बात है कि कोई भी इंसान निराश होने के लिए तैयार नहीं है। जबकि वो ये जानता है कि कभी-न-कभी उसे भी निराश तो होना ही पड़ेगा, क्योंकि सृष्टि में भगवान् को छोड़कर कोई ऐसा नहीं है जिसने पराजय का स्वाद न चखा हो। मैंने स्वयं के अनुभवों से ये सीखा है कि निराश होना कोई बुरी बात नहीं है, बुरी बात ये है कि आप आवश्यकता से अधिक समय तक निराशा के अन्धकार में रहते हैं। ये बात ठीक उसी तरह है जैसे रात चाहे जितनी भी काली क्यों न हो अपने आयु भर ही रहती है, उसके बाद सूरज का उज्ज्वल प्रकाश अपनी आभा से पृथ्वी को उर्जान्वित और आनंदित करता ही है। ठीक इसी तरह निराशा के भी अपने प्रभाव हैं, कुछ अच्छे और कुछ बुरे। सबसे अद्भुत बात ये है कि ‘निराशा’ शब्द ही अपने आप में एक नकारात्मकता समेटे हुए है। कभी-भी कुछ होता है तो सब एक ही बात कहते हैं ‘निराश मत होना।’ मैं पूँछता हूँ क्यों भई, ऐसी क्या बुराई है निराश होने में...?

मुझे ऐसा लगता है कि ‘निराश होना या न होना ये हमारे वश में नहीं है।’ जब हम किसी काम को मेहनत से, ईमानदारी से करते हैं तथा इसके बावजूद भी हमें सफ़लता नहीं मिलती है तो हम पर ‘निराशा’ हावी हो ही जाती है। इस परिस्थिति में हम अपने जीवन में सीखे गये वो सभी वाक्य भूल जाते हैं तो हमें सकारात्मकता दे सकते हैं। शायद इसी क्षण के लिए किताबें हैं, गुरुदेव हैं और कोई अच्छा मित्र है। आप इनमें से किसी की शरण में चले जायें तो आपकी समस्या हल हो जायेगी।

निराश होने के नुकसान (मानसिक, भौतिक और शारीरिक रूप से) खूब हैं और आप उन्हें जानते भी होंगे। परन्तु निराश होने में एक विशेष फायदा भी है और वो ये है कि आप स्वयं को अपनी गलती पर ‘निराशा’ का दण्ड देते हैं। जिससे आप भविष्य के लिए अनुशासित रहते हैं। आप स्वयं को निराशा की स्थिति से निकालने के लिए किसी अच्छे दोस्त से बात करते हैं या अपने गुरु के सानिध्य में बैठते हैं या कोई अच्छी पुस्तक पढ़ते हैं। निराश होना मनुष्य का एक प्राकृतिक स्वाभाव है। जब भी कुछ मनुष्य के उम्मीदों से हटकर होता है तो वो तुरंत निराश हो जाता है। निराश होने में बुराई नहीं है बल्कि बुराई इस बात में है कि आप निराश होकर अपना तथा औरों का कितना नुकसान करते हैं? अधिकाँश लोग जब अवसाद में होते हैं तो वो दुनियाँ का सबसे आसान काम करने के लिए आगे बढ़ते हैं जो कि उस समय उन्हें सबसे मुश्किल लग रहा होता है— आत्महत्या। मेरे हिसाब से दुनियाँ का सबसे आसान कार्य है— मरना। अगर किसी को मरना है तो वो नस काट लेगा, रेलवे ट्रैक पर लेट जायेगा मतलब आपको सिर्फ कुछ मिनट के लिए ख़ुद को उस एक काम (जिसे आप मरने के लिए चुनते हैं) के लिए तैयार करना है बस, उसके बाद जो होना है वो ख़ुद ही होगा आप भी फिर कुछ नहीं कर पायेंगे। लेकिन अगर जीवन की बात करें तो दुनियाँ का सबसे मुश्किल काम है जीना  अगर कभी किसी की तबियत ख़राब हो जाये या उसे चोट लग जाये तो कई बार लाखों-करोड़ों रूपये, अनेक अच्छे चिकित्सकों की पूरी टीम तथा तमाम आधुनिक तकनीकि पर आधारित यंत्र मिलकर भी उस व्यक्ति को मरने से नहीं बचा पाते हैं।

जीवन में हमेशा आगे बढ़ने के लिए, ख़ुद को उर्जान्वित करने के लिए, कुछ नया और रोचक सीखने के लिए, अपनी आशावादिता को और अधिक चमकाने के लिए, मनुष्य को निराश होना चाहिए। 

लेकिन हमेशा याद रहे कि अगर निराश हो ही गये हैं (जो कि स्वाभाविक रूप से होने वाली क्रिया है आप इसे रोक नहीं सकते हैं) तो अपनी निराशा का इस्तेमाल उपर्युक्त अच्छे उद्देश्यों की पूर्ति के लिए करें न कि मरने के लिए। अगर कोई इन्सान निराशा के कारण आत्महत्या करता है तो मैं कहूँगा उसने अपनी कायरता को निराशा के पीछे छुपाने की कोशिश की है— वो निराश नहीं कायर है, क्योंकि निराशा तो उम्मीदों के नये रास्ते खोलती है और कायरता उन सभी रास्तों को रोककर खड़ी होती है जिनसे आपका नया जीवन आप तक पहुँचने वाला होता है।

जीवन की कठिन-से-कठिन परिस्थिति में भी अपने आराध्य पर भरोसा रखना ही उस स्थिति से निकलने का सबसे उत्तम रास्ता है। कहते हैं कि हमारे अन्दर ही ईश्वर है तो इस हिसाब से आपका जितना ज्यादा विश्वास ईश्वर के प्रति दृढ़ होगा उतना ही ज्यादा आप अपने पर विश्वास कर पायेंगे, अर्थात्— आत्मविश्वास। अगर आत्मविश्वास है तो फिर ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका हमारे पास तोड़ न हो। किसी व्यक्ति ने बहुत अच्छी बात कही है कि “ईश्वर कभी गलती नहीं करता, उसने आपको बनाया है तो वह आपका पूरा ख़याल भी रखता है। वह वही करता है जो आपके लिए सर्वश्रेष्ठ हो।”

उपर्युक्त सब बातों के सारांश में मैं ये कहना चाहूँगा कि, मुस्कुराइये, जीवन का आनन्द लीजिये, आत्मविश्वास मजबूत रखिये साथ-ही-साथ परेशान भी रहिये, चिंता भी करिए, निराशा आये तो उसे भी स्वीकार करिये ये सभी मनुष्य के साथ होने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है इन्हें रोक नहीं सकते और न ही हमें इनको रोकने में अपना समय ही व्यर्थ करना चाहिये। हमें कारणों से अधिक निवारणों के विषय में सोचना चाहिए और अपने साथ होने वाली सभी नकारात्मक गतिविधियों का सकारात्मक परिणाम प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।

Wish you all the Best


- कुमार आशीष
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Friday, November 30, 2018

अग्नि की उड़ान, सलाम मेरे कलाम

साभार इन्टरनेट

सबसे पहले मैं ये स्वीकार करना चाहूँगा कि ये लेख आपको थोड़ा-सा लंबा और मेरी भाषा-शैली की अयोग्यता के कारण कुछ अरुचिकर लग सकता है, परन्तु यदि आप इसे अन्त तक पढ़ते हैं तो निश्चित रूप से आप इस लेख को अत्यन्त उपयोगी और जानकारियों से भरा हुआ पायेंगे।

रोज की तरह मैं दिन भर के कामों से थककर रात के दस बजे अपने कमरे पर पहुँचा। खाना-खाने का मन नहीं था तो एक प्याली चाय लेकर चुस्कियाँ लेने लगा। मैंने महसूस किया कि पिछले 4-6 दिनों से मैं दिनभर व्यस्त भी रहता हूँ और कुछ ख़ास काम संपन्न होता नहीं दिख रहा है। चाय पीते हुए मैंने लैपटॉप पर एक ऐसी पीडीऍफ़ फाइल खोली जिसका नामकरण ठीक से नहीं हुआ था। मैं सिर्फ ये देखना चाह रहा था कि इसमें है क्या? पढ़ते-पढ़ते मैं पूरे 186 पृष्ठ पढ़ गया। पुस्तक और रात दोनों ख़त्म हो चुकी थी। मैं स्वयं को बहुत उर्जान्वित महसूस कर रहा था। मेरी सब परेशानियाँ ज्यों-की-त्यों होने के बावजूद भी मुझे परेशान नहीं कर पा रही थी। ऐसा लग रहा था सब ठीक हो चुका है, मैं सबकुछ पा चुका हूँ, एकदम शान्ति और सुकून का पल मेरी ज़िन्दगी में गुजर रहा है...
इस चमत्कारिक पुस्तक का नाम था WINGS OF FIRE अर्थात् ‘अग्नि की उड़ान’... जो कि देश के “मिसाइल-मैन” डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब द्वारा लिखित पहली पुस्तक थी। मैं उसे पढ़कर बहुत प्रफुल्लित था। ऐसा लग रहा था कि कलाम सर का पूरा जीवन किसी फिल्म की तरह मेरी आँखों के सामने गुजर रहा हो।

इस पुस्तक की हिन्दी प्रति खरीदने से के लिए यहाँ क्लिक करें और अंग्रेजी के लिए यहाँ क्लिक करें। इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फ्री डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें। अगर किसी लिंक से सम्बन्धित कोई समस्या है तो यहाँ क्लिक करके हमें सूचित करें या नीचे Comment Box में लिखकर बतायें।

इस पुस्तक ने मेरे मन से ये मिथ तोड़ दिया कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के विपरीत हैं। इस विषय पर उन्होंने लिखा है कि “मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ लोग विज्ञान को इस तरह से क्यों देखते हैं, जो व्यक्ति को ईश्वर से दूर ले जाए। जैसा कि मैंने इसमें देखा कि ह्रदय के माध्यम से ही हमेशा विज्ञान तक पहुँचा जा सकता है। मेरे लिए विज्ञान हमेशा आध्यात्मिक रूप से समृद्ध होने और आत्मज्ञान का रास्ता रहा।”

कलाम साहब का जन्म एक मुस्लिम परिवार में हुआ और उनका घर हिन्दुओं के सुप्रसिद्ध तीर्थस्थल श्रीरामेश्वरम् की मन्दिर से कुछ ही दूरी पर था। उनके पिता जैनुलाबदीन एक सज्जन एवं आडम्बरहीन व्यक्ति थे। कलाम साहब का बचपन अपने पिता तथा पिता के गहरे मित्र (जो कि रामेश्वरम् के सबसे बड़े पुजारी भी थे) पक्षी लक्ष्मण शास्त्री जी के सानिध्य में गुजरा। यही कारण रहा कि उनकी किताब में हमें कई बार प्रयोग की गयी उपमाएँ हिन्दू धर्म से संबंधित देखने को मिलती हैं। जैसे वे एक स्थान पर लिखते हैं कि “हर ठोस वस्तु के भीतर एक खाली स्थान होता है और हर स्थिर वस्तु के भीतर बड़ी हलचल होती रहती है। यह ठीक उसी तरह है जैसे हमारे जीवन के प्रत्येक क्षण में पृथ्वी पर भगवान् शिव का शाश्वत नृत्य हो रहा होता है।”

कलाम साहब ने अपने जीवन में अध्ययन, अनुभव और मार्गदर्शन से जो भी सीखा उसका प्रयोग बखूबी किया। कई बार हम कुछ बातें जानते हुए भी आचरण में नहीं ला पाते हैं, परन्तु उनके साथ ऐसा नहीं था। अपनी असफलताओं और संघर्षों के दिनों की बात बताते हुए वे लिखते हैं कि “विजयी होने के लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि विजयी होने की जरूरत नहीं है। जब आप भ्रमों से मुक्त एवं शांतचित्त होते हैं तभी किसी काम को पूरे बेहतर ढंग से कर पाते हैं। मैंने चीजों-घटनाओं को उसी तरह लेना शुरू कर दिया जैसे वे मेरे जीवन में आईं।”

इस पुस्तक को पढ़कर जो तमाम बातें सीखने वाली हैं, उनमें से मुझे सबसे अच्छी बात ये लगी कि हम युवा कई बार आधुनिकता के रेस में भागते हुए अपने आध्यात्मिक व्यक्तित्व को कहीं बहुत पीछे छोड़ देते हैं। हमें लगता है पूजा-पाठ करना हमारा काम नहीं है वो सब बुजुर्गों का काम है। परन्तु प्रार्थना की शक्ति बताते हुए कलाम साहब ने लिखा है कि “प्रार्थना का एक जो मुख्य काम है, जैसा कि मैं मानता हूँ, वह है मनुष्य के भीतर नए-नए विचार उत्पन्न करना। विचार सचेतावस्था में मौजूद रहते हैं और जब ये विचार उत्सर्जित होते हैं, निकलते हैं तो वास्तविकता जन्म लेती है तथा निष्कर्ष सफल घटनाओं के रूप में सामने आते हैं। ईश्वर, हमारे रचयिता, ने हमारे मस्तिष्क के भीतर अपार ऊर्जा एवं योग्यता दी है। प्रार्थना हमें इन शक्तियों को प्रयोग में लाने में मदद करती हैं।”

अब्दुल कलाम साहब एक उत्कृष्ठ नेतृत्वकर्ता भी थे। इसका एक अच्छा उदाहरण हमें उनकी पुस्तक में तब पढ़ने को मिलता है जब वो मिशन एस.एल.वी-3 की असफ़लता का जिक्र करते हैं। इस असफ़लता पर सब लोग एकमत थे कि किसी का कोई दोष नहीं है जो हुआ वो तकनीकि की समस्या थी। परन्तु इस बात से कलाम साहब सन्तुष्ट नहीं थे, वो स्वयं को जिम्मेदार मानकर एक बेचैनी महसूस कर रहे थे। उन्होंने अपनी पुस्तक में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, “मैं खड़ा हुआ और प्रो. धवन से बोला, 'सर, हालाँकि इस असफलता के लिए मेरे साथियों ने तकनीकी गड़बड़ी को दोषी ठहराया है, तो भी अंतिम चरण की उलटी गिनती के दौरान नाइट्रिक एसिड रिसाव को अनदेखा करने की जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूँ। अन्य देशों में ऐसी स्थिति में मिशन डायरेक्टर को अपने काम से हाथ धोना पड़ जाता है। इसलिए एस.एल.वी-3 की असफ़लता का जिम्मा मैं अपने ऊपर लेता हूँ।' थोड़े समय के लिए पूरे हाल में सन्नाटा छा गया। प्रो. धवन खड़े हुए और बोले, ‘मुझे कलाम को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करके ही छोड़ना है।’ यह कहते हुए वह उठे और बैठक ख़त्म करने का संकेत देते हुए बाहर चले गए।”

वे जब भी असफ़ल होते थे तो इतिहास से कोई और असफ़लता का उदाहरण अपने सामने रखकर ख़ुद को पुनः सक्रीय कर लेते थे। एस.एल.वी-3 की असफ़लता से निराश होने पर उन्होंने लिखा है कि “विज्ञान के लक्ष्य हमें बड़ी ख़ुशी तो देते ही हैं, साथ ही दुःख, तकलीफ एवं ह्रदय-विदारक क्षण भी हमारे सामने आते हैं। मेरे मस्तिष्क में ऐसी कई घटनाएँ दर्ज हैं। जॉन केपलर को सूर्य के चारों ओर ग्रहों की गति के बारे में दो नियम बनाने के बाद तीसरा नियम प्रतिपादित करने में करीब सत्रह साल लग गए थे। इस दौरान उसे न जाने कितनी बार असफ़लताओं का सामना करना पड़ा होगा। मानव का चन्द्रमा पर कदम रखने का विचार सर्वप्रथम रूस के गणितज्ञ कोंस्तेतिन तिस्लोकोस्की ने दिया था, जो कि चार दशक बाद साकार हो पाया और वह भी अमेरिकनों के हाथों। प्रो. चन्द्रशेखर को अपनी खोज 'चंद्रशेखर लिमिट' के बाद नोबल पुरस्कार के लिए पचास साल इंतज़ार करना पड़ा। सन् 1930 के दशक में कैम्बिज विश्वविद्यालय में जब उन्होंने स्नातक किया था, तभी यह खोज कर ली थी। अगर उसी समय उनकी खोज को मान्यता दे दी जाती तो 'ब्लैक होल' की खोज कई दशक पहले ही सामने आ जाती। झटकों से उबरने के लिए मुझे इन सब विचारों ने काफी मदद की।”

सन् 1962 में कलाम साहब इसरो पहुँचे, इन्हीं के प्रोजेक्ट डायरेक्टर रहते भारत ने अपना पहला स्वदेशी उपग्रह प्रक्षेपण यान एस.एल.वी.-3 बनाया। सन् 1980 में रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा के समीप स्थापित किया गया और भारत अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष क्लब (International Space Club) का सदस्य बन गया। वो कलाम साहब ही थे जिनके डायरेक्शन में देश को पहली स्वदेशी मिसाइल मिली। कलाम साहब के नेतृत्व में पृथ्वी, त्रिशूल, आकाश और नाग नाम के मिसाइल बनाए गए। इसके बाद सन् 1998 में रूस के साथ मिलकर भारत ने सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल बनाने पर काम शुरू किया और ‘ब्रह्मोस प्राइवेट लिमिटेड’ की स्थापना की गई। ब्रह्मोस धरती, आकाश और समुद्र कहीं भी दागी जा सकती है। कलाम साहब को बैलेस्टिक मिसाइल और प्रक्षेपण यान प्रौद्योगिकी के विकास के कार्यों के चलते “मिसाइल मैन” के रूप में प्रसिद्धि मिली। जुलाई 1992 में वे भारतीय रक्षा मंत्रालय में वैज्ञानिक सलाहकार नियुक्त हुये। उनकी देख-रेख में भारत ने सन् 1998 में पोखरण में अपना दूसरा सफल परमाणु परीक्षण किया और परमाणु शक्ति से संपन्न राष्ट्रों की सूची में शामिल हुआ। (इससे पहले 1974 में भारत ने अपना मूल परमाणु परीक्षण किया था।)

अब्दुल कलाम साहब पर उनकी उपलब्धियाँ कभी हावी नहीं हो पायीं। उन्हें कभी-भी अपने ज्ञान और कार्यों का अहंकार नहीं हुआ। वो जब अपने मिशन की सफलता के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्द्रिरा गाँधी जी से मिले तो वो इस बात को लेकर कहीं नर्वस थे कि प्रधानमंत्री जी के सामने क्या बोलें? इस घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है कि “अचानक मैंने देखा कि श्रीमती गाँधी मेरी ओर मुसकराती हुई बोलीं, ‘कलाम! हम तुम्हें यहाँ सुनना पसंद करेंगे।’ प्रो. धवन पहले ही बोल चुके थे। प्रधानमंत्री की ओर से ऐसे अनुरोध की मुझे तो कल्पना तक नहीं थी। हिचकिचाते हुए मैं उठा और बोला, ‘राष्ट्र निर्माताओं की उपस्थिति के बीच मैं अपने को वाकई सम्मानित महसूस कर रहा हूँ। मैं सिर्फ यही जानता हूँ कि हम देश में एक रॉकेट प्रणाली किस तरह तैयार कर सकते हैं, जिसे पच्चीस हजार किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से छोड़ा जा सके।’ कमरा तालियों की आवाज से गूँज उठा।”

कलाम साहब ने अपने पुस्तक में श्री जवाहरलाल नेहरु जी के बारे में लिखा है कि, “भारत में रॉकेट विज्ञान के पुनर्जन्म का श्रेय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नई प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि को जाता है। उनके इस सपने को साकार बनाने की चुनौती प्रो. साराभाई ने ली थी। हालाँकि कुछ संकीर्ण दृष्टि के लोगों ने उस समय यह सवाल उठाया था कि हाल में आजाद हुए जिस भारत में लोगों को खिलाने के लिए नहीं है उस देश में अंतरिक्ष कार्यक्रमों की क्या प्रासंगिकता है। लेकिन न तो प्रधानमंत्री नेहरु और न ही प्रो. साराभाई में इस कार्यक्रम को लेकर कोई अस्पष्टता थी। उनकी दृष्टि बहुत साफ़ थी— ‘अगर भारत के लोगों को विश्व समुदाय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तो उन्हें नई-से-नई तकनीक का प्रयोग करना होगा, तभी जीवन में आने वाली समस्याएँ हल हो सकेंगी।’ इनके माध्यम से उनका अपने शक्ति प्रदर्शन का कोई इरादा नहीं था।

कलाम साहब ने अपने दृढ़-इच्छाशक्ति से वो कारनामा कर दिखाया जो लगभग असम्भव जैसा था। जिस समय भारत अपनी शक्तियों को मजबूत कर रहा था और कलाम साहब जैसे अनेक भारतीय वैज्ञानिक इस कार्य में प्राण-प्रण से लगे हुए थे, उसी समय विदेशी ताकतों ने भारत पर तमाम प्रकार के दबाव भी बनाये। अमेरिका ने उन तमाम सामानों के निर्यात पर रोक लगा दी जिनसे मिसाइल बनाई जा सकती थी। इसका परिणाम ये हुआ कि हमारे वैज्ञानिकों को अपने ही देश में वो सब सामान तैयार करना पड़ा इसमें तकरीबन दो वर्ष लग गये। परन्तु कभी हार न मानने वाले अदम्य साहसी कलाम साहब ने अनेकों मिसाइलें बनाई, उनका सफल परीक्षण करवाया और ऐसा करके उन तमाम देशों के मुँह पर तमाचा जड़ दिया जो भारत को कमजोर ही देखना चाहते थे। कलाम साहब ने भारत को इतनी शक्ति दी है कि अब कोई भी देश भारत की तरफ आँख उठाने से पहले सौ बार सोचेगा। कलाम साहब का मानना था कि जितनी शक्ति हमारे अन्दर होगी उतनी ही मजबूती से हम शांति स्थापित कर पायेंगे, उनकी एक बात मुझे याद आ रही है कि “2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है। यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है। इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।”

अगर हम उन्हें अधिक-से-अधिक पढ़ सकें, समझ सकें और उनकी बातों पर आचरण कर सकें तो निश्चित रूप से हम अपने लिए, अपने समाज के लिए, अपने देश के लिए कुछ अच्छा कर सकेंगे। उनकी पुस्तक की हिन्दी प्रति खरीदने से के लिए यहाँ क्लिक करें और अंग्रेजी के लिए यहाँ क्लिक करें। इस पुस्तक की पीडीऍफ़ फ्री डाउनलोड करने के लिए यहाँ क्लिक करें। अगर किसी लिंक से सम्बन्धित कोई समस्या है तो यहाँ क्लिक करके हमें सूचित करें या नीचे Comment Box में लिखकर बतायें।

सलाम मेरे कलाम


- कुमार आशीष
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Thursday, November 29, 2018

सुन सफलता!

साभार इन्टरनेट

स्नेह के बंधन सभी,
जो थे तुम्हारे संग कभी।
उन बन्धनों को खोलकर,
दृढ़ता को अपनी तोलकर।
वो पथ जो दुनियाँ को न भाये,
आकाश के आगे जो जाये।
उस राह पर चलने की खातिर में मैं स्वयं को,
अब उसी पर मोड़ता हूँ, 
सुन सफलता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।

मत करो जयघोष के स्वर,
मैं अब इनसे डर रहा हूँ। 
शोहरतें ज्यों-ज्यों बढ़ें हैं,
मैं स्वयं में मर रहा हूँ। 
ज़िन्दगी से मोह मेरा टूटता है,
और अपना साथ देखो छूटता है।
मैं हूँ बहुत विक्षिप्त इस कारण स्वयं को,
अब किसी वनवास से मैं जोड़ता हूँ, 
सुन सफलता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।

कर निछावर अनगिनत रातों की नींदें,
मैं स्वयं के आँसुओं में भीगता था।
हर तरफ था एक सन्नाटा ग़ज़ब का,
और उसमें मैं अकेला चीखता था।
मुस्कान, आँसू, नेह, सपने, नाम अपना,
सब छोड़कर कितना किया नुकसान अपना।
सब खो दिया था एक जिस वादे की खातिर,
मैं स्वयं अपना वो वादा तोड़ता हूँ,
सुन सफ़लता!
आज से मैं साथ तेरा छोड़ता हूँ।

- कुमार आशीष
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Sunday, August 5, 2018

डिज़िटल-देशभक्ति

साभार इन्टरनेट

जैसे-जैसे स्वतंत्रता-दिवस और गणतन्त्र-दिवस जैसे राष्ट्रीय त्यौहार नजदीक आने लगते हैं हम भारतीयों के अन्दर देशभक्ति का ज्वार उमड़ने लगता है। कई बार हमारी देशभक्ति का वेग इतना तीव्र होता है कि हम ऐसे-ऐसे काम कर जाते हैं जो हमें नहीं करना चाहिये।

फेसबुक और व्हाट्सएप्प जैसे सोशल मिडिया प्लेटफार्म का निर्माण इस उद्देश्य से किया गया था कि हम इनके माध्यमों से अपने विचार एक-दूसरे के साथ साझा कर सकें और लगभग दुनियाँ भर के लोग इसका इस्तेमाल इन्हीं उद्देश्यों के साथ करते भी हैं। लेकिन हम भारतीय इसका उपयोग अन्य कामों में भी करते हैं। जैसे:- डीपी काली करके किसी बलात्कार पीड़िता को न्याय दिलाने में, डीपी काली करके किसी की हत्या का बदला लेने में, ‘108 ॐ’ लिखे हुए मैसेज को 100 लोगों को फॉरवर्ड करके किस्मत चमकाने में, आईसीयू में भर्ती किसी बच्चे का फोटो लगाकर मैसेज लिखते हैं कि फॉरवर्ड करो तो हर बार बच्चे को व्हाट्सएप्प की तरफ से 01 रुपया मिलेगा इसको 10 लाख चाहिए इलाज के लिए आदि आदि। वैसे तो उपर्युक्त सभी कामों से मुझे आपत्ति है लेकिन मुझे सबसे ज्यादा आपत्ति जिस बात से है वो नीचे लिख रहा हूँ:-

कुछ डिज़ाइनर लोगों द्वारा तिरंगे की डिज़ाइन को काट-छाँट कर अंग्रेजी वर्णमाला के वर्णों (AtoZ) का आकार दिया गया है। इसके बाद इसे व्हाट्सएप्प के माध्यम से फैलाया जा रहा है, कि अपने नाम के वर्ण को डीपी बनाओ। जब बहुत से लोग डीपी बना लेते हैं तो उसका स्क्रीनशॉट लेकर फिर स्टेटस बनाया जाता है। मैंने कई लोगों से पूछा कि डीपी लगाने से क्या होगा तो जवाब मिला देशप्रेम के लिए है, हमारे देश की शान है तिरंगा तो उसे डीपी पर लगाना है।

हे डिजिटल देशभक्तों! क्या आप जानते हैं कि अपने देश में ‘फ्लैग कोड ऑफ़ इण्डिया’ (भारतीय ध्वज सहिंता) नाम की भी कोई चीज है? जिसके अनुसार तिरंगे को पूर्ण सम्मान के साथ ही प्रयोग करना चाहिए। इसी क्रम में,

  • अगर तिरंगा अपूर्ण, कटा-फटा अथवा मैला है तो उसका प्रयोग करना तिरंगे का अपमान है।
  • तिरंगे पर कुछ भी लिखा या छपा नहीं होना चाहिए।
  • तिरंगे को बनाने के कुछ निश्चित नियम हैं उसी के अनुसार ही उसकी डिज़ाइन, रंग, आकार आदि निर्धारित होता है। इसे मनमाने आकार में ढ़ालना इसका अपमान है।
  • भारतीय ध्वज सहिंता का उल्लंघन करना गैर कानूनी है।

डिजिटलाईजेशन का युग है इसी क्रम में बहुत-से डिजिटल देशभक्त जन्में हैं। मेरा उन सभी आदरणीय देशभक्तों से निवेदन है कि कृपया अपनी देशभक्ति के आवेग में कोई ऐसा कदम न उठायें जिससे अपने देश का, अथवा देश से सम्बंधित किसी भी मर्यादा का अपमान हो। तिरंगे का सम्मान करिये नियमनुसार उसका प्रयोग भी करिये लेकिन याद रखिये कि तिरंगा इस देश के सम्मान का प्रतीक है कोई आपकी पसंददीदा टी-शर्ट नहीं है जिस पर आप आधुनिक तकनीकि का सहारा लेकर अपने नाम लिखें और फिर डीपी बनाकर अपने प्रोफाइल की शोभा बढ़ायें, तिरंगे का प्रयोग बहुत सावधानी से नियमनुसार और गंभीरता से करना चाहिए।

जय-हिन्द जय-भारत

- कुमार आशीष
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Saturday, June 30, 2018

मेरी नज़र में डॉ कुमार विश्वास

इन्टरनेट से साभार

डॉ. कुमार विश्वास आधुनिक साहित्य जगत में एक बड़ा और विवादित नाम है। इनकी बुराई ज्यादतर ऐसे कवियों के मुँह से सुनने को मिलती है जो स्वयं कविता की वाचिक परम्परा से दूर हैं। काव्य-मंचों की भी बुराई ज्यादातर वही लोग करते हैं जो स्वयं काव्य-मंच से दूर हैं। लोग कुमार विश्वास के मुक्तक पढ़कर कहते हैं कि उन्हें गीत लिखना नहीं आता। मुझे कविता की समझ नहीं है तो हो सकता है कि कुमार विश्वास की कमियों को मैं नहीं पकड़ पा रहा हूँ। लेकिन मुझे कोई ये तो समझाये कि आपकी नज़रों में ‘अच्छा-गीत’ किसे कहा जा सकता है? अगर कुमार विश्वास को पसन्द करने वालों की संख्या करोड़ों में है तो आप कहते हैं ये कोई मानक नहीं हुआ कि उनकी रचनाएँ बेहतरीन हैं, मार्केटिंग करके कोई भी फेमस हो सकता है। अगर कुमार विश्वास का मानदेय थोड़ा ज्यादा है तो आप कहते हैं पैसों से तय नहीं किया जा सकता है कि उनकी रचनाएँ बेहतरीन हैं। अगर हिन्दी कविता से दूर रहने वाले युवा पीढ़ी के लोग अपने कॉलेज के फेस्टिवल में कवि-सम्मलेन करवाते हैं और ख़ुद भी कुछ लिखने/सुनाने की कोशिश करते हैं और इसका श्रेय वो कुमार विश्वास को देते हैं तो आप कहते हैं ये जुमलेबाजी का कमाल है तो आपकी नज़र में गीत किसे कहा जाता है? आपके अनुसार जो आप लिख रहे हैं वो कविता है बाकी सब तुकबंदी है? लेकिन कैसे? इसका कोई मापन नहीं दे रहे हैं आप? मैं समझता था जो जन-साधारण लोग हैं जिन्हें व्याकरण का इतना ज्ञान नहीं है जिनके शब्दकोश में अधिकतर दैनिक-जीवन में प्रयोग होने वाले शब्दों के अतिरिक्त शब्द नहीं है ऐसे लोग भी जिस कविता को समझकर उसका आनन्द उठा सकें उसे अच्छा कहा जाये। जो जन-सामान्य को स्वीकार्य हो लेकिन लग रहा है मैं गलत हूँ। मुझे ये तो हजारों लोग कहते हैं कि कुमार विश्वास के पास गीत का शिल्प नहीं है लेकिन क्यों नहीं है, ये कोई नहीं बताता। एक वक़्त था जब सोशल मिडिया नहीं थी, अखबारों का भी इतना बोल-बाला नहीं था, सब लोग पत्रिकाएँ नहीं खरीद पाते थे, उस वक़्त में भी लोगों की ज़बान पर चढ़कर श्री हरिवंश राय बच्चन, श्रीरामधारी सिंह दिनकर जी की रचनाएँ मीलों का सफ़र तय करती थीं उस युग में स्वीकार्य रचनाओं को हम आज भी बड़े चाव से पढ़ते/सुनते हैं। इस हिसाब से अगर मैं ये धारणा बना लूँ कि जो अच्छा लिखा जा रहा है वो लोगों को पसन्द आ रहा है तब तो कुमार विश्वास को भी करोड़ों लोग पसन्द करते हैं।

कविता की वाचिक परम्परा में एक वक़्त ऐसा भी था कि जब कुमार विश्वास कवि-सम्मेलनों से रात को घर आते थे तो उनके पिताजी नाराज़ होते थे। मैंने और भी कई काव्य-प्रेमियों से सुना है कि वो किशोरावस्था में भी लिखते थे लेकिन घर वालों से छुपाते थे उन्हें डर लगता था कि कोई क्या कहेगा? जबकि आज हम लोग जो भी टूटा-फूटा लिखते हैं अपने घर वालों को भी पढ़ाते हैं और बिना डरे किसी से बताते हैं बल्कि कई बार तो ‘बहुत ज्यादा’ बताते हैं, तो मुझे लगता है ये धरातल जिस पर खड़े होकर मेरी उम्र के लड़के/लड़कियाँ कविता लिखने की कोशिश बिना डरे कर सकते हैं वो हमें कुमार विश्वास और आशीष देवल जैसे गीतकारों से मिला है।

‘कुमार विश्वास के पास गीत नहीं है, उन्हें लिखना नहीं आता, वो तो भांड हैं’ ऐसी टिपण्णी करने वाले कवियों ने अपनी रचनाओं पर कहाँ से सर्टिफिकेट लिया है कि वो बहुत अच्छा लिख रहे हैं, उन्होंने किस मापन से समझा है कि वो कुमार विश्वास से बेहतर हैं जबकि न ऐसे लोग मंच पर हैं, न प्रकाशक इनके पीछे पड़ा है कि अपनी किताब छपवा लो, न श्रोता/पाठक परेशान हैं इनके लिये तो इन्हें कैसे पता कि ये बहुत बेहतरीन लिख रहे हैं? कोई मापन है या ख़ुद ही अपने मन में मानकर बैठे हैं कि उनके जैसा रचनाकार अब इस धरती पर और कोई नहीं है।

[कुमार विश्वस मुझे नहीं जानते हैं, न मुझे वो मंच देंगे न मुझे वो पैसा भेजने वाले हैं, न मेरी तारीफ़ में अपने पेज पर कुछ लिखने वाले हैं ये सब मेरे मन के उद्गार हैं, पूरे लेख का स्वार्थ इतना है कि मैं समझ सकूँगा कि ‘अच्छी कविता’ का मापन क्या है? ये पोस्ट किसी के पोस्ट से प्रेरित नहीं है कोई अपने ऊपर लेता है तो इसका मतलब सूरज ख़ुद जुगनू से रोशनी में प्रतियोगिता करना चाहता है, किसी को भी इस पोस्ट से दिक्कत हो तो रिपोर्ट कर सकता है डिलीट हो जायेगी]
धन्यवाद!

- कुमार आशीष
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Saturday, June 9, 2018

हे मेरे राम! आकर के मुझसे मेरा

इंटरनेट से साभार

हे मेरे राम! आकर के मुझसे मेरा,
एक परिचय जरा-सा करा दीजिये।
बेर जूठे रखे, मैं हूँ शबरी बना,
आ के मेरी प्रतीक्षा मिटा दीजिये।
हे मेरे राम!...

एक युग से बना जड़ अहिल्या-सा मैं,
पूरे संसार की ठोकरों में पड़ा।
कोई ऐसा नहीं जो मेरे संग हो,
कोई भी तो नहीं साथ मेरे खड़ा।
आखिरी आस मेरी तुम्हीं हो प्रभु!
अपने चरणों से मुझको लगा लीजिये।
हे मेरे राम!...

मैंने जो था किया वो सही था किया,
और मुझको ही तो घर निकाला मिला।
मैंने समझाया भी, मैंने बतलाया भी,
पर मेरे प्यार का अब यही है सिला।
एक बन्दर ही हूँ, नाम सुग्रीव है,
मेरा सम्मान मुझको दिला दीजिये।
हे मेरे राम!...

आपको तो था मैं पहले भूला हुआ,
अब स्वयं को भी मैं भूलने हूँ लगा।
एक सागर किनारे पे मैं हूँ खड़ा,
उसकी लहरों के संग झूलने हूँ लगा।
मेरे गुण-दोष क्या हैं मझे क्या पता,
ऋक्षपति बन के मुझको दिशा दीजिये।
हे मेरे राम!...
- कुमार आशीष
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Saturday, June 2, 2018

मिर्ज़ा ग़ालिब की हवेली

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

“हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और”

अपने एक अलग ही अंदाज़ में जीने वाले ग़ालिब जैसा कोई व्यक्तित्व शायद ही अब किसी युग के भाग्य में हो। ग़ालिब एक ऐसा नाम जिसने केवल अपनी शायरी के बलबूते इतिहास में अपनी पैठ बना रखी है। जिसकी शायरी हर आयु, हर वर्ग के लोगों को खूब भाती है, शायरी और ग़ालिब लगभग पर्यायवाची बन चुके हैं। अगर कहीं पर उर्दू/शायरी के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित स्तंभों के नाम लिखें जायें तो उनमें एक नाम “मिर्ज़ा ग़ालिब” का भी जरूर होगा। आज हम आपको उनकी हवेली की सैर करवायेंगे, लेकिन उससे पहले ग़ालिब को थोड़े और करीब से जानने की कोशिश करते हैं।

27 दिसंबर 1797 को आगरा (उप्र) में जन्में मिर्ज़ा ग़ालिब का पूरा नाम ‘मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग खान’ था, “ग़ालिब” उनका तख़ल्लुस (Pen Name) था। 13 वर्ष की उम्र में ग़ालिब का निकाह नवाब इलाही बख्स की बेटी उमराव बेगम से हुआ, ग़ालिब के सात संताने हुईं लेकिन दुर्भाग्यवश सभी संतानें अल्पायु में काल के गाल में चली गयीं। ग़ालिब मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबारी कवि थे। 1850 में शहंशाह बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को ‘दबीर-उल-मुल्क़’ और ‘नज़्म-उद-दौला’ के खिताब से नवाज़ा। उन्हें बहादुर शाह ज़फर द्वितीय के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार फ़क्र-उद-दिन मिर्ज़ा का शिक्षक भी नियुक्त किया गया। वे एक समय मुगल दरबार के शाही इतिहासविद् भी थे। अपने वक़्त के सबसे महान शायर होने के बावज़ूद उनमें इस बात का जरा भी घमण्ड नहीं था। वो खुद मीर साहब का लोहा मानते थे।

"रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब!
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था..."

कहते हैं एक बार जब ग़ालिब ने बहुत उधार की शराब पी ली और पैसे नहीं चुका सके तो दुकानदारों ने उन पर मुकदमा कर दिया। अदालत की सुनवाई के दौरान ग़ालिब ने अपना ये शेर पढ़ा और कर्ज़ माफ़ हो गया।

“कर्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लाएगी हमारी फाक़ामस्ती एक दिन...”

ग़ालिब अपने जीवन में अनेक शहरों में रहे, लेकिन आगरा से आकर दिल्ली बसने के बाद वो यहीं के हो कर रह गये। आज भी चाँदनी-चौक दिल्ली के बल्लीमारान इलाके में गली कासिम जान स्थित एक हवेली है जिसे 'हवेली मिर्ज़ा ग़लिब' कहा जाता है। यहीं पर ग़ालिब ने अपने जीवन के अन्तिम 09 वर्ष व्यतीत किये। 15 फरवरी 1869 को ग़ालिब ने दुनियाँ के साथ अपने दर्दों को अलविदा कह दिया।

"हुई मुद्दत कि ग़ालिब मर गया पर याद आता है
वो हर एक बात पे कहना कि यूँ होता तो क्या होता..."

ग़ालिब ने अपने जीवन में दर्द-ही-दर्द झेला, शायद उन्हें लगता था कि मरने के बाद भी उन्हें अपने दुःख-दर्दों से छुटकारा नहीं मिलेगा।

“हमको मालूम है ज़न्नत की हक़ीकत लेकिन
दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है...”

दिल्ली में बल्लीमारान इलाके में स्थित उनकी हवेली पर उनके न रहने के बाद वहाँ लोगों ने कब्ज़ा करके बाजार लगानी शुरू कर दी। क्योंकि उस जमीन पर कानूनी रूप से कोई मालिकाना दावा करने वाला नहीं था इसीलिए उनकी बहुत क्षति हुई। लेकिन जिसकी हवेली थी उसने ग़ालिब के न रहने का बाद भी काफी समय तक उसका अस्तित्व बचाये रखा। फिर सन् 1999 में भारत सरकार ने उस महान शायर को श्रद्धांजलि स्वरुप इस हवेली को पुनर्जीवित किया और पूरी हवेली को मुग़लकालीन शैली में सजाया-सँवारा गया। इस संग्रहालय में ग़ालिब से जुड़ी बहुत सी चीजें रखीं हुईं हैं जैसे:- कुर्ता, हुक्का, गज़लें, शतरंज, चौपड़, पुराने बर्तन, ग़ालिब के ख़त आदि।

26 दिसम्बर 2010 को गुलज़ार साहब ने सुप्रसिद्ध शिल्पकार श्री भगवान् रामपूरे जी द्वारा निर्मित ग़ालिब साहब की एक मूर्ति लगवायी, जिसका अनावरण तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित जी ने किया था। 27 दिसंबर को हर साल यहाँ ग़ालिब के जन्मदिन के मौके से खूब चहल-पहल होती है। पूरी हवेली को सजाया जाता है और फिर रोशन शमाओं के साथ दूर-दराज़ के शायरों का जामवाड़ा लगता है। दिल्ली के चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन से 20 मिनट की पैदल दूरी पर अनेक तंग गलियों के बीच ये हवेली है, जब भी वक़्त मिले अवश्य जायें।

“हज़ारों ख़्वाहिशे ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले...”

तस्वीरों में देखते हैं 'ग़ालिब की हवेली :-

हुक्के के शौक़ीन ग़ालिब


ग़ालिब का कुर्ता

हमेशा ही सुनाते रहे हो अपने शेर दुनियाँ को, मेरा भी एक शेर ज़रा सुन लो न ग़ालिब!

मुगलकालीन शैली में बनी ग़ालिब की हवेली

ग़ालिब के ख़त

एक फोटो ग़ालिब साहब के साथ

ये हवेली के मुख्यद्वार पर लगा है

हवेली का मुख्यद्वार

पुराने बर्तन

अंदाज़-ए-बयाँ

ग़ालिब के शेर

इन्हीं गलियों में आया, और यहीं पर खो गया ग़ालिब!

ग़लिब के घर में

फिर मिलते हैं एक नयी यात्रा के साथ...

- कुमार आशीष
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Sunday, April 29, 2018

जन्मदिवस है आज आपका


जीवन की आपाधापी तो जीवन भर चलती रहती है,
काम-काज की भीड़ में बस ये काया गलती रहती है।
जीवन कष्टों को आँख दिखा कुछ वक़्त चुराना पड़ता है,
इस समर क्षेत्र में सबकुछ खोकर भी मुस्काना पड़ता है।
काश! आप भी अपने कामों से कुछ वक़्त चुरा लेते,
जन्मदिवस है आज आपका, उसको आज मना लेते।

अद्भुत धैर्य आपके अन्दर जीवन में ठहराव बहुत,
इन्हीं खूबियों से तो मुझको रहता सदा लगाव बहुत।
“पुत्र आपका हूँ” मैं तो बस इस पर ही इतराता हूँ,
और गर्व को शब्दों में लिख गीत कोई रच जाता हूँ।
वरना शब्द अकिंचन हैं ये आपको क्या लिख पायेंगे,
अम्बर से ऊँचा कद जिसका उसको क्या रच पायेंगे।
जियो हजारों साल आप और संग प्यारी मुस्कान रहे,
जन्मदिवस है आज आपका इसे मनाना ध्यान रहे।

आपकी आँखों में भी आया होगा कोई ख्वाब कभी,
छोटा घर और बड़ी गाड़ियों का कोई रुआब कभी।
उन ख्वाबों को धक्के देकर आँखों से था भगा दिया,
और वहीं पर मेरी आँखों के ख्वाबों को सजा लिया।
होकर रुख्सत ख्वाब आपके भटक रहे पर मरे नहीं,
उनकी घोर प्रतीक्षा के दिन शायद अब तक भरे नहीं।
‘उनको वापस लाऊँगा’ ये ही वादा उपहार मेरा,
जन्मदिवस है आज आपका बहुत आपको प्यार मेरा।
- कुमार आशीष
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Saturday, April 28, 2018

जो कभी थे आपके हम


आपकी हर याद में हम हँस रहे हैं रो रहे हैं।
जो कभी थे आपके हम वो किसी के हो रहे हैं।।
आपकी हर इक दुआ अब आपको ही हो मुबारक,
बद्दुआओं की किसी एक भीड़ में हम खो रहे हैं।
जो कभी थे आपके हम वो किसी के हो रहे हैं।।

याद है हर एक लम्हा साथ में जो था बिताया।
टुकड़े-टुकड़े में सुरक्षित ख़्वाब है जो था सजाया।।
जो मुकम्मल ख़्वाब हैं वो आपको ही हो मुबारक,
हम तो टूटे ख़्वाब के संग हँस रहे हैं रो रहे हैं।
जो कभी थे आपके हम वो किसी के हो रहे हैं।।

याद आयेंगे कभी ये दिन जो सारे जा रहे हैं।
गुनगुनाओगे कभी ये गीत जो हम गा रहे हैं।।
गीत के स्वर-ताल सब कुछ आपको ही हो मुबारक,
हम तो अपनी चुप्पियों संग हँस रहे हैं रो रहे हैं।
जो कभी थे आपके हम वो किसी के हो रहे हैं।।

जिस तरह से भा गये थे आपके दिल को अचानक।
कुछ उसी जैसे हैं भाये हम किसी को बन कथानक।।
प्रेम के हर एक मानक आपको ही हो मुबारक,
हम तो अपने ही प्रणय संग हँस रहे हैं रो रहे हैं।
जो कभी थे आपके हम वो किसी के हो रहे हैं।।
- कुमार आशीष
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