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प्रिय मोहनदास करमचन्द जी!
सादर अभिवादन!
सर्वप्रथम मैं ये स्पष्ट कर देता हूँ कि मैंने आपको महात्मा गाँधी, बापू या राष्ट्रपिता जैसे सम्बोधन से सम्बोधित क्यों नहीं किया? इसका कारण ये है कि अपने देश भारत में ही आपके ‘महात्मा’ होने पर प्रश्न-चिन्ह लग चुका है, ‘बापू या राष्ट्रपिता’ जैसे शब्द लगभग बैन होने की कगार पर हैं और ‘गाँधी’ तो जैसे गाली का पर्यायवाची शब्द ही हो।
उपर्युक्त स्पष्टीकरण से सम्भव है आप मेरी विवशता समझ गये होंगे। धरती पर और अपने देश में हम सब कुशल मंगल हैं और आशा करते हैं आप भी स्वर्ग के आनन्द सकुशल भोग रहे होंगे। पत्र में अपनी कुशलता बताने का यह एक औपचारिक तरीक़ा हमें सिखाया गया है। वास्तविकता ये है कि हम लोग बहुत परेशान हैं, हम आपस में लड़ते रहते हैं, अपने ज़िद और अहंकार में हम देशहित तक का त्याग किये बैठे हैं। जिस सत्य और अहिंसा की पुस्तक आप हमें थमा गये थे वो हममें से अधिकतर लोग गन्दे नाले में फेंक चुके हैं और जिन्होंने अपने पास रखा भी है, वो सिर्फ उसे शोभा की वस्तु की तरह प्रयोग में ले रहे हैं। हालाँकि अभी भी कुछ ऐसे लोग हैं जो अहिंसा की बात करते हैं, अहिंसा का पाठ ख़ुद भी पढ़ते हैं और दूसरों को भी सिखाते हैं, ये और बात है ये लोग भी इसे अपने आचरण में नहीं लाते हैं। आपके बारे में मुझे जानकारी है कि आप एक वकील थे। उस ज़माने में उच्च शिक्षा बहुत कम लोगों को हासिल हो पाती थी, जाहिर है वकील भी कम रहे होंगे। मुझे ये बात समझ नहीं आ रही है कि आपने वक़ालत छोड़ कर देश-सेवा का रास्ता क्यों चुन लिया? वक़ालत करते ढेर सारा पैसा कमाते, लग्ज़री ज़िन्दगी जीते और यदा-कदा रैली वगैरह में जाकर लम्बे-चौड़े भाषण दे आते तो शायद आज़ादी में आपका योगदान कुछ ख़ास तरह से आँका जाता। लेकिन आपने अपनी जीवन शैली इतनी साधारण कर ली कि आपके असाधारण योगदान भी आज धूल फांक रहे हैं। आप बहुत अच्छे वकील रहे होंगे परन्तु आज आप अपना ही पक्ष लेकर कुछ कह नहीं सकते हैं, आप अपने ही देश में गालियाँ खाने और बार-बार अपमानित होने के लिए विवश हैं। आपका दुःख कदाचित् मैं समझ पा रहा हूँ। आपके जीवन की तमाम घटनाओं को लेकर आपको नित्य-नई गालियों से सम्मानित किया जाता है और ये सम्मान आपको उन लोगों द्वारा मिलता है जिन्होंने आपके विषय में एक पृष्ठ तक नहीं पढ़ा है। आपकी आत्मकथा “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” पढ़ते हुए मैं कई जगह ठिठक गया। आप जानते थे कि ये पुस्तक एक दिन सामान्य जनमानस तक जरूर पहुँचेगी, फिर भी आपने स्वयं को बिलकुल खोलकर उसमें रख दिया है। जितनी बेबाक़ी और निडरता से आपने उस पुस्तक में अपनी ज़िन्दगी और गलतियों को लेकर बात की है उतनी बेबाकी से हम अपनी वो डायरी भी नहीं लिख पाते हैं जो सिर्फ हमें पढ़नी रहती है।
धरती पर अभी ऐसे भी लोग कम नहीं हैं जो आपके वर्चस्व के आगे नतमस्तक हैं। बहुत-से लोग ऐसे हैं जो अपने दिल में आपके लिए बहुत प्यार और बहुत सम्मान भी रखते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो भले ही दिल से आपको सम्मान या प्यार न करते हों, परन्तु उनका साहस अभी इतना नहीं बढ़ा है कि खुलकर आपका विरोध कर सकें। वो आज भी पब्लिक डोमेन में आपकी तारीफ़ करते ही पाये जाते हैं। वो जानते हैं कि आज और आज के आने वाले हज़ार वर्षों बाद तक आपकी उपेक्षा करके भारत में अपनी छवि बनाये रखना सम्भव नहीं है। उनको पता है कि नाथूराम गोडसे की गोली ने भले ही आपका शरीर निर्जीव कर दिया था परन्तु दुनियाँ में अभी वो गोली नहीं बन सकी है जो आपके विचार को ख़त्म कर सकें।
मैं अगर अपनी बात करूँ तो मैं आपके बारे में जितना भी अनर्गल पढ़ता हूँ मेरे दिल में आपके प्रति श्रद्धा और बढ़ जाती है। क्योंकि मैं जानता हूँ कि किसी बहुत अच्छे व्यक्ति के बारे में भी बहुत ज्यादा बुरी बातें हो सकती हैं। ये सच है कि मैं भी आपके कुछ निर्णयों से और कुछ आचरणों से सहमत नहीं हूँ, इसका मतलब ये भी हो सकता है कि वो आपकी ग़लती रही हो और ये भी हो सकता है कि उन बिन्दुओं को समझने में मैं ही ग़लती कर रहा हूँ। मेरा अपना मानना ये है कि “कोई भी बड़ी लड़ाई अकेले नहीं जीती जाती है, बल्कि उसमें कई लोगों का योगदान होता है और हर योगदान का अपना महत्वपूर्ण स्थान होता है।” अपने इसी सिद्धांत के आधार पर मैं अक्सर सोचता हूँ कि देश की आज़ादी और उसके तुरन्त बाद के हालात पर काबू करने में जिन असंख्य लोगों का योगदान था उसमें जो भाग आपका था वो हमेशा बना रहेगा। किसी और के बड़े-से-बड़े योगदान का मतलब ये नहीं कि आपका योगदान कम हो जाता है। हर व्यक्ति के योगदान का तरीका अलग-अलग था और उसी के सामूहिक प्रयास से हमें आज़ादी मिली। इस लड़ाई में जो भाग आपके हिस्से में आया था वो इतना विस्तृत था कि आने वाली सदियों में जब तक भारतीय इतिहास ज़िदा रहेगा आपके योगदान की सराहना होती रहेगी। हर सच्चा भारतवासी पूरी श्रद्धा और सम्मान से आपको और आपके योगदानों को प्रणाम करता रहेगा।
बस एक ही दिक्कत है, मैं ये नहीं जानता कि ये भारतीय इतिहास किस सदी तक जीवित रहेगा? क्योंकि आधुनिक राजनीतिक परिदृश्य में हर कोई इतिहास को अपने हितों के हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने में लगा हुआ है। इसलिए मुझे डर है कहीं वास्तिक इतिहास अपनी सच्चाई को गले लगाये किसी चिता पर लेटा हुआ न मिले, कहीं वो अपना आस्तित्व खोकर धुआँ बनकर उड़ न जाये? जिन्हें आपको अच्छा कहने में फायदा है वो अच्छा कहते हैं, जिन्हें बुरा कहने में फायदा है वो बुरा कहते हैं। इन दोनों तरह के लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि आप अच्छे थे या बुरे थे, इन्हें बस अपने हितों के हिसाब से बोलना है। कुछ ‘गाँधी बापू अमर रहे’ बोलते हैं कुछ ‘नाथूराम गोडसे अमर रहें’ बोलते हैं और इसी विचाराधारा के टकराव में आपका ‘सत्य-अहिंसा’ दम तोड़ देता है, फिर दोनों विचारधारा के लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। खैर, जितना मैं आपको समझ पाया हूँ उस हिसाब से इतना विश्वास है कि आप अपने अपमान से तो दुःखी नहीं होते होंगे, क्योंकि आप मान-अपमान की सीमा से आगे बढ़ चुके हैं। लेकिन आपको ये जानकर तो दुःख जरूर होता होगा कि जिस ‘राम-राज्य’ की कल्पना आपने भारत के लिए की थी उसी राम के चरित्र पर अब लोग प्रश्न-चिन्ह लगाने लगे हैं। कुछ अति बुद्धिजीवी लोग अब ‘जय लंकेश, जय लंकेश’ करते रहते हैं। उन्हें राम नहीं बनना है उन्हें तो रावण बनने की लालसा जकड़े हुए है। अब सोचिये जिस देश के लोगों को अखिल ब्रम्हाण्ड नायक ‘परमपिता’ में कमी दिखाई दे जाती हो उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ के अन्दर कमियाँ ढूँढने में कौन-सी देर लगनी है।
एक वक़्त था कि श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर जी ने आपको “महात्मा” कह दिया और दुनियाँ आपको “महात्मा” मानने लगी। श्री सुभाष चन्द्र बोस जी ने आपको “राष्ट्रपिता” कहकर सम्बोधित कर दिया और दुनियाँ आपको भारत का “राष्ट्रपिता” कहने लगी। अब ये वाला युग बदल चुका है, अब हमारे पास ‘राईट टू इन्फॉर्मेशन’ (आरटीआई) [RTI – Right to Information] की सुविधा है। जब तक उस कागज़ के टुकड़े में लोगों को ‘महात्मा’ या ‘राष्ट्रपिता’ लिखा नहीं मिलेगा तब तक लोग आपके प्रति ऐसे सम्बोधनों से परहेज़ करते रहेंगे। बहुत-से लोग तो सुभाष बाबू की तरफ से खड़े होकर आपको दिन-रात गाली देते हैं, ये और बात है कि सुभाष बाबू आपका बहुत सम्मान करते थे। लेकिन उन्हें इससे क्या? न तो ऐसे लोग सुभाष बाबू को पढ़ते-समझते हैं और न आपको पढ़ने में समय जाया करना चाहते हैं। इस तरह की ओछी मानसिकता वाले कुछ लोग बहुत घटिया आचरण करते हैं। एक वक़्त था सबकी जन्मदात्री माँ उन्हें बचपन से एक पुरुष की तरफ ईशारा करके कह देती थी कि ये तुम्हारा बाप है और लोग उसी पुरुष को जीवन भर पिता मानकर आदर-सम्मान देते थे। परन्तु अब लोगों के पास आधुनिक तकनीकि है- डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक अम्ल (डीएनए) [DNA – Deoxyribo Nucleic Acid]। जब तक इस रिपोर्ट में लिखकर नहीं आयेगा वो अपने बाप को बाप मानने को तैयार नहीं है। हर बात का प्रमाण ढूँढने की अंधी ज़िद पाले हुए लोग बहुत ही विवेकहीन, संस्कारहीन और भावुकताहीन जीवन जीते जा रहे हैं और इन सबको वो “आधुनिकता” के आवरण में छिपाये रखते हैं। ये आवरण अन्दर से कैसा भी हो बाहर से तो सुन्दर ही दिखता है।
आपसे कहने को मेरे पास इतना कुछ है कि सब लिखने बैठूँगा तो एक पूरी किताब बन जायेगी। अन्त में मैं आपसे इतना ही बताना चाहूँगा कि मैं आपको बहुत प्यार करता हूँ, मेरे ह्रदय में आपका एक सम्मानजनक स्थान है। आपकी दी हुई शिक्षा के सहारे, आपके बताये हुए रास्ते पर चलने का यथासम्भव प्रयास भी करता हूँ। मैं जिस राष्ट्र का नागरिक हूँ आप उसके ‘राष्ट्रपिता’ हैं, देश के सभी नागरिकों को बच्चों की तरह प्यार करने वाले ‘बापू’ हैं, आदर्श जीवन की परिभाषा जीने वाले आप ‘महात्मा’ हैं। मुझे आपके सम्मान में प्रयोग किये जाने वाले इन सम्बोधनों के लिए किसी प्रमाण नहीं आवश्यकता नहीं है। आप मेरे हैं, मेरे देश के हैं, मैं इस बात पर गर्व करता हूँ। आपको बहुत-बहुत प्रणाम, बहुत सम्मान और प्यार...
आई लव यू प्यारे बापू!
सधन्यवाद
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