लेखक - अरुणिमा सिन्हा
फॉर्मेट - पेपरबैक
पृष्ठ संख्या - 168 पेज
मूल्य - ₹112
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन
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जब ये पुस्तक मुझे मिली तो मैंने बस भूमिका पढ़ने के लिए खोला था। बाकी शायद मैं बाद में पढ़ता परन्तु मुझे इतना जुड़ाव हो गया कि पूरी पुस्तक एक बार में पढ़ गया और पढ़ते हुए रोता रहा। ‘अरुणिमा सिन्हा’ की आत्मकथा हमें विषम-से-विषम क्षणों में में भी हार न मानने की प्रेरणा देती है। राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा के आगे एक सुनहरा भविष्य था। अपनी नौकरी के जब वो लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं तभी कुछ राक्षसों ने उन पर हमला कर दिया। कोच में खूब भीड़ थी पर दुर्भाग्य से सब कायरों की भीड़ थी तो किसी ने सहायता नहीं की। काफी देर तक कई लोगों से अकेले ही अरुणिमा लड़ती रहीं और फिर एक धक्का लगा जिससे वो चलती ट्रेन से बाहर गिर गयीं। गिरते हुए सामने की पटरी पर आ रही ट्रेन से भी टकराई जिसके कारण बहुत बुरी तरह घयाल होकर पटरी के किनारे पड़ी थीं। उनका एक पैर ट्रेन के नीचे आ जाने से कट गया था। कड़ाके की ठण्डी और भीषण दर्द सहते हुए अपनी मौत से पंजा लड़ा रही थीं। उन्हें ये तक नहीं पता था कि अगली आने वाली ट्रेन वो देख पायेंगी या उससे पहले मर जायेंगी। सात-आठ घंटे तक मौत के पंजे से अपनी ज़िन्दगी बचाये रखने वाली अरुणिमा को सुबह आसपास के गाँव वालों की कुछ सहायता मिली। उन्हें बरेली के सरकारी अस्पताल में ले जाया गया जहाँ बेहोशी की दवा उपलब्ध न होने के कारण पूरे होशो-हवाश में अरुणिमा ने अपना कटा हुआ पैर सर्जरी के माध्यम से अपने शरीर से अलग करवाया। डॉक्टर्स ये करने को तैयार नहीं थे पर अरुणिमा के जोर देने पर उन्हें ऐसा करना पड़ा। अरुणिमा ने अपने सेना-नायक पिता को बहुत कम उम्र में खो दिया था। उनकी संदिग्ध हालत में डूबकर मौत हो गयी थी और उसका इल्ज़ाम अरुणिमा की माँ और बड़े भैया पर आया। उस षडयंत्र से किसी तरह बाहर निकलने के बाद उनके बड़े भैया का खून हो गया। अब उनकी माँ, एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई उनके परिवार में हैं।
इस पुस्तक में अरुणिमा ने अपने पूरे जीवन की घटित घटनाओं का वर्णन किया है। इसमें पता चलता है कि अगर प्रशासन के लोग मेहरबान होते हैं तब क्या होता है और विपरीत होते हैं तब क्या होता है? भारत में महिलाओं की सुरक्षा पद्धति और किसी असहाय से फायदा उठाने वाले लोग कितने गिरे हुए हो सकते हैं वो आपको इस पुस्तक में देखने को मिल जायेगा। ‘एक सरकारी विभाग अपनी शाख बचाने के लिए उसी के चरित्र और व्यव्हार पर हमला कर सकती है जो स्वयं पीड़ित है’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण इस पुस्तक में है। हर किसी से अरुणिमा के कटे अंगों को बार-बार काटकर अपना-अपना हित साधने की खूब कयावद की...
परन्तु, जो मौत से लड़ने का साहस रखती हो उसके लिए दुनियाँ से लड़ना कौन-सी बड़ी बात है? उसने सभी आलोचकों और विरोधियों के गाल पर करारा तमाचा उस वक़्त जड़ दिया जब वो बिना किसी का हाथ पकड़े अपने नकली पैरों के सहारे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी और फिर भी निर्णय लिया कि उसे दुनियाँ की सबसे ऊँची चोटी “एवरेस्ट” पर चढ़ना है। अनेक परेशानियों का सामना करते हुए, बर्फ की श्वेत चादर को अपने पैरों से निकलते हुए खून से लाल करके... आगे-आगे कदम बढ़ाते हुए वो दुनियाँ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचती है और इस तरह वो एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम विकलांग महिला और (प्रथम भारतीय विकलांग) का विश्वकीर्तिमान अपने नाम कर लेती है। पर्वतारोहण के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ तथा ‘तेनजिंग नोर्गे अवार्ड’ से सम्मानित किया है। आजकल अरुणिमा सिन्हा जी गरीब और अशक्त जनों के लिए निःशुल्क स्पोर्ट्स अकादमी के लिए प्रयासरत हैं।
एक लड़की जो शारीरिक रूप से दिव्यांग है, गरीब परिवार से है उसने किस तरह अपने मानसिक बल से और संघर्ष से एवरेस्ट की पहली महिला विजेता के पास पहुँची? कैसे उनसे मिलने का जरिया बनाया? क्या-क्या सीखा? कैसे-कैसे चुनातियों से लड़कर आगे बढ़ी? कौन-कौन उनके साथ आया? कौन सहयोगी रहा, किसने टांग पीछे खींची? कैसे धन इत्यादि की व्यवस्था की? कब-कब चढ़ाई के दौरान मरते-मरते बची? ऑक्सीजन ख़त्म होने को था फिर भी एवरेस्ट पर फोटो खिंचवाई और विडियो भी बनवाया... इस सब को जानने के लिए आपको ये पुस्तक “एवरेस्ट की बेटी” पढ़नी चाहिए। बहुत ही प्रेरणादायक है और दुनियाँ की लड़ाई के मैदान में कैसे डटकर खड़े रहना है इसका बहुत बड़ा उदाहरण आपको मिलेगा।
पुस्तक की प्रिंटिंग क्वालिटी सही है पर अच्छा रहता अगर इसके अन्दर के पेज एकदम सफेद होते। इसमें कुछ ख़ास-ख़ास तस्वीरें हैं जो कलर प्रिंट की गयी हैं और फोटोजेनिक पेपर के इस्तेमाल से उनकी चमक भी बढ़ गयी है। कवर की डिजाईन और उस पर लिखे अंश पर्याप्त हैं कि किसी को भी इस पुस्तक की लालसा हो।
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