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Saturday, November 23, 2019

बचपन की यादें और हमारा प्रोटेस्ट (कृषि विज्ञान विशेष)

चित्र : गूगल से साभार
मैंने अपने विद्यालयी शिक्षा के दौरान आठवीं तक कृषि-विज्ञान पढ़ा है। उस समय जो मेरे कृषि-विज्ञान के अध्यापक थे उनका खुद कृषि-कार्यों से दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं था। पढ़ाने का तरीका उनका बहुत बढ़िया था तो पाठ पढ़कर प्रश्नोंत्तर लिखवा दिया करते थे और हम लोग रट्टा मारकर परीक्षा में लिख आते थे। उनकी आदत थी कि कक्षा में पढ़ाते समय कई बार कृषि-विज्ञान से हटकर जीवन की गम्भीरता और नैतिक शिक्षा पर हमारा ज्ञानवर्धन किया करते थे, ये आजीवन हमारे बहुत काम आयेगा।

जब मैं सातवीं कक्षा में था तो परीक्षा के दौरान प्रक्टिकल भी होना था। जिसमें गृह-विज्ञान पढ़ने वाली छात्राओं को विभिन्न व्यंजन बनाकर खिलाने थे और हम लोगों को कृषि कार्य से सम्बन्धित कुछ बनाकर लाना था, जैसे:- रस्सी, डलिया आदि।

जिस दिन प्रक्टिकल था उस दिन लड़कियों ने बढ़िया-बढ़िया व्यंजन विद्यालय में बनाये और गुरूजी लोगों के खाने के बाद जो बचा वो प्रसाद हम लोगों ने छककर उड़ाया। उसके बाद कृषि-विज्ञान वाले शिक्षक ने हम लोगों से पूछा ‘क्या लाये हो?’ तो हम मुँह बनाकर खड़े हो गये। सब लड़के गृह-विज्ञान के प्रक्टिकल में बने समोसा, कचौड़ी, टिक्की, पानी-बताशा आदि से पेट भरकर और हाथ से खाली थे। गुरूजी को गुस्सा भी लगी और समोसा की डकार आयी तो उन्हें कुछ अपमान भी महसूस हुआ कि गृह-विज्ञान वाली मैडम जी अब उन्हें नीचा दिखा सकती हैं क्योंकि उनकी लड़कियों ने इतना कुछ बनाकर खिलाया और गुरूजी के लड़के सब एक लाइन से नालायक और निकम्मे निकल गये। गुरुदेव को काफ़ी गुस्सा लगी तो उन्होंने अपने आशीर्वचनों से हमें कुछ सम्मानित किया, अब गुस्सा होने की बारी हमारी थी। मैं क्लास का मॉनीटर था तो मैंने ही सबका प्रतिनिधित्व करते हुए गुरूजी से कहा कि “जब हमें यहाँ विद्यालय में कुछ बनाने को सिखाया नहीं गया तो हम कैसे बना दें?” मेरी आवाज़ में गुस्सा और आत्मविश्वास एक साथ था क्योंकि मेरे लिए कृषि से सम्बंधित कुछ बनाकर लाना बिलकुल ‘आउट ऑफ़ स्लेबस’ जैसा ही था। सब लड़कों ने भी कुछ बुदबुदाकर मेरा समर्थन कर दिया।

हमारे इस तरह के “प्रोटेस्ट” के बाद गुरूजी ने समोसा खाकर बनाई गयी पूरी ऊर्जा के साथ सबको एक लाइन से 5-5 दण्डे का प्रसाद वितरित किया और आदेश दिया कि अगर कल तक आप लोगों ने कुछ बनाकर विद्यालय में जमा नहीं करवाया तो सब फेल कर दिये जाओगे। यूँ तो ये धमकियाँ हमको इतनी बार मिली थी कि हमें “फेल होने से डर नहीं लगता साहब! दण्डे से लगता है...” हम अपनी चोट में समोसा की चटनी का स्वाद भूल चुके थे और हमारा प्रोटेस्ट शुरू होने से पहले ही कुचल दिया गया। उस समय न ये बातें अख़बार में आ सकती थीं, न मिडिया इसे दिखाता, न इसके पक्ष/विपक्ष में चर्चा करने के लिए फेसबुकिया विद्वान थे। यहाँ तक की हम अपनी शिकायत प्रधानाचार्य जी से भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि हमें लगता था कि अध्यापकों का एक गुट होता है जो सिर्फ हमें मारने के लिए विद्यालय आता है और प्रधानाचार्य जी तो उसके सरदार हैं उन तक गये तो प्रसाद की मात्रा अधिक भी हो सकती है।

हमारे अभिभावक स्कूल और ट्यूशन के अध्यापकों पर इतना भरोसा करते थे कि कभी हमारे दण्डित होने पर शिकायत लेकर विद्यालय नहीं गये। अब तो लोग खुद विद्यालय पहुँच जाते हैं कि हमारे बच्चों को क्यों मारा, तब ऐसा नहीं होता था। उल्टा अगर पापा को गुस्सा लगती थी तो वो मारने का काम अध्यापाकों को सौंप देते थे। एक अध्यापक जिन्होंने मुझे 4 वर्ष की उम्र से 13 वर्ष की उम्र तक लगातार घर आकर ट्यूशन पढ़ाया वो ये काम बखूबी करते थे। उन्होंने ही ABCD भी सिखाई, ‘अ’ से अनार, ‘आ’ से आशीष भी सिखाया और पीटाई भी मन-भर करते थे।

अब फिर से अपनी बात पर आते हैं, हुआ ये कि लड़कियों द्वारा बनाये गये ‘समोसा’ और गुरूजी द्वारा मिली ‘मार’ खाकर हम शाम को विद्यालय से घर पहुँचे और बता दिया कि कल से हम पढ़ने नहीं जायेंगे हमारा नाम अलग लिखवा दो। पूछा गया क्या हुआ तो सब घटना सविस्तार वर्णन कर दिये। हमारे गाँव के एक दादा थे जो लगभग 20 वर्षों से हमारे घर पर काम करते थे। ट्रैक्टर चलाना, भैंस-गाय खिलाना, खेती आदि की सब व्यवस्था वही देखते थे और मेरे बाबा जी (ग्रैंडफादर) जो कि रिटायर्ड पुलिस ऑफिसर थे वो खेती के कार्यों में दादा की सलाह ऐसे मानते थे जैसे उनके उच्च अधिकारी का आदेश हो। हमने दादा से कहकर एक बहुत बढ़िया रस्सी बनवाई। उन दिनों पेटुआ खेत में बोया जाता था फिर उसे तालाब में डुबाकर रखते थे कुछ समय बाद निकालकर उससे सन तैयार किया जाता था और फिर उसकी रस्सी बनती थी। जब रस्सी तैयार हो गयी तो फिर मैंने अपनी क्रियटीविटी दिखानी शुरू की। पास की दुकान से अलग-अलग कलर लेकर आये चवन्नी वाला फिर उसे पानी में खोलकर उसी में रस्सी को कलरफुल बनाया और रात भर सुखाने के बाद अगली सुबह विद्यालय में पेश किया। उस रस्सी की खूब तारीफ हुई, और पूरे विद्यालय में सबको दिखाई गयी। गुरूजी ने सबको बताया कि एक लड़के ने पहली बार रस्सी बनाई और इतनी बढ़िया रस्सी तैयार हुई है। उन्हें क्या पता कि लड़के के दादा ने रस्सी तैयार की है जिनके पूरे जीवन की हर बरसात रस्सी बनाने में बीतती थी। खैर, ये रहस्य आज उजागर हो गया। सब लड़के कोई रस्सी, कोई डलिया लेकर आये और गुरुदेव को समर्पित हुआ। कुछ डलिया विद्यालय में रखी गयी और कुछ गुरूजी अपने घर लेकर चले गये। अब गुरूजी भी खुश और बच्चे भी...
अतीत बड़ा लुभावना होता है चाहे उसमें कडुवाहट हो या मिठास...

- कुमार आशीष
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Saturday, November 16, 2019

बहुत याद आती है वो

चित्र : गूगल से साभार
हमारी जिंदगी में कितना कुछ अचानक हो जाता है न। जब हम मिले थे तब नहीं सोचा था कि कभी बात करेंगे, जब बात किया तब नहीं सोंचा था कि दोस्ती होगी और फिर प्यार होगा, लेकिन ये सब हुआ। अगर पीछे मुड़कर देखें तो लगता है कि जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन वे ही थे जब हम एक-दूसरे के करीब आये। हम कितना खुश रहते थे, ऐसा लगता था अब किसी और चीज की जरूरत ही नहीं मानो जैसे जिंदगी पूर्ण हो गयी हो। लेकिन जिस तरह हमें अनचाही खुशियाँ मिलती हैं उसी तरह हमें कई बार अनचाहे दुःख भी मिलते हैं, जो आज हमारे साथ हो रहा है। इतना लंबा समय बीत गया और पता भी नहीं चला ऐसा लगता है जैसे नींद में थे अब उठे हैं तो हमारे संग-संग जीने के वो हसीन ख्वाब टूटकर बिखर गये हैं। काश! ऐसा ही होता जैसे हम कभी जब सोकर उठते हैं तो सपने में मिली उपलब्धियों के खोने का कोई दुःख नहीं होता बस याद करके मुस्कुराते हैं और जिंदगी के साथ दौड़ में शामिल हो जाते हैं, लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा है, आज इस ख्वाब के टूटने का बहुत दुःख है। जीवन में कई क्षण ऐसे आते हैं जब हमें आगे का रास्ता कदाचित् साफ़-साफ़ दिखायी नहीं पड़ता, ऐसे में हम अनुमान के सहारे आगे बढ़ते हैं। आज ऐसा ही एक क्षण है जब हम दोनों को अनुमान के सहारे आगे बढना है, क्योंकि हमारे प्रेम के बीच में रस्म-औ-रिवाज की एक बन्दिश है। आज अगर हम अपने ख्वाब पूरा करने की सोंचे तो बहुत सी आँखों के ख्वाब टूट जायेंगे, तो बहुत से चेहरों को उदास करने से अच्छा है हम ही अपना दुर्भाग्य समझ लें। आज एक दुनियाँ उजड़ रही है लेकिन कल को इसी खण्डहर पर अनेकों नव-निर्माण होंगे। अभी हमें चारों तरफ अँधेरा-ही-अँधेरा दिखायी दे रहा है लेकिन ये भी है कि इस क्षितिज के उस पार कहीं कोई उजाले की किरण अवश्य होगी। ये सच है कि दुनियाँ की नज़रों में अब हमारा एक-दूसरे से कोई वास्ता नहीं लेकिन हम तो एक-दूसरे की आँखों में रहकर रोज मिलेंगे। इसलिये ध्यान रखना कि जब-जब मैं अपने प्यार के बारे में सोंचूँ या आईना देखूँ तो मेरा सर फक्र से उठा हो मैं नहीं चाहता तुम कोई ऐसा काम करो जिससे मुझे शर्मिंदगी हो और मैं भी वादा करता हूँ मैं कभी भी कुछ ऐसा नहीं करूँगा तो तुम्हें अच्छा न लगे। तुम चाहती थी कि मैं कविता लिखना न छोडूँ तो नहीं ठीक है नहीं छोडूँगा यही मेरा तुम्हें आखिरी उपहार है। हम हमेशा एक-दूसरे के दिल की धड़कन बनकर धड़कते रहेंगे इसी वादे के साथ अलविदा...

- कुमार आशीष
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Saturday, November 9, 2019

श्री जवाहर लाल नेहरु जी

चित्र : गूगल से साभार


स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी को आज़ादी और स्वतन्त्र भारत के विकास में उनके योगदानों के प्रति हम कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी का जन्म 14 नवंबर सन् 1889 को इलाहाबाद में हुआ था। इनके पिता जी का नाम श्री मोतीलाल नेहरु था और माता जी का नाम श्रीमती स्वरूपरानी था। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी के पिता श्री मोतीलाल नेहरु जी इलाहाबाद के प्रसिद्ध वकील और धनाड्य व्यक्ति थे। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी की अध्ययन में रूचि होने से उन्हें अंग्रेजी, हिंदी और संस्कृत का अच्छा ज्ञान था। वो उच्च शिक्षा के लिए 1905 में विदेश चले गए और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से लॉ की डिग्री हासिल की। अपनी शिक्षा पूरी करके सन् 1912 में वो भारत लौटे और वकालत शुरू की। 1916 में उनकी शादी कमला नेहरू से हुई। पण्डित नेहरु जी की सुपुत्री का नाम इंदिरा प्रियदर्शनी था। यही प्रियदर्शिनी आगे चलकर स्वतन्त्र भारत की प्रथम महिला प्रधानमन्त्री बनीं और अपने अदम्य साहस से बड़े-बड़े निर्णय लिए तथा 'लौह-महिला' श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नाम से प्रसिद्ध हुईं।

सन् 1917 में पण्डित जवाहर लाल नेहरू जी 'होम रुल लीग'‎ में शामिल हो गये। राजनीति में उनकी असली दीक्षा दो साल बाद सन् 1919 में हुई जब वे महात्मा गाँधी जी के संपर्क में आये। उस समय महात्मा गाँधी जी ने ‘रॉलेट अधिनियम’ के खिलाफ एक अभियान शुरू किया था। पण्डित नेहरू जी, महात्मा गाँधी जी के सक्रिय लेकिन शान्तिपूर्ण, 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' के प्रति खासे आकर्षित हुए। दिसम्बर 1929 में, 'कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन' लाहौर में आयोजित किया गया, जिसमें पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष चुना गया। इसी सत्र के दौरान एक प्रस्ताव भी पारित किया गया जिसमें 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की गई। 26 जनवरी 1930 को लाहौर में पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने 'स्वतंत्र भारत का झंडा' फहराया। उसके बाद 15 अगस्त 1947 को उन्होंने देश के पहले प्रधानमन्त्री के रूप में लालकिले से तिरंगा फहराया और राष्ट्र को सम्बोधित किया। अंग्रेजों ने करीब 500 देशी रियासतों को एक साथ स्वतंत्र किया था और उन्हें एक झंडे के नीचे लाना उस वक्त की सबसे बडी चुनौती थी। पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने आधुनिक भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने 'योजना आयोग' का गठन किया, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को प्रोत्साहित किया और तीन लगातार पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया। उनकी नीतियों के कारण देश में कृषि और उद्योग का एक नया युग शुरु हुआ। नेहरू ने भारत की विदेश नीति के विकास में एक प्रमुख भूमिका निभायी। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी ने 6 बार कांग्रेस अध्यक्ष के पद को सुशोभित किया। सन् 1942 के 'भारत छोड़ो' आंदोलन में नेहरूजी 9 अगस्त 1942 को बंबई में गिरफ्तार हुए और अहमदनगर जेल में रहे, जहाँ से 15 जून 1945 को रिहा किये गये। नेहरू ने पंचशील का सिद्धांत प्रतिपादित किया और 1954 में 'भारतरत्न' से अलंकृत हुए नेहरूजी ने तटस्थ राष्ट्रों को संगठित किया और उनका नेतृत्व किया। पंडित जवाहरलाल नेहरू जी के कार्यकाल में लोकतांत्रिक परंपराओं को मजबूत करना, राष्ट्र और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को स्थायी भाव प्रदान करना और योजनाओं के माध्यम से देश की अर्थव्यवस्था को सुचारू करना उनके मुख्य उद्देश्य रहे। पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी के विषय में ‘मिसाइल मैन’ वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम सर ने अपनी आत्मकथा 'अग्नि-की-उड़ान' में लिखा है:- “भारत में रॉकेट विज्ञान के पुनर्जन्म का श्रेय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के नई प्रौद्योगिकी के विकास की दृष्टि को जाता है। उनके इस सपने को साकार बनाने की चुनौती प्रो. साराभाई ने ली थी। हालाँकि कुछ संकीर्ण दृष्टि के लोगों ने उस समय यह सवाल उठाया था कि हाल में आजाद हुए जिस भारत में लोगों को खिलाने के लिए नहीं है उस देश में अंतरिक्ष कार्यक्रमों की क्या प्रासंगिकता है। लेकिन न तो प्रधानमंत्री नेहरु और न ही प्रो. साराभाई में इस कार्यक्रम को लेकर कोई अस्पष्टता थी। उनकी दृष्टि बहुत साफ़ थी— ‘अगर भारत के लोगों को विश्व समुदाय में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तो उन्हें नई-से-नई तकनीक का प्रयोग करना होगा, तभी जीवन में आने वाली समस्याएँ हल हो सकेंगी।’ इनके माध्यम से उनका अपने शक्ति प्रदर्शन का कोई इरादा नहीं था।”

जैसा कि लगभग हर नेता के जीवन में विवाद अक्सर जुड़े रहते हैं, ऐसे ही पण्डित नेहरु जी भी इससे बच नहीं पाये। पण्डित नेहरू जी को महात्मा गाँधी जी के राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर जाना जाता है। गाँधी जी पर यह आरोप भी लगता है कि उन्होंने राजनीति में नेहरू जी को आगे बढ़ाने का काम सरदार वल्लभभाई पटेल समेत कई सक्षम नेताओं की कीमत पर किया। जब आजादी के ठीक पहले कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात थी और माना जा रहा था कि जो कांग्रेस अध्यक्ष बनेगा वही आजाद भारत का पहला प्रधानमन्त्री होगा, तब भी गाँधी जी ने प्रदेश कांग्रेस समितियों की सिफारिशों को अनदेखा करते हुए नेहरू को ही अध्यक्ष बनाने की दिशा में सफलतापूर्वक प्रयास किया। इससे एक आम धारणा यह बनती है कि पण्डित नेहरू ने न सिर्फ महात्मा गाँधी जी के विचारों को आगे बढ़ाने का काम किया होगा बल्कि उन्होंने उन कार्यों को भी पूरा करने की दिशा में अपनी पूरी कोशिश की होगी जिन्हें खुद गाँधी जी नहीं पूरा कर पाए। लेकिन सच्चाई इसके उलट है। यह बात कोई और नहीं बल्कि कभी पण्डित नेहरू जी के साथ एक टीम के तौर पर काम करने वाले श्री जयप्रकाश नारायण ने 1978 में आई पुस्तक ‘गाँधी टूडे’ की भूमिका में कही थी। जेपी ने नेहरू के बारे में कुछ कहा है तो उसकी विश्वसनीयता को लेकर कोई संदेह नहीं होना चाहिए क्योंकि नेहरू से जेपी की नजदीकी भी थी और मित्रता भी। लेकिन इसके बावजूद जेपी ने 'नेहरू मॉडल' की खामियों को उजागर किया।

समस्त राजनीतिक विवादों से हटकर बात करें तो राजनीतिक क्षेत्र में लोकमान्य तिलक के बाद सक्रीय रूप से लिखने वाले नेताओं में नेहरु जी का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नेहरू जी ने व्यवस्थित रूप से अनेक पुस्तकों की रचना की है। राजनीतिक जीवन के व्यस्ततम संघर्षपूर्ण दिनचर्या के चलते उन्हें लेखन का समय बहुत कम मिल पाता था, इसका हल उन्होंने यह निकाला कि वो अपने जेल के लम्बे दिनों को लेखन में बिताने लगे। उन्होंने अपनी अधिकाँश पुस्तकों की रचना जेल में ही की है। एक लेखक के रूप में उनमें एक साहित्यकार के साथ एक भाव प्रधान व्यक्ति भी दिखाई देता है। इसके साथ ही उन्हें ऐतिहासिक खोजी लेखक की तरह भी देखा जा सकता है। पण्डित नेहरु जी अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को पत्र लिखा करते थे, ये पत्र वास्तव में कभी भेजे नहीं गये। परन्तु इससे विश्व इतिहास की झलक जैसा सुसंबद्ध ग्रंथ तैयार हो गया। 'भारत की खोज' (डिस्कवरी ऑफ इण्डिया) की लोकप्रियता के चलते उस पर आधारित 'भारत एक खोज' नाम से एक धारावाहिक भी बनाया गया था। उनकी आत्मकथा 'मेरी कहानी' के बारे में सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी का मानना है कि उनकी आत्मकथा, जिसमें जीवन और संघर्ष की कहानी बयान की गयी है, हमारे युग की सबसे अधिक उल्लेखनीय पुस्तकों में से एक है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकें की सूची इस प्रकार है:-
  1. पिता के पत्र : पुत्री के नाम - 1929
  2. विश्व इतिहास की झलक - 1933
  3. मेरी कहानी - 1936
  4. भारत की खोज/हिन्दुस्तान की कहानी (दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया) - 1945
  5. राजनीति से दूर
  6. इतिहास के महापुरुष
  7. राष्ट्रपिता
  8. जवाहरलाल नेहरू वाङ्मय (11 खंडों में)
चार बार पण्डित नेहरू जी की हत्या का प्रयास किया गया था। पहली बार 1947 में विभाजन के दौरान, दूसरी बार 1955 में एक रिक्शा चालक ने, तीसरी बार 1956 और चौथी बार 1961 में मुंबई में। 27 मई, सन् 1964 को हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। भारतीय बच्चे उन्हें प्यार से ‘चाचा नेहरू’ के रूप में जानते हैं। यही कारण है कि उनके जन्मदिवस को आज भी भारत में ‘बाल-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

- कुमार आशीष
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Saturday, November 2, 2019

सच्चे प्यार का सच्चा वादा

मुझे तुमसे अपने ह्रदय की बात कहना है,
मुझे तो ज़िन्दगी भर बस तुम्हारे साथ रहना है।
मेरा वादा नहीं है चाँद-तारे तोड़ लाने का,
मेरा वादा नहीं है उस फ़लक पर घर बनाने का।
मेरा वादा नहीं है कि तेरी हर बात मानूँगा,
न वादा है कि बिन कहे हर बात जानूँगा।
परेशानी में अक्सर ही तुम्हें रुशवा करूँगा मैं,
तेरी छोटी सी गलती पर बहुत गुस्सा करूँगा मैं।
मेरा वादा नहीं है कि तुम्हें हर पल हँसाऊँगा,
मुझे तुम छोड़ मत जाना भले कितना रुलाऊँगा।
मैं जानता हूँ मैं तुम्हें ज्यादा सताता हूँ,
तुम्हें दिल की सभी बातें भी अक्सर कम बताता हूँ।
मेरा वादा है मैं अपनी सब कसमें निभाऊँगा,
तुझे पाने की खातिर मैं सभी रस्में निभाऊँगा।

तुम्हें सब देखकर बोलेंगे कि छप्पर में रहती हो,
तुम्हें ऐसा लगेगा जैसे कि महलों में बैठी हो।
तुम्हें गीतों में रचकर मंच से फिर गुनगुनाऊँगा,
तुम्हारे प्यार की बातें ज़माने को सुनाऊँगा।
तेरी साँसों के सँग दिल तक तेरे हर बार आऊँगा,
तुझसे मिलने को तेरे घर बनके मैं अखबार आऊँगा।

मेरी चाहत नहीं है चाँद से दीदार हो जाये,
मैं चूमूँ आसमां को कोई चमत्कार हो जाये।
मेरी चाहत है इतनी सी कुछ ऐसा यार हो जाये,
मेरी तरह तुमको भी मुझसे प्यार हो जाये।

देने को मैं तुम्हें बस चुटकी भर सिन्दूर दे दूँगा,
और उसके सँग जीवन भर का अपना नूर दे दूँगा।
तुम्हें गीतों में लिख-लिख कर बहुत अजान कर दूँगा,
और अपने दिल की दुनियाँ को तुम्हारे नाम कर दूँगा।
तुम्हें रोमाँचित करती सुबह और शाम दे दूँगा,
तुम्हें अपनी सफलतायें सभी अविराम दे दूँगा।

तुम्हें अपने जीवन का सबसे कीमती उपहार दे दूँगा,
तुम्हारे हिस्से में मैं अपनी माँ का प्यार दे दूँगा।
मेरा वादा है कि मैं सब वादे निभाऊँगा,
तुम्हें गीतों का ग़ज़लों का बड़ा संसार दे दूँगा।

- कुमार आशीष
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Tuesday, October 29, 2019

नमक स्वादानुसार

नाम                   -  नमक स्वादानुसार
लेखक                -  निखिल सचान
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  165 पेज
मूल्य                  -  ₹78
प्रकाशक            -  हिन्दी युग्म
खरीद                -  Amazon (Buy Now)

ये पुस्तक निखिल सचान जी की लिखी कहानियों का संग्रह है। इसमें वर्णित सभी कहानियाँ बहुत ज़मीनी हैं, कई बार पढ़ते हुए आप कहानियों को स्वयं से जोड़ पायेंगे। साधारण-से-साधारण शब्द जो हम रोज़मर्रा में इस्तेमाल करते हैं उन्हें छोड़कर शायद ही कोई ऐसा शब्द इस पूरी पुस्तक में मिले जिसके लिए आपको शब्दकोश की सहायता लेनी पड़े। इसमें बच्चों के लिए भी कहानियाँ हैं परन्तु पूरी पुस्तक बच्चों के लिए नहीं है। बिना लाग-लपेट के सीधी-सादी बात कहने का लेखक के पास बढ़िया हुनर है जो इस किताब में साफ़ दिखाई देता है। वैसे किसी भी लेखक पर सिर्फ एक किताब पढ़कर टिपण्णी करना उचित होगा या नहीं ये मैं अभी नहीं कह सकता हूँ। लेकिन मैं निखिल सर की और जो किताबें मार्केट में उपलब्ध हैं उन्हें पढ़कर ये जानने को उत्सुक हूँ कि लेखक ने एक ही शैली में सब पुस्तकें लिखी हैं या सबकी शैली भिन्न-भिन्न हैं। अगर भिन्न हो तो ही ज्यादा बेहतर रहेगा। वैसे किसी ने कहा है कि "किताब की विषय-वस्तु और खाने में नमक स्वादानुसार ही अच्छा लगता है।" इसलिए मैं ये नहीं दावा कर सकता कि ये पुस्तक आपको अच्छी लगेगी या  बुरी...

वैसे तो किसी भी पुस्तक पर मेरे द्वारा लिखे गये सभी विचार मेरे व्यक्तिगत ही होते हैं, उन्हें ‘पुस्तक की समीक्षा’ समझने की जगह केवल ‘मेरा नज़रिया’ कहना ज्यादा उचित होगा, परन्तु इस निजता बावजूद मेरा थोड़ा और व्यक्तिगत मानना ये है कि "आप कितने भी अच्छे लेखक हों, आपकी कितनी भी बेस्ट सेलिंग पुस्तकें बाज़ार में छायी हों, आपकी फैन फॉलोयिंग कितनी भी भारी मात्रा में हो फिर भी यदि आपके लेखन में (खासकर यदि आप हिन्दी में लिख रहे हैं) कोई एक शब्द भी ‘अश्लील’ आता है तो मैं ये कहूँगा कि आपको लेखन में अभी और परिक्क होना बाक़ी है।" मुझे लगता है कि दुनियाँ की शायद ही ऐसी कोई स्थिति हो जिसे हिन्दी जैसी समृद्ध और विशाल शब्दकोश वाली ‘मर्यादित भाषा’ में प्रस्तुत करते हुए आपको ‘अश्लील या अमर्यादित’ शब्दों का प्रयोग करना पड़े।

इस पुस्तक का सबसे बड़ा ‘निगेटिव पॉइंट’ मेरी नज़र में यही है। लेकिन ये टिपण्णी इस लेखक के लिये नहीं है बल्कि उन लेखकों के लिए है जिन्होंने ‘अश्लीलता को सफ़लता का अधियार बना रखा है।‘ जब मैं इस लेखक (निखिल सचान सर) की और पुस्तकें पढ़ लूँगा तब निर्णय ले पाउँगा कि ये टिपण्णी इनके लिए है या नहीं, फिलहाल इस किताब में प्रयुक्त हुए अश्लील शब्द मेरे हिसाब से जबरदस्ती धोपे गये हैं उनकी ज़रूरत बिलकुल भी नहीं थी। उम्मीद है आप समझ गये होंगे कि पुस्तक के अच्छी या बुरी लगने के दावे को मैंने पहले ही क्यों खारिज़ कर दिया था। इस पुस्तक में कुल 9 कहानियाँ हैं जिनमें से मुझे जो पसन्द आयी उनकी सूची इस प्रकार है:-
  • परवाज़
  • हीरो
  • टोपाज़ (अगर ये मेरी कहानी होती तो इसका शीर्षक मैं 'लास्ट लीफ़' रखता)
  • साफ़े वाला साफ़ा लाया
  • विद्रोह
इन सबके अतिरिक्त आधुनिक प्रिंटिंग क्वालिटी के साथ मुद्रित कवर का डिजाईन सुन्दर और आकर्षक है। अन्दर के पेज साधारण हैं उसमें कोई ख़ास डिजाईन नहीं हुई है। हाँ! इसके बैक कवर पर जो कुछ लिखा है उसमें लाल रंग प्रयुक्त हुआ है और कवर का रंग काला है। यदि काले पर लाल की जगह पीला से लिखा जाता तो बैक कवर में अलग ही चमक होती जो अभी देखने को नहीं मिलती है। बैक कवर पर ही लेखक की तस्वीर और सोशल मिडिया लिंक मुद्रित है अगर इसी के साथ उनका थोड़ा व्यक्तिगत जीवन परिचय भी दिया रहता तो और बेहतर था। इस किताब को पढ़ने या न पढ़ने के लिए मैं नहीं कहूँगा ये आप ऊपर दिए विवरण और अमेज़न पर दिए गये प्रतिक्रियाओं को पढ़कर खुद निर्णय करे। हाँ! यदि आपको ज़मीन से जुड़ी कहानियों को थोड़ा मिर्च, मसाला के साथ पढ़ने का मन हो तो आप ये पुस्तक ले सकते हैं। इसमें अपनी समझ का ‘नमक स्वादानुसार’ मिलाकर आनन्दित हो सकते हैं।

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जीवन वृक्ष

नाम                   -  जीवन वृक्ष
लेखक                -  डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  144 पेज
मूल्य                  -  ₹105
प्रकाशक            -  प्रभात प्रकाशन
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इससे पहले कि मैं पुस्तक के विषय में कुछ लिखूँ आपका ध्यान कवर की तरफ आकर्षित करना चाहूँगा। इस पुस्तक की भूमिका देश के भूतपूर्व प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी जी ने लिखी है। वे स्वयं भी लोकप्रिय राजनेता के साथ-साथ बहुत शानदार कवि थे। ये पुस्तक डॉ. अब्दुल कलाम जी की तमिल और अंग्रेजी कविताओं का हिन्दी अनुवाद है। इस पुस्तक में कविताओं के साथ-साथ उसकी विषयवस्तु और किस परिस्थिति में उनकी रचना हुई वो भी बताया गया है। डॉ. कलाम ने जीवन की तमाम घटनाओं को कविता में ढाला है, इसीलिए हर कविता से आप स्वयं का जुड़ाव महसूस कर सकते हैं। सभी कविताओं में जिस तरह के हिन्दी शब्दों का चयन किया है उसके लिए अनुवादक (श्री अरुण तिवारी जी और राकेश शर्मा जी) की और उपमाओं को जिस शानदार तरीके और नयेपन के साथ प्रयोग किया गया है उसके लिए डॉ. कलाम साहब की जितनी तारीफ़ की जाये कम होगी। डॉ. कलाम की रचना है तो सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि इसकी हर कविता में एक सन्देश है जो आदर्श जीवन की प्रेरणा देता है। उनका तो पूरा जीवन जी अनुकरणीय है और उसी का प्रतिबिम्ब उनकी रचनाएँ भी होती हैं। उनकी दो पुस्तकें “अग्नि की उड़ान” और “मेरी जीवन यात्रा” मैं पहले ही पढ़ चुका हूँ। अब “जीवन वृक्ष” पढ़ते हुए पिछली दोनों पुस्तकों में वर्णित कई घटनाओं का पद्य रुपान्तरण पढ़ने का आनन्द प्राप्त हुआ है। जीवन वृक्ष में कुल 49 कविताएँ हैं और ये कह पाना कि कौन-सी सबसे अच्छी है मेरे लिए तो लगभग असम्भव ही है। उनकी पहली कविता का शीर्षक है “तरूणाई” उसकी एक पंक्ति है “मैं महसूस करता हूँ कि छोटा लक्ष्य रखना एक अपराध है” ऐसे ही एक कविता जिसका शीर्षक “आँसू” है, उसकी एक पंक्ति है “ये आँसू ही तुमको बनायेंगे महान्” इसी तरह इसमें हर कविता बहुत उम्दा और प्रेरणादायक है। मैं जीवन चक्र को समझने के लिए जीवन वृक्ष को अवश्य पढ़ने का सुझाव दूँगा। 

इस पुस्तक की प्रिटिंग क्वालिटी प्रभात प्रकाशन की अन्य पुस्तकों की तरह ही बढ़िया है। इसका कवर भी बहुत सुन्दर है जिस पर लगी हुई डॉ. कलाम की तस्वीर (साभार) राष्ट्रपति भवन से ली गयी है। इसके आलावा जो इस पुस्तक के अन्दर के पेज हैं उसमें प्रत्येक के दाहिने तरफ फूलों जैसी चित्रकारी की गयी है जो इस पुस्तक को अनायास ही बहुत आकर्षक बनाते हैं। डॉ. अब्दुल कलाम जी के साथ-साथ पण्डित श्री अटल बिहारी बिहारी वाजपेयी जी की भूमिका लेखन वाली इस पुस्तक के एक बार अवश्य पढ़ें। 

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Monday, October 28, 2019

टोपी शुक्ला

नाम                   -  टोपी शुक्ला
लेखक                -  डॉ. राही मासूम रज़ा
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  114 पेज
मूल्य                  -  ₹100
प्रकाशक            -  राजकमल प्रकाशन
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बी. आर. चोपड़ा जी द्वार निर्देशित ‘महाभारत’ धारावाहिक के अमर संवादों का लेखन करने वाले ‘डॉ. राही मासूम रज़ा’ द्वारा रचित उपन्यास ‘टोपी शुक्ला’ वास्तव में बलभद्र नारायाण शुक्ला उर्फ़ टोपी शुक्ला का जीवन परिचय है। पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “टोपी शुक्ला में एक भी गाली नहीं है। परन्तु शायद यह पूरा उपन्यास एक गन्दी गाली है। यह उपन्यास अश्लील है- जीवन की तरह। ‘यह कहानी इस देश, बल्कि इस संसार की कहानी का एक स्लाइस है।‘

हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों पर करारे व्यंगात्मक शैली में लिखा गया ये उपन्यास सचमुच आज की परिस्थिति को आईना दिखा रहा है जिसकी सूरत बहुत ही ख़राब है। इसी में एक जगह लिखा है कि “हिन्दू-मुसलमान अगर भाई-भाई हैं तो कहने की ज़रूरत नहीं। यदि नहीं हैं तो कहने से क्या फ़र्क पड़ेगा?" इस कहानी का जो प्रमुख पात्र टोपी शुक्ला है, उसे कुछ जगह नौकरी इसलिए नहीं मिलती क्योंकि वह हिन्दू है और कुछ जगह इसलिए नहीं मिलती क्योंकि वह मुस्लिम है। इस पुस्तक के अनुसार इस देश में सभी जातियों के लिए थोड़ा या ज्यादा जगह की गुंजाइश है पर जो हिन्दुस्तानी है वो कहाँ जाये? यह उपन्यास जहाँ हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों की सच्चाई उजागर करता है वहीं एक तीखा प्रश्न भी समाज के सामने लाकर रख देता है, जिस पर बड़े-बड़े सामाजिक ठेकेदारों को सोचने और उत्तर खोजने की ज़रूरत है। उपन्यास के अन्त में टोपी शुक्ला उन लोगों से कंप्रोमाइज नहीं कर पाता है जो समाज के तथाकथित ठेकेदार हैं, जो टोपी शुक्ला से इसीलिए नफरत करते हैं क्योंकि वो हिन्दू होकर भी मुसलमानों से हमदर्दी रखता है, उनके साथ रहता है। इसीलिए  जब टोपी शुक्ला को नौकरी मिलती है तो वो आत्महत्या कर लेता है। ‘आत्महत्या’ वाली बात लिखकर मैं इस पुस्तक के क्लाइमैक्स का उजागर नहीं कर रहा हूँ क्योंकि ये पूरी पुस्तक हर पन्ने पर क्लाइमैक्स है। उसे उजागर करने के लिए मुझे पूरी किताब ही यहाँ लिखनी पड़ेगी। परन्तु मैं ऐसा करने वाला नहीं हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि एक बार आप इस पुस्तक को जरूर पढ़ें। इस पुस्तक के लगभग सभी किरदार मुख्य भूमिका में नज़र आते हैं, केवल कुछ को छोड़कर (जो मुख्य पात्र में नहीं है) सभी पात्र में आप स्वयं को पायेंगे। ऐसा लगेगा कि ये कहानी आपकी ही है। जैसे-जैसे पन्ने पलटते जायेंगे आप अपना भी किरदार बदलते जायेंगे और यही बात मुझे इस पुस्तक की सबसे ख़ास लगी। इसी पुस्तक में कथाकार कहता है कि “कोई कहानी कभी बिलकुल किसी एक की नहीं हो सकती। कहानी सबकी होती है और फिर भी उसकी ईकाई नहीं टूटती है।“

इस पुस्तक की प्रिंटिंग क्वालिटी आधुनिकता के हिसाब से ठीक है। परन्तु इसके कवर में बहुत हल्का पेपर इस्तेमाल हुआ है जो कि अब प्रचलन में बहुत कम देखने को मिलता है। इसका फ्रंट कवर कहानी की गाथा से मैचिंग करता नहीं लग रहा है। (ये मेरा व्यक्तिगत मत ही है क्योंकि बनाने वाले ने जरूर कुछ सोचा होगा।) परन्तु कवर पर कुछ पात्र हैं जो आपस में बातचीत करते दिखाये गये हैं वो सभी मुस्लिम भेषभूषा में हैं जबकि कहानी हिन्दू-मुस्लिम रिश्ते पर है तो कवर में दोनों का उल्लेख इसे शायद और बेहतर बनाता। बैक कवर पर ‘राही मासूम रज़ा’ साहब की तस्वीर के पुस्तक का उपसंहार और भूमिका की एक पंक्ति इसे पढ़ने को लालायित करती है। इन सब के अतिरिक्त मैं फिर से कहना चहूँगा कि पुस्तक की विषयवस्तु और लेखन बहुत उम्दा है। भाव अतिउत्तम हैं, आपको ये  पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।  


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Sunday, October 27, 2019

दीपावली पर माँ भारती के पुत्रों को पत्र


ईश्वरीय स्वरुप सम्माननीय भारती पुत्रों!
चरणस्पर्श

सर्वप्रथम आप सभी को पूरे देश की तरफ से दीपावली की अनन्त शुभकामनाएँ! अद्भुत स्थिति है, आज पूरे देश में हर्षोल्लास के साथ दीपकोत्सव का पावन पर्व मनाया जा रहा है और आपके पास आज भी सिवाय शुभकामनाओं के और कुछ भी नहीं। हमने अपने घरों को लाइट्स से सजाया है, सैकड़ों दीपक जल रहे हैं, मिठाइयाँ बाँटी जा रही हैं। लाई-बताशे का पहला फाँका मारकर लोग ज्ञान दे रहे हैं कि चायनीज़ लाइट्स का इस्तेमाल गलत है, पटाखों से प्रदुषण फ़ैलता है और जाने क्या-क्या... परन्तु आप लोग इन सब राजनितिक/सामाजिक बयानबाजी से दूर श्वेत हिम की चादर पर हाथियारों के साथ खड़े, जीवन और मृत्यु के मोहबंधन से स्वतन्त्र, चौकन्ने होकर सिर्फ ये सोच रहे हैं कि आपसे कोई चूक न हो जिससे देश में चल रहे हर्षोत्सव में विघ्न न पड़े। ‘शुभ-दीपावली’ में कोई ‘अशुभ, अप्रिय’ घटना न हो, किसी के अन्तःकरण में किसी प्रकार का अँधेरा न रह जाये। हज़ारों फीट ऊँचाई पर खड़े बर्फीली हवाओं का शोर सुनते हुए, लगातार अपनी मौत को आँखे दिखाकर, या रेगिस्तान में उड़ते रेतों के बवण्डरों की धूल फाँककर जीने के बावज़ूद जो आपकी सतर्कता है उसी के बलबूते आज भारत जगमग कर रहा है। भारत के त्यौहारों और माँ भारती के चेहरे की रौनक के प्रथम कारण आप लोग ही हैं। आपसे ही देश की सुरक्षा है, आपसे ही देश में खुशियाँ हैं, आपसे ही देश में रौशनी का अम्बार लगा है। पता नहीं इस वक़्त देश के कितने लोग आपको याद कर रहे होंगे, परन्तु वो माँ जिसने दूध के माध्यम से अपनी रगों में बहने वाला रक्त पिलाकर आपको पालापोसा था, वो पिता जिसने फटी बनियान के जेब में से रूपये निकालकर आपको पढ़ाया-लिखाया, वो बहन जिसकी कई वर्षों से राखी प्रतीक्षा में है कि भैया घर आये तो त्यौहार हो, वो पत्नी जिसके सिन्दूर रोज़ उससे पूछते हैं कि जिसके लिए माथे पर सजा रही हो वो माथा चूमने कब आयेगा, वो भाई जो गर्व से सीना चौड़ा करके गाँव भर में बताता रहता है कि उसका भैया सैनिक है, वो गाँव वाले जिन्हें आपकी फ़िक्र लगी रहती है, वो आपका हर “आशीष” जो आपकी याद में पत्र लिख रहा है वो सब आपको बहुत याद कर रहे हैं। मैं पूरे देश की तरफ से कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए आपके और आपके परिवार वालों के महानतम त्याग को प्रणाम करता हूँ। ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि आपको दीर्घजीवन प्रदान करें, आपके जीवन में खुशियों का दीपक सदैव जगमगाता रहे। पुनः दीपकोत्सव की बहुत-बहुत बधाईयाँ...

- कुमार आशीष
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Saturday, October 26, 2019

भारत की अखण्डता और सरदार पटेल

चित्र : गूगल से साभार

आज का विषय है - “भारत की अखण्डता और सरदार पटेल” इससे पहले कि मैं भारत की अखण्डता या उसमें सरदार पटेल जी के योगदानों की चर्चा शुरू करूँ, एक संक्षिप्त परिचय सरदार पटेल जी का प्राप्त कर लेते हैं।

‘सरदार पटेल’ के नाम से प्रसिद्ध भारतीय राजनीति के अति-महत्वपूर्ण व्यक्तित्व का पूरा नाम वल्लभ भाई झावेर भाई पटेल था। पटेल जी का जन्म गुजरात राज्य के नडियाद नामक स्थान पर 31 अक्टूबर 1875 को हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लाडबा देवी की चौथी संतान थे। मुख्यतः स्वाध्याय से अपनी शिक्षा की शुरुआत करने वाले सरदार पटेल जी ने लन्दन जाकर बैरिस्टर की पढ़ाई की। पढ़ाई ख़त्म होने के अगले दिन वो स्वदेश लौटे और अहमदाबाद में वक़ालत करने लगे। लन्दन में अध्ययन और निवास के दौरान सुबह से लेकर रात लाइब्रेरी बन्द होने तक वो पढ़ते रहते थे। एक दिन में सत्रह-सत्रह घंटे पढ़ाई करने का ही चमत्कार था कि छात्रवृत्ति के साथ फीस माफ़ी का भी फायदा पाते थे। उसके बाद जब वक़ालत शुरू की तो विपक्षी अधिवक्ता क्या कई बार तो जज तक को अपने ज्ञान और वाक्पटुता से आश्चर्यचकित कर देते थे। हर मुकदमें में पूरा समय और जी-जान लगाने का फायदा ये होता था कि वो लगभग हर मुकदमा जीत जाते थे, जिससे उन्हें खूब काम, धन और यश प्राप्त हुआ। कहते हैं एक बार जब वो किसी मुकदमें को लेकर अदालत में बहस कर रहे थे तभी उन्हें एक तार प्राप्त हुआ, उन्होंने उसे पढ़कर टेबल पर रख दिया और केस जारी रखा। जब बहस समाप्त हुई और वो केस जीत गये तो उन्होंने अपने सहयोगियों को बताया कि तार में लिखा है कि उनकी पत्नी का देहान्त हो गया है। केस के बीच में ही ये जानकार भी जिस धैर्य के साथ वो अपने काम में लगे रहे वो सचमुच अद्भुत था और वहाँ उपस्थित सभी लोगों को आश्चर्यचकित करने वाला था। 

सरदार पटेल जी ने जब अपना व्यवसायिक जीवन शुरू किया तो वो बहुत शान-ओ-शौकत से रहते थे। परन्तु धीरे-धीरे गाँधी जी के विचारों और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनका भी झुकाव भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलनों में होने लगा। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल जी ने सबसे पहला और बड़ा योगदान खेडा संघर्ष में दिया। गुजरात का खेडा खण्ड उन दिनो भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की माँग की, जो कि जाहिर है अंग्रेज कभी पूरी नहीं करते। परन्तु तब सरदार पटेल जी ने उन किसानों का नेतृत्व किया तथा लोगों को कर न देने के लिए प्रेरित किया, परिणामस्वरुप सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी।

इस तरह सार्वजानिक जीवन में प्रवेश के बाद सरदार पटेल बस देश के होकर रह गये। खेडा सत्याग्रह के अलावा नागपुर झण्डा सत्याग्रह, बोरसद सत्याग्रह, रॉलेट एक्ट का विरोध, बारदोली सत्याग्रह, असहयोग आन्दोलन, सविनय अवज्ञा आन्दोलन, त्रिपुरी सम्मलेन, क्रिप्स मिशन, भारत छोड़ो आन्दोलन, शिमला आन्दोलन कैबिनेट मिशन, आंतरिक सरकार में भी उनका योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के समय चौरी-चौरा हत्याकाण्ड के फलस्वरूप जब गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी तो देश की सामान्य जनता के साथ-साथ अनेक चोटी के नेताओं को भी बहुत निराशा हुई। पण्डित लाला लाजपत राय जी और पण्डित मोतीलाल नेहरु जी जो कि उन दिनों जेल में थे, उन्हें भी गाँधी जी के इस निर्णय से बहुत आघात लगा था और उन्होंने एक असहमति का पत्र भी गाँधी जी को लिख भेजा था। ऐसे समय में भी बड़े नेताओं में केवल दो नेता श्री राजेन्द्र बाबू और वल्लभ भाई पटेल जी बिना किसी नुक्ताचीनी के, बिना चेहरे पर निराशा का भाव लाये, पूरे अनुराग और श्रद्धा से गाँधी जी के निर्णय में साथ खड़े रहे।

अपने साहसिक निर्णयों, देश सेवा की सच्ची भावनाओं और ज़मीनी स्तर से जुड़कर काम करने की लगन के चलते जल्दी ही सरदार पटेल जी काँग्रेस के कद्दावर नेता बन गये। काँग्रेस के सभी कार्यकर्ता पण्डित जवाहर लाल नेहरु जी से भी अधिक सरदार पटेल को प्यार करते थे और सम्मान देते थे। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ये है कि जब स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री के चुनाव की बात आई तो अधिकाँश प्रान्तीय काँग्रेस समितियों ने अपना मत सरदार पटेल के पक्ष में दिया। क्योंकि सब जानते थे कि नेहरु जी और पटेल जी दोनों ने वक़ालत की डिग्री लन्दन से प्राप्त की है मगर फिर भी वक़ालत में पटेल जी नेहरु जी से बहुत आगे थे। नेहरु जी अन्तराष्ट्रीय ख्याति के भूखे थे जबकि सरदार पटेल जी भारत के गरीब किसानों को लेकर चिंतित रहते थे। नेहरु जी से अधिक मत हासिल करने के बावजूद भी सरदार पटेल जी ने गाँधी जी की इच्छा का सम्मान करते हुए स्वयं को प्रधानमन्त्री की दौड़ से बाहर ही रखा और स्वतन्त्र भारत के प्रथम उप-प्रधानमन्त्री तथा गृह-मन्त्री बने।

5 जुलाई 1947 को एक ‘रियासत विभाग’ की स्थापना की गई थी। सरदार पटेल जी उप-प्रधानमन्त्री के साथ-साथ गृह और रियारत मन्त्री भी बनाये गये थे। उनका प्रथम दायित्व टुकड़े-टुकड़े में बिखरे भारत का एकीकरण करके उसे अखण्डता प्रदान करना था। इस अभियान में सरदार पटेल जी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान आज़ादी से ठीक पहले (संक्रमण काल में) देना शुरू कर दिया था। उन्होंने वीपी मेनन के साथ मिलकर देसी राजाओं को समझाया कि उन्हें स्वायत्तता नहीं दिया जा सकता है, इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बस्तर की रियासत में कच्चे सोने का बड़ा भारी क्षेत्र था और इस भूमि को दीर्घकालिक पट्टे पर हैदराबाद की निज़ाम सरकार खरीदना चाहती थी। सरदार पटेल को जैसे ही ये जानकारी प्राप्त हुई वे वीपी मेनन के साथ तुरन्त उड़ीसा पहुँचे, वहाँ के 23 राजाओं से कहा, "कुएँ के मेढक मत बनो, महासागर में आ जाओ" इस तरह उन्होंने सभी 23 राजाओं को भारत में विलय करवा लिया। फिर नागपुर के 38 राजाओं से मिले, इन्हें "सैल्यूट स्टेट" कहा जाता था। अर्थात् जब कोई इनसे मिलने जाता तो तोप छोड़कर सलामी दी जाती थी। पटेल ने इन राज्यों की बादशाहत समाप्त करके उन्हें भारत में मिला लिया। इसी तरह वे काठियावाड़ पहुँचे जहाँ लगभग 250 रियासतें थी। जिनमें कुछ केवल 20-20 गाँव की रियासतें थीं, सबको भारत में विलय करवाया। एक बार मुम्बई गये और आसपास के राजाओं से बातचीत करके उन्हें भारत में मिलाया। अन्ततः15 अगस्त 1947 तक केवल तीन रियासतें-कश्मीर, जूनागढ़ और हैदराबाद छोड़कर उन्होंने सभी रियासतों को भारत में मिला दिया। इन तीन रियासतों में भी जूनागढ़ को 9 नवम्बर 1947 को मिला लिया गया, जब उसका निज़ाम पाकिस्तान भाग गया था। 13 नवम्बर को सरदार पटेल जी ने सोमनाथ के भग्न मंदिर के पुनर्निर्माण का संकल्प लिया, जो नेहरू जी के तीव्र विरोध के पश्चात भी बनवा दिया। 1948 में हैदराबाद भी केवल 4 दिन की पुलिस कार्रवाई द्वारा भारत में मिला लिया गया। जहाँ तक कश्मीर रियासत की बात है तो इसको पण्डित जवाहरलाल नेहरू जी ने सरदार पटेल के एकीकरण अभियान से निकालकर स्वयं अपने अधिकार में रख लिया था। यदि नेहरु जी ने ऐसा न किया होता तो निश्चित ही आज कश्मीर समस्या होती ही नहीं। कश्मीर को लेकर पटेल जी के पास पुख्ता योजना थी परन्तु उस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। सरदार पटेल जी कश्मीर में जनमत संग्रह तथा कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाने पर नेहरु जी से असहमत थे।

आज का अखण्ड भारत जो हमारे पास है वो सरदार पटेल जी की मेहनत, साहस, लगन और तपस्या का परिणाम है। विश्व के इतिहास में वो एकमात्र ऐसे व्यक्तित्व रहे कि जिसने इतनी बड़ी मात्रा में राज्यों का एकीकरण किया हो। सरदार पटेल जी ने छोटी-बड़ी 562 रियासतों का भारतीय संघ में विलीनीकरण करके भारत को एकता और अखण्डता का वरदान दिया। नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था। भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। महात्मा गांधी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, "रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।" लोगों की  मान्याता बनी कि सरदार पटेल बिस्मार्क की तरह थे। लेकिन लंदन टाइम्स ने लिखा था "बिस्मार्क की सफलताएँ पटेल जी के सामने महत्वहीन रह जाती हैं। यदि पटेल जी के कहने पर चलते तो कश्मीर, चीन, तिब्बत व नेपाल के हालात आज जैसे न होते। पटेल जी सही मायनों में मनु के शासन की कल्पना थे। उनमें कौटिल्य की कूटनीतिज्ञता तथा महाराज शिवाजी की दूरदर्शिता थी। वे केवल सरदार ही नहीं बल्कि भारतीयों के हृदय के भी सरदार थे।"

केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने "राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता" को प्रोत्साहित करने के लिए पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर  ‘सरदार पटेल राष्ट्रीय एकता सम्मान’ प्रदान करने का निर्णय लिया है। गृह मंत्रालय की ओर से जारी अधिसूचना के अनुसार, यह सम्मान "राष्ट्रीय एकता और अखण्डता" को प्रोत्साहित करने में दिये गये प्रेरक योगदान तथा सशक्त एवं अखण्ड भारत के मूल्यों को मजबूती देने वालों को दिया जायेगा। नस्ल, पेशा, पद या लिंग के भेदभाव के बिना कोई भी व्यक्ति यह सम्मान पाने का हक़दार होगा। यह सम्मान बेहद दुर्लभ मामलों में बहुत योग्य व्यक्ति को मरणोपरांत भी दिया जा सकेगा। केंद्र सरकार ने 31 अक्टूबर जो कि सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती है, उस दिन को "राष्ट्रीय एकता दिवस या राष्ट्रीय या अखण्डता दिवस" के रूप में मनाने का फैसला किया है। अदम्य साहस के धनी, अद्भुत धैर्य के स्वामी सरदार पटेल को उनके इस अद्भुत और अकल्पनीय योगदान के कारण "लौह पुरुष" कहा जाता है। एकता की प्रतिमूर्ति सरदार पटेल जी की प्रतिमा “स्टेच्यू ऑफ़ यूनिटी” का निर्माण गुजरात राज्य के नर्मदा जिले में ‘सरदार सरोवर’ बाँध के पास साधू बेट नामक स्थान पर लगाई गयी है। 182 मीटर (597 फीट) और आधार सहित 240 मीटर (790 फीट) की ऊँचाई वाली ये मूर्ति विश्व की सबसे ऊँची मूर्ति है।

अखण्ड भारत की नींव को अपना जीवन सौंपकर मजबूत करने वाले सरदार पटेल जी के हम कृतज्ञ हैं, कि उन्हीं की वजह से आज हम एक विकासशील राष्ट्र में जीने का सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं। अगर वो नहीं होते तो शायद भारत की विशालता आज इतनी नहीं होती जितनी की है। ऐसे में बहुत हद है सम्भव है हम अपने देश के तमाम राज्यों के ही पड़ोसी देश होते और उन्हीं के साथ लड़ाई-झगड़े में फँसकर अपने विकास का मार्ग अवरुद्ध किये बैठे रहते। परन्तु पटेल जी के अतुलनीय योगदान के कारण सभी रियासतों ने भारत में विलय किया और आज भारत विकास के मार्ग पर अग्रसर है। दुनियाँ के बड़े-से-बड़े राष्ट्र भारत की मित्रता का आदर करते हैं और वे भारत के साथ मधुर सम्बन्ध की इच्छा रखते हैं। कुछ देश जो स्वयं ही भारत से शत्रुता किये बैठे हैं उनकी हालत कितनी बदतर है ये हमसे छुपी नहीं है। बार-बार शान्ति प्रस्तावों को अपमानित करने वाला पाकिस्तान आज अपने बोये काँटों से घायल होता रहता है। यदि सरदार पटेल जी न होते तो शायद हम दुनियाँ के नक़्शे पर इतना कम स्थान पाते कि दिखाई ही नहीं पड़ते। परन्तु आज का भारत अपने वीर सपूतों, महापुरुषों के आचरण पर गर्व करता हुआ हिमालय की चट्टानों से भी मजबूत होकर अपना सिर ऊँचा किये दुनियाँ को विकास, आदर्श, शान्ति, संघर्ष, संस्कार की परिभाषा सिखाता रहता है।


जय हिन्द-जय भारत

- कुमार आशीष
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Tuesday, October 22, 2019

रश्मिरथी

नाम                   -  रश्मिरथी
लेखक                -  श्री रामधारी सिंह ‘दिनकर’
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  176 पेज
मूल्य                  -  ₹105
प्रकाशक            -  लोकभारती प्रकाशन प्रा. लि.
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श्री दिनकर जी की अद्भुत रचना शैली का आनन्द लेने और महाभारत के प्रमुख पात्रों में एक 'कर्ण'  को जानने के लिए सबसे अच्छी पुस्तक है। इस पुस्तक के माध्यम से कर्ण को लेकर आपके सोचने का नज़रिया एकदम स्पष्ट हो जायेगा, उस महान व्यक्तित्व के आगे स्वयं देवराज नतमस्तक हैं। इस पुस्तक में हस्तिनापुर के राज्यसभा में भगवान् कृष्ण जी ने जो विराट् स्वरुप दिखाया था और उसके बाद किस तरह से कर्ण-कृष्ण संवाद हुआ वो बहुत शानदार शैली में चित्रित किया गया है। इसके बाद कुन्ती-कर्ण संवाद पढ़ते हुए कोई भी भावुक हो सकता है। पुस्तक में ये भी बताया गया है कि महाभारत की घटनाओं से समस्त मनुष्य जाति के लोगों को क्या सीखना चाहिए... अगर आप काव्यप्रेमी हैं तो निश्चित ही ये पुस्तक आपको बहुत बढ़िया लगेगी।

इसकी प्रिंटिंग क्वालिटी आधुनिकता के हिसाब से उतनी चमकदार नहीं लगी जितनी होनी चाहिए।  पुस्तक की कवर बहुत बढ़िया है लेकिन अन्दर के पेज की डिजाईन बहुत साधारण बनाया है, उसमें कुछ छोटे-छोटे चित्र आदि जोड़े जाते तो अलग ही आकर्षण उत्पन्न होता। लेकिन पुस्तक की प्रस्तुति कैसी भी हो रचना शैली बहुत शानदार है। आख़िर एक बड़े कवि श्रीरामधारी सिंह दिनकर जी की रचना है, तो दिनकर जी का नाम ही काफी है। उनके पास पाठकों को बाँधे रखने की अद्भुत कला है।


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Monday, October 21, 2019

राम (इक्ष्वाकु के वंशज)

नाम                   -   राम (इक्ष्वाकु के वंशज)
लेखक                -  अमीश त्रिपाठी
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  350 पेज
मूल्य                  -  ₹198
प्रकाशक            -  यात्रा-वेस्टलैण्ड
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ये पुस्तक अमीश सर द्वारा रचित “श्रीरामचन्द्र” सिरीज़ की पहली पुस्तक है। इस सिरीज़ में कुल तीन पुस्तकें हैं:-

1) राम (इक्ष्वाकु के वंशज)
2) सीता (मिथिला की योद्धा)
3) रावण (आर्यवर्त का शत्रु)

मैंने अभी तक पहली पुस्तक पढ़ी है। इसके आधार पर कह सकता हूँ कि लेखक की लेखन प्रतिभा और शोधन क्षमता निश्चित रूप से प्रशंसनीय है। इस पुस्तक को मनोरंजन के लिए किसी उपन्यास की तरह पढ़ा जाना चाहिए, इससे आपका ऐतिहासिक ज्ञान मजबूत होगा ये जरूरी नहीं है और जो होगा उसके ग़लत होने की सम्भावना बहुत प्रबल है। इस किताब की उपयोगिता कई गुना बढ़ सकती थी यदि इसमें प्रस्तुत वो तथ्य जो परम्परागत तथ्यों से बिल्कुल विपरीत हैं, उनका सन्दर्भ भी दिया गया होता। उसके बिना ऐसा लगता है कि ये विपरीत तथ्य लेखक के निजी विचार हैं या दिमाग़ी फितूर है जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं है। ये भी हो सकता है कि मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मैंने श्री राम जी के बारे में गिने-चुने ग्रन्थ ही पढ़े हैं। जैसे:- श्रीरामचरितमानस, रामायण, कवितावली, दोहावली आदि। इन सबको पढ़ने के बाद जो मैंने पाया उसके बहुत विपरीत कई तथ्य इस पुस्तक में है। लेखक ने निश्चित ही इस पौराणिक घटना से जुड़े तमाम भाषाओं के ग्रंथों का अध्ययन किया है। उस हिसाब से वो सही होंगे लेकिन फिर भी मेरे लिए उन सभी तथ्यों को बिना सन्दर्भ के स्वीकार कर पाना बहुत मुश्किल है, लगभग असम्भव है। 

तथ्यों से हटकर बात करें तो इस पुस्तक में भाषा शैली, प्राकृतिक सौन्दर्य, भेषभूषा, नगर आदि का जो वर्णन है वो एकदम जीवन्त है। पढ़ते हुए एक रेखा चित्र जैसा खिंच जाता है। इसके अलावा प्राचीन पद्धतियों एवं सामाजिक एवं मानसिक स्थितियों का खूब बढ़िया और जानदार चित्रण है। 

इस पुस्तक में जो सबसे ख़ास बात है वो इसका कवर डिजाईन है। बहुत ही आकर्षक डिजाईन है। अन्दर के पृष्ठों पर भी यदि कुछ चित्रादि होते तो अन्दर के पृष्ठ भी आकर्षक लगते परन्तु उसे डिजाईन करने में शायद हमारी परम्परागत उपन्यास शैली का अनुसरण किया गया है। मैं फिर से कहूँगा कि कवर को देखकर बहुत आकर्षण होता है।


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एवरेस्ट की बेटी

नाम                   -   एवरेस्ट की बेटी
लेखक                -  अरुणिमा सिन्हा
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  168 पेज
मूल्य                  -  ₹112
प्रकाशक            -  प्रभात प्रकाशन
खरीद                -  Amazon (Buy Now)

जब ये पुस्तक मुझे मिली तो मैंने बस भूमिका पढ़ने के लिए खोला था। बाकी शायद मैं बाद में पढ़ता परन्तु मुझे इतना जुड़ाव हो गया कि पूरी पुस्तक एक बार में पढ़ गया और पढ़ते हुए रोता रहा। ‘अरुणिमा सिन्हा’ की आत्मकथा हमें विषम-से-विषम क्षणों में में भी हार न मानने की प्रेरणा देती है। राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा के आगे एक सुनहरा भविष्य था। अपनी नौकरी के जब वो लखनऊ से दिल्ली जा रही थीं तभी कुछ राक्षसों ने उन पर हमला कर दिया। कोच में खूब भीड़ थी पर दुर्भाग्य से सब कायरों की भीड़ थी तो किसी ने सहायता नहीं की। काफी देर तक कई लोगों से अकेले ही अरुणिमा लड़ती रहीं और फिर एक धक्का लगा जिससे वो चलती ट्रेन से बाहर गिर गयीं। गिरते हुए सामने की पटरी पर आ रही ट्रेन से भी टकराई जिसके कारण बहुत बुरी तरह घयाल होकर पटरी के किनारे पड़ी थीं। उनका एक पैर ट्रेन के नीचे आ जाने से कट गया था। कड़ाके की ठण्डी और भीषण दर्द सहते हुए अपनी मौत से पंजा लड़ा रही थीं। उन्हें ये तक नहीं पता था कि अगली आने वाली ट्रेन वो देख पायेंगी या उससे पहले मर जायेंगी। सात-आठ घंटे तक मौत के पंजे से अपनी ज़िन्दगी बचाये रखने वाली अरुणिमा को सुबह आसपास के गाँव वालों की कुछ सहायता मिली। उन्हें बरेली के सरकारी अस्पताल में ले जाया गया जहाँ बेहोशी की दवा उपलब्ध न होने के कारण पूरे होशो-हवाश में अरुणिमा ने अपना कटा हुआ पैर सर्जरी के माध्यम से अपने शरीर से अलग करवाया। डॉक्टर्स ये करने को तैयार नहीं थे पर अरुणिमा के जोर देने पर उन्हें ऐसा करना पड़ा। अरुणिमा ने अपने सेना-नायक पिता को बहुत कम उम्र में खो दिया था। उनकी संदिग्ध हालत में डूबकर मौत हो गयी थी और उसका इल्ज़ाम अरुणिमा की माँ और बड़े भैया पर आया। उस षडयंत्र से किसी तरह बाहर निकलने के बाद उनके बड़े भैया का खून हो गया। अब उनकी माँ, एक बड़ी बहन और एक छोटा भाई उनके परिवार में हैं। 

इस पुस्तक में अरुणिमा ने अपने पूरे जीवन की घटित घटनाओं का वर्णन किया है। इसमें पता चलता है कि अगर प्रशासन के लोग मेहरबान होते हैं तब क्या होता है और विपरीत होते हैं तब क्या होता है? भारत में महिलाओं की सुरक्षा पद्धति और किसी असहाय से फायदा उठाने वाले लोग कितने गिरे हुए हो सकते हैं वो आपको इस पुस्तक में देखने को मिल जायेगा। ‘एक सरकारी विभाग अपनी शाख बचाने के लिए उसी के चरित्र और व्यव्हार पर हमला कर सकती है जो स्वयं पीड़ित है’ इसका सबसे बड़ा उदाहरण इस पुस्तक में है। हर किसी से अरुणिमा के कटे अंगों को बार-बार काटकर अपना-अपना हित साधने की खूब कयावद की... 

परन्तु, जो मौत से लड़ने का साहस रखती हो उसके लिए दुनियाँ से लड़ना कौन-सी बड़ी बात है? उसने सभी आलोचकों और विरोधियों के गाल पर करारा तमाचा उस वक़्त जड़ दिया जब वो बिना किसी का हाथ पकड़े अपने नकली पैरों के सहारे ठीक से चल भी नहीं पा रही थी और फिर भी निर्णय लिया कि उसे दुनियाँ की सबसे ऊँची चोटी “एवरेस्ट” पर चढ़ना है। अनेक परेशानियों का सामना करते हुए, बर्फ की श्वेत चादर को अपने पैरों से निकलते हुए खून से लाल करके... आगे-आगे कदम बढ़ाते हुए वो दुनियाँ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचती है और इस तरह वो एवरेस्ट पर चढ़ने वाली प्रथम विकलांग महिला और (प्रथम भारतीय विकलांग) का विश्वकीर्तिमान अपने नाम कर लेती है। पर्वतारोहण के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्मश्री’ तथा ‘तेनजिंग नोर्गे अवार्ड’ से सम्मानित किया है। आजकल अरुणिमा सिन्हा जी गरीब और अशक्त जनों के लिए निःशुल्क स्पोर्ट्स अकादमी के लिए प्रयासरत हैं। 

एक लड़की जो शारीरिक रूप से दिव्यांग है, गरीब परिवार से है उसने किस तरह अपने मानसिक बल से और संघर्ष से एवरेस्ट की पहली महिला विजेता के पास पहुँची? कैसे उनसे मिलने का जरिया बनाया? क्या-क्या सीखा? कैसे-कैसे चुनातियों से लड़कर आगे बढ़ी? कौन-कौन उनके साथ आया? कौन सहयोगी रहा, किसने टांग पीछे खींची? कैसे धन इत्यादि की व्यवस्था की? कब-कब चढ़ाई के दौरान मरते-मरते बची? ऑक्सीजन ख़त्म होने को था फिर भी एवरेस्ट पर फोटो खिंचवाई और विडियो भी बनवाया... इस सब को जानने के लिए आपको ये पुस्तक “एवरेस्ट की बेटी” पढ़नी चाहिए। बहुत ही प्रेरणादायक है और दुनियाँ की लड़ाई के मैदान में कैसे डटकर खड़े रहना है इसका बहुत बड़ा उदाहरण आपको मिलेगा।

पुस्तक की प्रिंटिंग क्वालिटी सही है पर अच्छा रहता अगर इसके अन्दर के पेज एकदम सफेद होते। इसमें कुछ ख़ास-ख़ास तस्वीरें हैं जो कलर प्रिंट की गयी हैं और फोटोजेनिक पेपर के इस्तेमाल से उनकी चमक भी बढ़ गयी है। कवर की डिजाईन और उस पर लिखे अंश पर्याप्त हैं कि किसी को भी इस पुस्तक की लालसा हो।

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मेरी मेरी याद

नाम                   -   मेरी मेरी याद
लेखक                -  डॉ. कुमार विश्वास
फॉर्मेट                -  पेपरबैक
पृष्ठ संख्या           -  176 पेज
मूल्य                  -  ₹159
प्रकाशक            -  राजकमल प्रकाशन
खरीद                -  Amazon (Buy Now)

‘डॉ. कुमार विश्वास’ कवि का नाम ही इतना महत्त्वपूर्ण है कि पुस्तक के नाम का महत्व कुछ कम हो जाता है। लोग इनकी पुस्तक को उसके नाम से नहीं बल्कि रचनाकार के नाम से ही खरीदना और पढ़ना चाहेंगे। कुमार सर की एक और पुस्तक मैंने पढ़ी है “कोई दीवाना कहता है”- मुझे “फिर मेरी याद” में पिछली बार की अपेक्षा कुछ कम गीत लग रहे हैं, और सबसे ख़ास बात ये है कि उनकी एक रचना है “फिर मेरी याद आ रही होगी, फिर वो दीपक बुझा रही होगी..., इसकी कमी बहुत ज्यादा लगी। मेरे हिसाब से इस रचना को तो जरूर इस पुस्तक में होना चाहिए था। खैर, इसमें बाक़ी रचनाएँ बहुत कमाल की है। इसमें विशेषतः मुक्तक, क़ता और आज़ाद अशआर जो हैं वो इसकी उपयोगिता बढ़ा देते हैं। कुछ विशेष रचनाएँ जो मुझे ज्यादा पसन्द आयी उनकी सूची इस प्रकार है:-
  • तुम से कौन कहेगा आकर?
  • चंदा रे! गुस्सा मत होना!
  • वंश नहीं चलता कान्हा
  • सार्त्र!
  • लाख भीगे ज़मीन का आँचल
  • जब छुआ साथ तुलसी चौरा
  • बोलो रानी क्या नाम करूँ?
इसकी प्रिंटिंग क्वालिटी तो बढ़िया है ही साथ ही इसके अन्दर के पेज के डिज़ाइन बहुत रोचक हैं। कवर पर कुमार सर की फोटो और ऑटोग्राफ के साथ डिजाईन का थीम और कलर बहुत सुन्दर लग रहा है। जिन लोगों को गीत और कविता पढ़ने की लालसा रखते हैं वो इसे पढ़ सकते हैं। इसमें ज़िन्दगी के विभिन्न रंगों को अलग-अलग चित्रित रचनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।


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